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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/७७

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३३१६ फेफड़ा BO फेन-पंज्ञा पुं० [सं०] [वि॰ फैनिल ] १. महीन महीन बुलबुलो का वह गठा हुप्रा समूह जो पानी या पौर किसी द्रव पदार्थ के खूब हिलने, सड़ने या खौलने से ऊपर दिखाई पड़ता है। झाग । बुदबुद्संघात । यौ०- फेनदुग्धा । फेनधर्मा = क्षणभंगुर । फेनपिंड = (१) बुल- बुला। बुद्बुद् । (२) निरर्थक विचार । सारहीन वात । फेनवाही = (१) फेन की तरह शुभ्र वस्त्र । (२) छनना । छानने का कपड़ा। क्रि० प्र०-उठना ।-निकलमा । २. मुख से निकली हुमा भाग या फेन (को०)। ३. लार । लाला (को०) । ४ रेंट । नाक का मल । फेनक-पज्ञा पु० [सं०] १. फेन । झाग । २. टिकिया के प्राकार फा एक पकवान या मिठाई। बतासफेनी। ३. शरीर धोने या मलने की एक क्रिया ( संभवतः रीठी प्रादि के फेन से धोना जिस प्रकार माजकल साबुन मलते हैं)। ३. साबुन । फेनका-मत्रा स्त्री० [सं०] पानी मे पका हुआ चावल का पूर । फेनी। फेनदुग्धा-पशा स्त्री॰ [ ] दूधफेनी नाम का पौधा जो दवा के काम मे प्राता है। यह एक प्रकार की दुधिया घास है । फेनना -क्रि० स० [हिं० फेन ] किसी तरल वस्तु को उंगली धुमाते हुए इस प्रकार हिलाना कि उसमें से झाग उठने लगे। फेनप-सज्ञा ० [सं०] वे ऋषि जो वनों में स्वयं गिरे हुए फल या फेन आदि खाते थे [को०] । फेनमेह-संज्ञा पुं॰ [स०] एक प्रकार का मेह । (इसमे वीर्य फेन की भांति थोड़ा थोड़ा गिरता है । यह श्लेष्मज माना जाता है।) फेनल-वि० [सं० ] फेनयुक्त । फेनिल । फेनाग्र-ज्ञा पु० [सं० ] बुद्बुद् । बुलबुला । फेनाशनि-संज्ञा पुं० [स०] इंद्र । फेनिका-संज्ञा स्त्री० [स०] फेनी नाम की मिठाई । फेनका । फेनिल'–वि० [सं० ] फेनयुक्त । जिसमें फेन हो । फेनवाला । फेनिल-संज्ञा पु० रीठा । रीठी । फेनी-मज्ञा पी० [सं० फेनिका या फेणी ] लपेटे हुए सूत के लच्छे के पाकार को एक मिठाई । उ०—(क) फेनी पापर भूजे भए अनेक प्रकार । भइ जाउर भिजियाउर सीझी सब जेवनार । —जायसी (शब्द०)। (ख) घेवर फेनी और सुहारी । खोवा सहित खाव बलिहारी।-सूर (शब्द०)। विशेष-ढीले गुधे हुए मैदे को थाली में रखकर घी के साथ चारो ओर गोल बढ़ाते हैं। फिर उसे कई बार उंगलियों पर लपेटकर वढ़ाते हैं। इस प्रकार बढ़ाते और लपेटते जाते हैं । अंत में घी में तलकर चाशनी में पागते या यो ही काम मे लाते हैं । यह मिठाई दूध में भिगोकर खाई जाती है। फेफड़ा-संज्ञा पुं॰ [सं० फुप्फुस + हिं० दा ( प्रत्य० ) ] शरीर के भीतर थैली के माकार का वह अवयव जिसकी क्रिया से जीव सांस लेते हैं। वक्षप्राशय के भीतर श्वास प्रश्वास-का विधान करनेवाला कोश । साँस की थैली जो छाती के नीचे होती है । फुप्फुस । विशेष-वक्षप्राशय के भीतर वायुनान में थोड़ी दूर नीचे जाकर इधर उधर दो कनखे फूटे रहते हैं जिनसे लगा हुप्रा मांस का एक एक लोथडा दोनो ओर रहता है। थैली के रूप के ये ही दोनो छिद्रमय लोथहे दाहिने और बाएं फेफडे कहलाते हैं। दहिना फेफडा बाएं फेफड़े की अपेक्षा चौड़ा और भारी होता है। फेफड़े का आकार बीच से कटी हुई नारंगी की फांक का सा होता है जिसका नुकीला सिरा ऊपर की ओर होता है। फेफडे का निचला चौडा भाग उस परदे पर रखा रहता है जो उदराशय को वक्षप्राशय से अलग करता है । दाहिने फेफडे मे दो दरारें होती हैं जिनके कारण वह तीन भागो मे विभक्त दिखाई पड़ता है, पर बाएँ मे एक ही दरार होती है जिससे वह दो ही भागों में बंटा दिखाई पड़ता है। फेफडे चिकने और चमकीले होते हैं और उनपर कुछ चित्तियां सी पड़ी होती हैं। प्रौढ़ मनुष्य के फेफडे का रग कुछ नीलापन लिए भूरा होता है। गर्भस्थ शिशु के फेफड़े का रंग गहरा लाल होता है जो जन्म के उपरात गुलावी रहता है। दोनों फेफड़ो का वजन सवा सेर के लगभग होता है । स्वस्थ मनुष्य के फेफड़े वायु से भरे रहने के कारण जल से हलके होते हैं और पानी मे नही डूबते । परतु जिन्हे न्यूमोनिया, क्षय आदि बीमारियां होती हैं उनके फेफड़े का रुग्ण भाग ठोस हो जाता है और पानी में डालने से डूब जाता है। गर्भ के भीतर बच्वा सांस नही लेता इससे उसका फेफड़ा पानी में डूब जायगा, पर जो बच्चा पैदा होकर कुछ भी जिया है उसका फेफडा पानी में नही डूबेगा। जीव सांस द्वारा जो हवा खीचते हैं वह श्वासनाल द्वारा फेफडे में पहुंचती है । इस टेंटुवे के नीचे थोड़ी दूर जाकर श्वासनाल के इधर उधर दो कनखे फूटे रहते है जिन्हे दाहनी और बाई वायुप्रणालियां कहते हैं। फेफड़े के भीतर घुसते ही ये वायुप्रणालियाँ उत्तरोत्तर बहुत सी शाखामों में विभक्त होती जाती हैं। फेफड़े मे पहुंचने के पहले वायुप्रणाली लचीली हड्डी के छल्लो के रूप में रहती है पर भीतर जाकर ज्यों ज्यों शाखाओं में विभक्त होती जाती है त्यों त्यों शाखाएं पतली और सूत रूप में होती जाती हैं, यहां तक कि ये शाखाएँ फेफड़े के सब भागों में जाल की तरह फैली रहती हैं। इन्ही के द्वारा सांस से खींची हुई वायु फेफड़े के सब भागों में पहुंचती है। फेफड़े के बहुत से छोटे छोटे विभाग होते हैं। प्रत्येक विभाग को सूक्ष्म आकार का फेफड़ा ही समझिए जिसमें कई घर होते है। ये घर वायुमंदिर कहलाते हैं और कोठों में बंटे होते हैं । इन कोठों के बीच सुक्ष्म वायुप्रणालियां होती हैं। नाक से खींची हुई वायु जो भीतर जाती है, उसे श्वास कहते हैं। जो वाय नाक से बाहर निकाली जाती है उसे प्रश्वास कहते