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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/१२२

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मात्सर्य मादक ३६६ मात्सर्य-सञ्ज्ञा पु० [स०] मत्सर का भाव । किसी का सुख या असतोप आदि के चिह्न प्रकट होना । शक्ल से नाराजगी जाहिर उसकी सपदा न देख सकन का स्वभाव। किसी को अच्छी होना । जैसे,—रुपए की बात सुनते ही उनके माथे पर बल दशा मे देखकर जलना। ईर्ष्या । डाह । पड गए। माथे भाग होना= भाग्यवान् होना। तकदीरवर मात्स्य'- वि० [सं० ] मछली सवधी । मछली का । होना। माथे मढ़ना = गले बाँधना। गले मढना। जवरदस्ती यौ०-मात्स्यन्याय । देना। माथे मानना=शिरोधार्य करना । सादर स्वीकार करना । उ०—(क) कह रावसुत मम कारज होई। माथे मानि मात्स्य-सा पु० एक ऋपि का नाम । करव हम सोई । —सवलसिह (शब्द॰) । (ख) सूरदास प्रभु मात्स्य न्याय-सचा पु० [ स० ] मछलियो का न्याय । एक दृष्टात के जिय भाव आयुस माथे मान ।—सूर (शब्द०)। माथे वाक्य । उ० -हास की प्राकृतिक स्थिति मात्स्य न्याय की मारना = बहुत ही उपेक्षा या तिरस्कारपूर्वक किसा को कुछ स्थिति थी। -राजनीतिक०, पृ० ८ । देना। बहुत तुच्छ भाव से देना। जैस,-वह रोज तगादा विशेप-जिस प्रकार समुद्र मे बडो मछली छोटी मछलियो को करता है, उसका ।कताब उसक माथ मारा। माथे लना = माथे खा जाती है उसी प्रकार समाज मे जब कोई उच्चवर्गीय या धरना या मानना । अगीकार करना। उ०-फगुमा कुवरि शक्तिशाली जन अपने से निम्न एव अशक्त का शोषण करता कान्ह वहु दीनो। प्रेम प्रीत कार माये लीनो।-नद० ग्र०, है तव इस दृष्टातवाक्य का प्रयोग किया जाता है। पृ० ३६३। मात्यिक-सज्ञा पु० [ स०] मछली मारनेवाला । मछुअा। यौ०-माथापच्ची या माथापिट्टन = बहुत अधिक वकना या माथ-सज्ञा पुं० [सं०] १ रास्ता। पथ । मार्ग। २ मथना । समझाना । सर खपाना । मगजपच्चा करना। मथन । मथन । ३ विध्वस । नाश । विनाश [को०) । २ वह चित्र प्रादि ।जनमे मुख और मस्तक का आकृति बनी हो। माथg२- सझा ५० [ स० मस्त, (= शिर), प्रा० मथ्थ ] दे० ( लश०)। ३ 1कसा पदाथ का अगला या ऊपरी भाग । 'माथा' । उ०-मागु माय अवही दे तोहा।-मानस, २ । स, नाव का माथा, आलमारा का माथा । माथना- क्रि० स० [ स० मन्थन ] दे० 'मयना' । उ०-नीर होइ मुहा०—माथा मारना = जहाज का वायु के विपरीत इस प्रकार तर ऊपर सोई । माथे रग समुद जस होई । —जायसी (शब्द०)। जोर मारकर चलना कि मस्तूल, पाल तथा ऊपरी भागो पर माथा-सञ्ज्ञा पु० [ स० मस्तक, प्रा० मध्यन] १ सिर का ऊपरी बहुत जोर पड़े। भाग । मस्तक। ४ यात्रा । सफर । ५ खेप । (लश०) । माथा'-सञ्ज्ञा पुं० [ देश० ] एक प्रकार का रेशमी कपडा। मुहा०-माथा कूटना = २० 'माथा पीटना' । माथा विसमा= नम्रता प्रकट करना। मिन्नत खुशामद करना। माथा खपाना माथुर-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] [ स्त्री० माथुरानी ] १ मथुरा का निवासी। या खाली करना = बहुत अधिक समझाना या सोचना। सिर वह जो मथुरा का रहनेवाला हो । २ ब्राह्मणों की एक जाति । चौबे । ३ कायस्थो की एक जाति । खपाना। मगजपच्ची करना । ( किसी के आगे) माथा ४ वैश्यो की जाति । झुकाना या नवाना बहुत अधिक नम्रता या अधीनता प्रकट ५ माथुर प्रात। करना। माथा टेकना = सर झुकाकर प्रणाम करना। माथा माथुर-वि० मथुरा सवधी। मथुरा का । ठनकना = पहले से ही किसी दुर्घटना या ।वपरीत बात होने माथ-क्रि० वि० [हिं० मावा ] १ माथे पर। मस्तक पर । सिर की पाशका होना। उ०-दूसर पहर पर पाए वहाँ मा पर । उ०-नागार गूज रि ठांग लीनो मेरो लाल गोरोचन को सन्नाटा । माथा ठनका ।क कुछ दाल म काला हैं ।—फिसाना०, तिलक माय मोहना । -हरिदास (शब्द॰) । २ भरोसे । भा० ३, पृ० २२३ । माथा धुनना = ६० 'माथा पीटना' । सहारे पर । उ०—सो जनु हमरे माथे काढा । दिन चलि गयउ माथापच्ची करना =६० 'माथा खपाना' । माथा पाटना = व्याज बहु वाढा।-तुलसा (शब्द॰) । सिर पर हाथ मारकर बहुत अधिक दुख या शाक करना। माथै-क्रि० वि० [ हिं० माथा | दे० 'माथे' । माथा मारना= दे० 'माया खपाना' । माथा रगढ़ना= दे० 'माथा घिसना'। माथे चढ़ाना या धरना=शरोधार्य करना । माद'-सञ्ज्ञा पुं॰ [ सं०] १ श्राभमान । शेखी। घनड । २ हर्प । प्रसन्नता । ३. मत्तता। मस्ता। सादर स्वीकार करना। उ०-मम प्रायुस तुम माथे धरौ। छल वल कारे मम कारज करौ। —सूर (शब्द०)। माथे माद- सञ्चा पु० [ दश० ] छोटा रस्ता । ( लश० ) । टोका होना = किसी प्रकार का विशेषता या बाधकता होना । माद-सञ्ज्ञा पुं० द० 'माद'-२' । उ०-याडग डग से भूमि जल नभ जैसे,—क्या तुम्हारे माय टाका है जो तुम्ही को सव चाजें पर फिर जीवन नही । दुदशा को सिंहनी की माद तू जबतक दे दी जार्य ? माथे पड़ना = उत्तरदायित्व आ पडना । न कर।-वेला, पृ० ६८ । ऊपर भार पा पडना । जैसे,—वह ता खिसक गए, अब सव मादक -वि॰ [ सं० ] [ विमो० मादिका ] नशा उत्पन्न करनेवाला । काम हमार माथे आ पडा। माथे पर चढ़ना= दे० 'सर पर जिसस नशा हा। नशाला। २ श्रानदप्रद । शानददायक। चढना'। माथे पर बल पड़ना=प्राकृति स क्रोध, दुख या हर्षप्रद ।