पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/७५

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फूलमती ३३१४ फेंकना उ०-नंदनंदन वृषभानु नंदिनी बैठे फूलमंडनी राजें। का ढंग न हो। बेशऊर । (इस शब्द का प्रयोग अधिकतर छीत०, पृ० २७ । स्त्रियों के लिये होता है)। उ०-लुगरा गंधात रबड़ी चीकट सी फूलमती-संज्ञा स्त्री० [हिं० फूल +मत (प्रत्य॰)] एक देवी का नाम । गातमुख धोवै न अन्हात प्यारी फूहष्ट बहार देति । –कविता विशेष-शीतला रोग के एक भेद की यह अधिष्ठात्री देवी मानी कौ०, भा॰ २, पृ० १०१। २. जो देखने में बेढंगा लगे । भद्दा । जाती है। इसकी उपासना नीच जाति के लोग करते हैं। फूहड़पन-संज्ञा पु० [हिं० फूहड़+पन (प्रत्य०) ] भद्दापन । यह राजा वेणु की कन्या कही जाती है। गंदगी। वेढंगापन । फूलवारा-संज्ञा पुं॰ [देश॰] चिउली नाम का पेड़ । फूहरा-वि० [ हि. दे० 'फूहड' । उ०—फूहर वही सराहिए फूलवाला-सज्ञा पु० [हिं० फूल+छाला ] [जी० फूलवाली] माली। परसत टपकै लार ।-गिरधर (शब्द०)। (ख) जीम का फलसॅपेल-वि० [हिं० फूल+सांप ] (वैल या गाय) जिसका एक फूहरा, पंथ का चूहरा, तेज तमा घरै प्राप खोवै । कबीर सीग दाहिनी पोर दूसरा बाईं ओर को गया हो। रे०, पृ० ३२. फूलखें धनी-संशा स्री० [हिं० फूल+सुघनी ] दे॰ 'फुलमुंघी'। फूहरी-सज्ञा स्त्री० [हिं० फूहर+ ई (प्रत्य॰)] फूहर का काम । उ०-सुनाती हैं बोली नहीं फूलसुघनी । हरी घास०, फूहड़पन । उ०-पातरी फूहरी प्रधम फा काम है; रांड का रोवना भांड गावै ।-कवीर रे०, पृ० ३२ । पृ० ३६। फूलसँ घो-संज्ञा स्त्री० [हिं० फूल +सुँघी ] दे० 'फुलसुंघी' । फूहा-संज्ञा पुं॰ [ देशा० ] रूई का गाला । उ०–उहूँ, यह फूलसुंधी है, पीजरे में जी नही सकती । फूही-संज्ञा स्त्री० [ अनु० ] १, पानी की महीन वू'द । २. महीन प्राकाश०, पृ० ११७॥ बूदों की झड़ी। उ०-घत न पार कल्पना तेरी ज्यो फूला-संज्ञा पु० [हिं० फूलना ] १ खोला । लावा । २. वह कड़ाह बरिखा ऋतु फूही । - सुदर ग्रं॰, भा॰ २, पृ० ८४० । जिसमें गन्ने का रस पकाया या उबाला जाता है । ३. एक फेंसी-वि० [अ० फैन्सी ] दे० फैसी'। रोग जो प्रायः पक्षियों को होता है । ( इससे पक्षी फूल जाता फक-संज्ञा स्त्री० [हिं० फेंकना ] फेंकने की क्रिया या भाव । है और उसके मुंह में काटे निकल पाते हैं जिससे वह मर फैकना-क्रि० स० [सं० प्रेषण, प्रा० पेखण अथवा सं० क्षेपण, जाता है)। ४. प्रांख का एक रोग जिसमें काली पुतली पर (खेपन, फेंकना)] १. झोके के साथ एक स्थान से दूसरे सफेद दाग या छोटा सा पड़ जाता है । फूली । स्थान पर डालना। इस प्रकार गति देना कि दूर जा गिरे । फूली-सञ्चा स्त्री० [हिं० फूल ] १. सफेद दाग जो आँख की पुतली घपमे से दूर गिराना । जैसे, तीर फेंकना, ठेला फेंकना, पत्थर पर पड़ जाता है। फेंकना। उ०-बलराम जी ने उसकी दोनों पिछली टांगें विशेष—इससे मनुष्य की भांख फी दृष्टि कुछ कम हो जाती पकड़ फिरायकर ऊँचे पेड़ पर फेंका। लल्लू (शब्द०)। है पौर यदि वह सारी पुतली भर पर या उसके सिल पर मुहा०-घोड़ा फेंकना = घोड़ा दौड़ाना । होता है तो पुष्ठि बिलकुल मारी जाती है। २. कुश्ती धादि में पटकना । दूर चित गिराना । ३. एक स्थान २. एक प्रकार की सज्जी। ३. एक प्रकार की रूई जो मथुरा से ले जाकर और स्थान पर डालना। जैसे,—(क) यहाँ के पासपास होती है। बहुत सा कूड़ा पड़ा है, फेंक दो। (ख) जो सड़े पाम हों उन्हें -संशा स्त्री० [हिं० ] दे० 'फूफी' । फेंक दो। फवार--सज्ञा पुं० तृण । फूस । तुष । संयो.क्रि०-देना। फूस-संज्ञा पु० [ सं० तुप, पा० भूस, फुस ] १. सूखी हुई लंबी घास ४. सावधानी से इधर उधर छोड़ना या रखना। वेपरवाही से जो छप्पर मादि छाने के काम में पाए । उ०—(क) कायर डाल देना । जैसे—(क) किताबें इधर उधर फेंकी हुई हैं फा घर फूस का भमकी चहूँ पछीत । शूरा के कछु पर नहीं सजाकर रख दो। (ख) कपड़े यों ही फेंककर चले जाते हो, गचगीरी की भीत। -कवीर (शब्द॰) । (ख) कबीर प्रगटहि कोई उठा ले जायगा। ५. बेपरवाही से कोई काम दूसरे के राम कहि छान राम न गाय । फूस फ जोड़ा दूर करु बहुरि ऊपर डालना। खुद कुछ न करके दूसरे के सुपुर्द करना। न लागे लाय।-कवीर (शब्द०)। २. सूखा तृण । खर । अपना पीछा छुड़ाकर दूसरे पर धार डाल देना । जैसे,- तिनका । ३. जीणं शोणं वस्तु । यह सब काम मेरे ऊपर फेंककर चला जाता है । ६. भूल से फूसि-संशा सी० [ मनुध्व० ] झूठी पात । चिराधार बात । कहीं गिराना या छोड़ना । भूलकर पास से अलग कर देना। उ०-मपथ सपथ कप कहकत फूसि, खय मोहें सखने रहत गंवाना । खोना। जैसे,-बच्चे के हाथ से अगूठी ले लो, मसि । विद्यापति, पृ० १६६ ।। कहीं फेंक देगा। फूहड़-वि० [सं० पव (गोवर) + घट (= गढना) अथवा देश॰] संयो.क्रि०-डालना ।-देना। १. जिसकी चालढाल वेढंगी हो । जिसका ढंग भद्दा हो । जो ७. जुए पादि के खेल में कौड़ी, पासा गोटी आदि प्रादि का हाथ किसी कार्य को सुचारु रूप से न कर सके । जिसे कुछ करने में लेकर इसलिये जमीन पर डालना कि उनकी स्थिति के फा