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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/५८

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फिरंगी' ३२६७ फिरकी फिरंगी-संशा खी० विलायती तलवार । यूरोप देश की बनी संसार हिरण्यकशिनु और फिरऊन इत्यादि के सदृश मंधा तलवार । उ०-चमकती चपला न, फेरत फिरंगै भट, इंद्र और अज्ञानी है।-कबीर मं०, पृ० २२२ । को चाप रूप बैरष समाज को।-भूषण (शब्द०)। फिरऔन'-सज्ञा पुं० [अ० फ़िरऔन ] प्राचीन मिस्र के बादशाहों फिरंट-वि० [हिं० फिरना ] १. फिरा हुघा । विरुद्ध । खिलाफ । की उपाधि। उ०-जिन लोगो से इकरार करके गए थे वह सब फिरंट फिरऔन-वि० अभिमानी। पहंमन्य (को०] । हो गए ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ३४ । २. बिगड़ा हुमा । फिरक -संज्ञा स्त्री० [हिं० फिरना ] एक प्रकार की छोटी गाड़ी विरोध या लड़ाई पर उद्यत । जैसे,—वात ही बात में वह जिसपर गांव के लोग चीजों को लादकर इधर उधर ले मुझसे फिरंट हो गया। जाते हैं। (रुहेलखंड)। क्रि० प्र०-होना। फिरकना-क्रि० भ० [हिं० फिरना] १. थिरकना । नाचना । फिरंदर-वि० [हिं० फिरना ] घूमनेवाला । घुमंतू । खाना- २. किसी गोल वस्तु का एक ही स्थान पर घुमना । लट्ट बदोश । यायावर । उ०-अथर्ववेद में मगध के निवासियों की तरह घूमना या चक्कर खाना । को व्रात्य कहा गया है, जो प्रत्यज और फिरंदर समझे जाते फिरकनी-ज्ञा स्त्री० [हिं० फिरना ] दे० 'फिरकी' । उ०-दूर दूर थे।-हिंदु० सभ्यता, पृ० ६६ । फिरती रहती थी, जैसे फिरती गिरे फिरकनी ।-मिट्टी०, फिर-क्रि० वि० [हिं० फिरना ] १. जैसा एक समय हो चुका है पू० ११०। वैसा ही दूसरे समय भी। एक बार और । दोबारा । पुन. फिरका-संज्ञा पुं० [ घ० फ़िरकह ] १. जाति । २. जत्था । हूं। जैसे,—इस वार तो छोड़ देता हूँ, फिर ऐसा काम न करना। ३. पंथ । संप्रदाय । उ.-नैन नचाय कही मुसकाय, लला फिर पाइयो खेलन यौ०-फिरकापरस्त = सांप्रदायिक । फिरकापरस्ती = सांप्रदायि- होरी।-पद्माकर (शब्द०)। कता। फिरकाबंदी = जमात या गिरोह बनाना । गुटबंदी। यौ०-फिर फिर = बार बार। कई दफा । उ०—फिर फिर फिरकावार-प्रदायानुसार । वूझति, कहि कहा, कह्यो साँवरे गात । कहा करत देखे कहा फिरकी-संज्ञा स्त्री० [हिं० फिरकना ] १. वह गोल या चक्राकार अली ! चली क्यों जात? -बिहारी (शब्द०)। पदार्थ जो वीच को कोली को एक स्थान पर टिकाकर घूमता २. पागे किसी दूसरे वक्त । भविष्य में किसी समय । और वक्त । हो । २. लड़कों का एक खिलौना जिसे वे नचाते हैं । फिरहरी। जैसे,---इस समय नहीं है फिर ले जाना। ३. कोई बात हो ३. चकई नाम का खिजीना । उ०-नई लगनि कुल की चुकने पर | पीछे । मनंतर । उपरांत । बाद में । जैसे,—(क) सकुचि धिकल भई प्रकुलाय । दुहुँ घोर ऐंची फिरे फिरफी फिर क्या हुपा? (ख)- लखनऊ से फिर कहाँ जानोगे ? लौ दिन बाय |-बिहारी (पाब्द०)। ४. चमड़े का पोल उ०-मेरा मारा फिर जिएं तो हाथ न गहौ कमान । टुकड़ा को वफवे में बपाफर चरखे में बगाया जाता है । चरखे कबीर ( णब्द०)। ४. तब । उस अवस्था मे। उस हालत में जब सूत कातते हैं तब उसके लच्छे को इसी के दूसरे पार में । जैसे,—(क) जरा उसे छेड़ दो फिर कैसा झल्लाता लपेटते हैं । ५. लकड़ी, धातु वा कद का छिलने पादि का है। (ख) उसका काम निकल जायगा फिर तो वह किसी गोल टुकड़ा षो तागा घटने के वकवे के नीचे लगा रहता है। से बात न करेगा। उ०-(क) सुनते घुनि धीर छुट छन में ६. मालखंभ की एक कसरत जिसमें जिघर के हाथ से माल- फिर नेकहु राखत चेत नहीं। हनुमान (प्यब्द०)। (ख) खभ लपेटते हैं डसी पोर गर्दन झुकाकर फुरती से दूसरे हाथ तुम पितु ससुर सरिस हितकारी । उतर देउँ फिर अनुचित के कंधे पर मालखंभ को लेते हुए उड़ान करते हैं। भारी।-तुलसी (शब्द०)। यौ०-फिरकी का नक्कीकस = मालखंभ की एक कसरत । (इसमे एक हाथ अपनी कमर के पास से उलटा ले जाते हैं मुहा०-फिर क्या है ? = तब क्या पूछना है। तब तो किसी और दूसरे हाथ से बगल में मालखंभ दबाते हैं और फिर वात की कसर ही नहीं है। तब तो कोई पड़चन ही नहीं दोनों हाथों की उंगलियों को बांट लेते हैं। इसके पीछे जिधर है । तब तो सब बात पनी बनाई है। का हाथ कमर पर होता है उसी पोर सिर और सब घड़ ५. देश संबंध में पागे बढ़कर। भौर चलकर । भागे भौर दूरी को घुमाकर सिर को नीचे की घोर झुकाते हुए मालखंभ में पर। जैसे,—उस बाग फे मागे फिर क्या है ? ६. इसके लगाकर दंवत् करते हैं) । फिरकी दंड = एक प्रकार का कस- अतिरिक्त। इसके सिवाय । जैसे,-वहाँ जाकर उसे किसी . रत या दंड जिसमें दंड करते समय दोनों हाथों को जमाकर बात का पता न लगेगा, फिर यह भी तो है फि वह जाय या दोनों हाथों के बीच में से सिर देकर कमान के समान हाथ न जाय। उठाए बिना चक्कर मारकर जिस स्थान से चलते हैं फिर फिरऊन-संज्ञा पु० [अ० फ़िरौन ] मिन के बादशाहों की उपाधि वही पा जाते हैं। जो अपने पापको ईश्वर कहा करते थे। उ०-यह समस्त ७. कुपती का एफ पेंच ७-६ -