पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/१०७

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मांस' ३८६६ मांसज प्राधी रात के समय जब यज्ञ समाप्त हो गया, तव ऋपियो २ कुछ विशिष्ट पशुओ के शरीर का उक्त अश जो प्राय खाया ने एक घठे मे अभिमत्रित जल भरकर वेदी मे रख दिया और जाता है। गोश्त । आप सो गए । रात के समय जब युवनाश्व को बहुत अधिक विशेष-हमारे यहाँ यह माग दा प्रकार का माना गया है । जागत प्यास लगी, तव उसने उठकर वही जल पी लिया जिसके कारण और भानूप । जघाल, विनम्थ, गृहाशय, पर्णमृग, विप्किर, उसे गर्भ रह गया। समय पाकर उस गर्भ से दाहिनी कोख प्रतुद, प्रमह और ग्राम्य इन पाठ प्रसार के जगनी जीवों का फाडकर एक पुत्र उत्पन्न हुआ जो यही माघाता था । इद्र ने इसे मास जागल कहलाता है, और वद्या के अनुगार मधुर, पाय, अपना अंगूठा चुमाकर पाला था। आगे चलकर वह वडा रक्ष, लघु, बलकारक, शुक्रवर्धक, अग्निदीपक, दापन और प्रतापी और चक्रवर्ती राजा हुआ था और इसने शविंदु की वधिरता, अरचि, वमि, प्रमेह, मुसरोग, शनीपद और गलगड कन्या विदुमती के माथ विवाह किया था, जिसके गर्भ में इस प्रादि का नाशक माना जाता है। कुतेचर, प्रनय, पोगस्थ, पुस्कुत्स, अवरीप और मुचुकुद नामक तीन पुत्र और पचास पादी और मत्म्य इन पचि प्रकार के जाया का माम भानूप कन्याएं उत्पन्न हुई थी। कहलाता है और वद्यक के अनुसार माधारणत मधुररम, स्निग्ध, गुरु, अग्नि का मद करनवाला, रफारक तथा मास'-सज्ञा पुं॰ [सं०] १ मनुष्यो और पशुश्रा आदि के शरीर के मागपोपक हाता है। पक्षियो मे से पुन्प जाति अथवा नर अतगत वह प्रसिद्ध चिकना, मुलायम, लचीला, लाल रग का का और चौपायो मे स्त्री जाति अथवा मादा का माग अच्छा पदार्थ जो शरीर का मुख्य अवयव है और जो रेशेदार तथा कहा गया है। इसके अतिरिक्त भिन्न भिन्न जीवा के माम के चरवी मिला हुआ होता है । गोश्त । गुण भी भिन्न भिन्न होते है। माधारणत प्राय मभी देशो विशेष-शरीर का यह अश हड्डी, चमडे, नाडी, नस और चरबी और मभी जातियो मे कुछ विशिष्ट पशुयो, पक्षियो और आदि से भिन्न है । इसका एक प्रश ककाल से लगा हुआ छोटे मलियो आदि का माम बहुत अधिरता से साया जाता है । छोटे टुकडो मे बंटा रहता है और वह ऐच्छिक कलाता है, पर भारत के कुछ धार्मिक मप्रदायों के अनुसार माम बाना अर्थात् इच्छानुसार उसका मचालन किया जा सकता है। ये वहुन ही निपिद्ध है। पुराणो मे ३मका खाना पाप माना गया टुकडे आपस मे मुत्रो के द्वारा जुडे रहते है और उन सूत्रो के है। कुछ अाधुनिक वनानिको और चिकित्मका आदि का मत हटाने पर महज मे अलग हो सकते हैं । इन टुकडो को मासपेशी है कि मास मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नही है और उसक कहते हैं । ये मासपेशियाँ छोटी, वडी, पतली, मोटी आदि अनेक खाने में अनेक प्रकार के घातक तथा असाध्य रोग उत्पन प्रकार की होती है । प्राशयों, नलियो, मार्गों और हृदय प्रादि होते है। अगो का मास पेशियो मे विभक्त नहीं होता। इन भगो मे यो०-मासाहारी। मास की केवल पतली या मोटी तहें रहती हैं जो आपस मे एक ३. मछली का माम (को०)। ४. फल का गूदावाला भाग (को०) । दूमरी से बिलकुल मिली हुई होती है । ऐसा माम अनैच्छिक या ५. फीडा । कीट (को०)। ६. माम बेचनेवाली एक मकर जाति स्वाधीन कहलाता है, अर्थात् इच्छानुसार उसका मचालन नहीं (को०) । ७. कान । ममय (को॰) । किया जा सकता। मास अथवा मासपेषी मुलायम होने के मासकदी-सज्ञा सी० [ H० मासकन्दी ] मास की स्फीति । सूजन । कारण चाकू आदि मे महज मे कट जाती है। शरीर मे सभी जगह थोडा बहुत माम रहता है और शरीर के भार मे उसका मासकच्छप-सज्ञा पुं० [सं० ] मुश्रु त के अनुसार एक प्रभार का अश प्रति संकडे ४२-४३ के लगभग होता है। शरीर की मव रोग जो तालू मे होता है। प्रकार की गतियां माम के ही द्वारा होती है। माम भावश्य- कता पड़ने पर सिकुडकर छोटा और मोटा होता है और फिर मासकारी-मज्ञा पु० [सं० मासफारिन् ] रक्त । लहू । अपनी पूर्व अवस्था मे आ जाता है। मुश्रुत के अनुसार माम- मासकीलक-सशा पु० [सं०] बवासीर का ममा । पेशियों की मख्या ५०० तथा आधुनिक पाश्चात्य चिकित्सको मासकेशी-सशा पु० [ मं० मासकेशिन् ] वह घोडा जिसके पैरो में के मत से ५१६ है। वैद्यक के अनुसार यह रक्त से उत्पन्न मास के गुठले निकलते हो। तीसरी धातु है । भावप्रकाश के अनुमार जव शरीर की अग्नि मासक्षय-मञ्ज्ञा पुं॰ [ म० ] शरीर (को०] । अथवा ताप के द्वारा रक्त का परिपाक होता है और वह वायु मासखोर-मज्ञा पुं० [म. मांस+फा० खोर ] माम ग्वानेवाला । के सयोग से घनीभूत होता है, तब वह मास का रूप धारण मासाहारी। करता है। वैद्यक के अनुसार साधारणत सभी प्रकार का मास मासन थि-सज्ञा ली. [ मे० मांसग्रन्थि ] माम की गाँठ जो शरीर वायुनाशक, उपचयकारक, बलवर्धक, पुष्टिकारक, गुरु, हृदयग्राही के भिन्न भिन्न अगो मे निकल पाती है और मधुररस होता है। मासच्छदा-सज्ञा स्त्री० [स०] मासरोहिणी या मासी नाम की लता । पर्या-श्रामिप । पिशित । पलाल । क्रव्य । पन । बाग्मज | मासज-सज्ञा पुं० [सं०] १ वह जो मास से उत्पन्न हो । २ मास पो०- मास का घी= चरवी । से उत्पन्न शरीर मे की चर्बी। शोथ (को०] ।