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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/७९

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१३१६ 30- विशेषः - इसपर यह कहानी है कि दो भाई थे, जिनमें एक दरिद्र और दूसरा धनी था। पहला भाई दरिद्र होने पर भी बड़े सुख चैन से रहता था। उसकी निश्चितता देख बड़े भाई को ईर्षा हुई। उसने एक दिन धीरे से अपने दरिद्र भाई के घर में निन्नानबे रुपये की पोटली डाल दी। दरिद्र रुपए पाकर बहुत प्रसन्न हुपा, पर गिनने पर उसे मालूम हुमा कि सो में एक कम है। सभी से वह सौ रुपए पूरे करने की चिंता में रहने लगा और पहले से भी अधिक कष्ट जीवन बिताने लगा। ६. युक्ति । उपाय । ढग । कौशल रचना। तदबीर। डोल । -(क) फेर कछू करि पौरि तें फिरि चितई मुसकाय । प्राई जामन लेन को नेहे चली जमाय।-विहारी (शब्द॰) । (ख) आज तो तिहारे कूल बसे रह रूख मूल, सोई सूल कीबो पड़ों रात ही बनायबो। बात है न पारस की रति न सियारस की, लाख एक बार तेरे पार जायबो। -हनुमान (शब्द०)। यौ०-फेरफार। मुहा०-फेर लगाना = उपाय का ढंग रचना । युक्ति लगाना । १०. अदला बदला । एवज । कुछ लेना और कुछ देना । यौ०-हेर फेर = लेन देन । व्यवसाय । जैसे,—वहाँ लाखो का हेर फेर होता है। ११. हानि । टोटा। घाटा। जैसे,—उसकी बातों में पाकर मैं हजारों के फेर में पड़ गया। मुहा०-फेर में पडना-हानि उठाना । घाटा सहना । १२. भूत प्रेत का प्रभाव । जैसे,—कुछ फेर है इसी से वह अच्छा नहीं हो रहा है। फेर@२-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० ] ओर । दिशा । पार्श्व । तरफ । उ०- सगुन होहिं सुंदर सकल मन प्रसन्न सब फेर। प्रभु आगमन जनाव जनु नगर रम्य चह फेर । तुलसा (शब्द॰) । फेर@-अव्य० [हिं० ] फिर । पुनः । एक घार और । उ०- (क) सुनि रवि नाउ रतन भा राता । पंडित फेर उहै कह वाता ।—जायसी (शब्द०)। (ख) ऐहै न फेर गई जो निशा तन यौवन है धन को परछाही ।-पद्माकर (शब्द०)। फेर-संज्ञा पुं० [सं०] शृगाल । गीदड़। फेरक-संज्ञा पु० [ हिं० फेरा ] फेरा । घेरा । ड०-बन काटो मज्ञा दइ एता। फेरफ पांच कोस मे जेता। -चरण वानी, भा० २, पृ० २०८ । फेरना-फ्रि० स० [सं० प्ररण, प्रा० पेरन; अथवा हिं० 'फिर' से व्युत्पन्न नामिक धातु ] १. एक ओर से दूसरी मोर ले जाना । भिन्न दिशा में प्रवृत्त करना । गति बदलना । घुमाना। मोहना । जैसे,—गाड़ी पश्चिम जा रही थी उसने उसे दक्खिन की प्रोर फेर दिया। उ०-(क) मैं ममता मन मारि ले घट ही माहीं घेर । जब ही चाले पीठ दै माकुस दै द फेर ।-कबीर (शब्द॰) । (ख) तिनहिं मिले मन भयो कुपथ रत फिरै तिहारे फेरे ।—तुलसी (शब्द॰) । (ग) सुर सरु रुख सुरवेलि पवन जनु फेरइ । —तुलसी (शब्द॰) । संयो क्रि०-देना ।-लेना । २. पीछे चलाना । जिधर से प्राता हो उसी ओर भेजना या चलाना। लोटाना। वापस करना। पलटाना । जैसे,- वह तुम्हारे यहां जा रहा था, मैंने रास्ते से फेर दिया। उ.-जे जे पाए हुते यज्ञ में परिहै तिनको फेरन ।-सूर (शब्द०)। संयो० क्रि०-देना। ३. जिसके पास से (कोई पदार्थ) पाया हो उसी के पास पुनः भेजना। जिसने दिया हो उसी को फिर देना । लौटाना। वापस करना । जैसे,—(क) जो कुछ मैंने तुम से लिया है सब फेर दूंगा । (ख) यह कपड़ा अच्छा नहीं है, दूकान पर फेर प्रायो। (ग) उनके यहां से जो न्योता प्रावेगा वह फेर दिया जायगा। उ०-दियो सो सीस चढाय ले पाछी भांति प्रएरि । जाप चाहत सुख लयो ताके दुखहिं न फेरि ।- बिहारी (शब्द०)। संयो० क्रि०-देना। ४. जिसे दिया था उससे फिर ले लेना। एक बार देकर फिर अपने पास रख लेना । वापस लेना । लौटा लेना । जैसे,- (क) अब दूकानदार कपड़ा नही फेरेगा । (ख) एक वार चीज देकर फेरते हो। संयो० क्रि०-लेना। ५. चारों भोर चलाना । मंडलाकार गति देना । चक्कर देना । घुमाना । भ्रमण कराना । जैसे, मुगदर फेरना, पटा फेरना, घनेठी फेरना। मुहा०-माला फेरना = (१) एक एक गुरिया या दाना हाथ से खिसकाते हुए माला को चारों ओर घुमाना । माला जपना । (एक एक दाने पर हाथ रखते हुए ईश्वर या किसी देवता का नाम या मंत्र कहते जाते हैं जिससे नाम या मंत्र की संख्या निर्दिष्ठ होती जाती है)। उ०-कबिरा माला फाठ की बहुत जतन का फेरु । माला फेरो सास की जामें गांठ म मेरु । -कवीर (शब्द०)। (२) वार बार नाम लेना । रट लगाना । धुन लगाना । जैसे,—दिन रात इसी की माला फेरा करो। ६. ऐंठना । मरोड़ना । जैसे,-पेंच को उधर फेरो । ७. यहां से वहाँ तक स्पर्श कराना। किसी वस्तु पर धीरे से रखकर इधर उधर ले जाना । छुलाना या रखना। जैसे,—घोड़े की पीठ पर हाथ फेरना । उ०—अवनि कुरैग, विहग द्रु म डारन रूप निहारत पलक न प्रेरत । मगन न डरत निरखि कर फमलन सुभग सरासन सायक फेरत ।-तुलसी (शब्द॰) । संयो० कि०-देना।-लेना । मुहा०- हाथ फेरना = (१) स्पर्श करना। इधर उधर छूना । (२) प्यार से हाथ रखना । सहलाना । जैसे, पीठ पर हाथ फेरना । (३) हथियाना । ले लेना । हजम करता। उमा लेना । जैसे, पराए माल पर हाथ फेरना।