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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/५३४

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मध्यमका ३७७३ मध्यवृच स० निषाद गांधार, निषाद मधम, कोमल ऋषभ पंचम, कोमल के अनुसार उसका प्रादरमान या अपमान करे। ३. गांधार घेवत, मध्यम, निपाद । रजस्वला स्त्री। ४. कनियाग। ५. छोटा जामुन । ६. २. वह उपपति जो नायिका के शोध दिखलाने पर अपना अनुराग का कोली । ७. युक्तिवल्पतरु के अनुसार २४ हाय लंबी, न कट करे और उसकी चेष्टाओं से उसके मन का भाव १२ हाथ पौड़ी पौर ८ हाग ऊंची नाव । जाने । ३. साहित्य में तीन प्रकार के नायकों में से एक । मध्यमागम-संज्ञा पुं० [सं०] नौद्धों के चार प्रकार भागमों में ४. एक प्रकार का मृग । ५. एक राग का नाम । ६. से एक प्रकार का प्रागम। मध्य देश। मध्यमानेय-संज्ञा पुं॰ [सं० ] एक प्राचीन ऋषि का नाम । मध्यमक'- वि० [सं०] [वि. स्त्री० मायमिका ] १. मध्य का। मध्यमान-संज्ञा पु० [स०] एक प्रकार का ताल जिसमें ८ ह्रस्व अथना बीच का । २. सामान्य । सार्वजनीन । ४ दीर्घ मात्राएं होती हैं तथा ३ पाघात और १ खाली होता मध्यसक-संज्ञा पुं० क्सिी वस्तु का भीतरी भाग (को०) । है । इसके तबले के बोल ये हैं-या चिन ताक् धिन, घा घिन मध्यमणि-संह पुं० [सं०] हार का मध्यवर्ती मणि । पदिक को०] । ताक् धिन, घा तिन ताक् तिन, ता धिन ताक् धिन । घा। मध्यमता-संवा स्त्री॰ [सं०] मध्यम होने का भाव । मध्यमाहरण- संवा पुं० [सं०] बीजगणित की वह क्रिया जिसके मध्यमध्या-संज्ञा स्त्री० [सं०] संगीत में एक मूर्छना किो०] । अनुसार कोई आयत्त मान निकाला जाता है। मध्यमपद--संज्ञा पुं० [सं०] ममास का मध्यवर्ती पद । मध्यमिक-वि० [सं० बीच का । मध्यम। मध्यमपदलोपी- संज्ञा पुं० [ स० मध्यमपदलोपिन् ] व्याकरण में वह मध्यमिका-संक्षा स्त्री॰ [ ] वह पन्ना जिसे रजोदर्शन हो चुका सभास जिसमें पहले पद से दूसरे पद का संबध बतलानेवाला हो । रजस्वला स्त्री। २. देश विशेष जो भारत के मध्य में शब्द लुप्त या समास से अध्याहृत रहता है । लुप्तपदसमास । कहा गया है । मामिका (को॰) । विशेष-कुछ वर्मधारय और कुछ बहुती हि समास मध्यमपद मध्यमोय-वि॰ [ स०] दे॰ 'मध्यम' । सोपी हुआ करते हैं। जैसे, पर्णपाला (पर्णनिर्मितशाला), मध्यमेश्वर-संज्ञा पुं० [सं० ] माशीस्थ एक शिवलिंग । जेव बड़ी (जेब में रहनेवाली घड़ी), मृगनयनी (मृग के समान मध्ययव-संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक परिमाण जो ६ नयनोंवाली)। पीली सरसों के बरावर होता है । मध्यमपांडव-संज्ञा पुं० [सं० मध्यम पाण्डव ] अर्जुन [को०] । मध्ययुग-संज्ञा पु० [सं०] १. प्राचीन और अर्वाचीन के मन का मध्यमपुरुष-संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण के अनुसार तीन पुरुषों समय । २. इतिहास में राजपूत ऐ मुगलकाल तक समय। में से वह पुरुष जिससे बात की जाय । वह व्यक्ति जिसके ३. यूरोप में सन् ६०० से १५०० ई० तक समग । प्रति कुछ कहा जाय। मध्यमराजा-संज्ञा पुं॰ [स०] वह राजा जो कई परस्पर विरुद्ध मध्यरात्रि-मंया स्त्री० [ स० ] गर्थरात्रि । बाधी रात [को०] । मध्यरात-उद्या पुं० [ दे० 'मध्यरात्रि' [को०)। राजारों के मध्य में हो। विशेष-इसमें इतनी शक्ति का होना आवश्यक है कि शाति तथा मध्यरेखा-संज्ञा स्त्री॰ [म०] ज्योतिष पोर भुगोलशास्त्र में वह रेखा युद्धकाल में दोनों पक्षों के निग्रह तया अनुग्रह में समर्थ हो । जिसकी कल्पना देशांतर निकालने के लिये की जाती है। मध्यमरान-सचा पु० [सं०] प्राधी रात (कोच) । विशेष -यह रेखा उत्तर दक्षिण मानी जाती है और उत्तरी मध्यमरात्रि-सञ्चा स्त्री॰ [स०] गावी रात । उ०-माघ की मव्य. तथा दक्षिणी ध्रुवों को काटती हुई एक वृत्त बनाती है। राशि में वहाँ अभिसार के लिये निरापदता होती है।- मध्यलोक- पु० [स० ] १. पृथ्वी । २. जैनों के अनुसार वह पोद्दार अभि० प्र०, पृ० १४३ । मध्यवर्ती लोक जो मेरु पर्वत पर १०००४० योजन की ऊंचाई पर है। मध्यमलोक-संशा गु० [सं०] पृथ्वी । मध्यमवय-संज्ञा पु०, स्त्री० [ स० मध्यमवयस् ] अधेड़ उन । को०] । मध्यवय-वि० [स० मध्यवयस् ] प्रौढ । अधेड [को०। मध्यमवयस्क-नि ] अधेड़ उम्र का । प्रौढ । मध्यवर्ती -वि० [सं० मध्यवर्तिन् ] जो मन्ध में हो । बीच का। मध्यमसंग्रह-संझा पु० [सं० मध्यमसङ्ग्रह ] मिताक्षरा के अनुसार मध्यवित्त-वि० [स० ] जिसकी अय मध्यम हो । वीच की श्रेणी स्त्री को अपने अधिकार में लाने का वह प्रकार जिसमें पुरुष का। जो न अमोर हो, न गरीब । उसे वस्त्र आभूषण यादि भेजकर अपने पर अनुरक्त करता है । मध्यविवर्ण-या पु० [स०] वृहत्संहिता के अनुपार सयं या मध्यमसाहस-संघा पुं० [स०] मनु के अनुसार पांच सौ पण तक चद्र ग्रहण के मोक्ष का एक प्रकार जिसमें चंद्रमा का का शार्थदंड या जुरमाना। मध्यभाग पहले प्रमाणिन होता है । कहते हैं, इस प्र.ार के मध्यमा-संज्ञा सी० [स०] १. पाव गलियों में से बीच की मोक्ष से अन्न तो यथेष्ट होता है, पर वृष्टि अधिक नहीं होती। उगली। २. वह नायिका जो अपने प्रियतम के प्रेम या दोष मध्यवृत्त-संशा पु० [सं०] नाभि [को०] । PO स०