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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/१६५

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मियानी १९२४ मिरदंगी स लगा हुमा वह बांस जिसके दोनो ओर घोडे जोते जाते हैं। तपनि मिरगिसिरा जे सहि अद्रा ते पलुहत ।-जायमी ग्र० बम । बल्ली। ४ वह घोडा जो मझोले कद का हो (को०) । (गुप्त), पृ० ३५४ । ५ वह बडा मोतो जो हार को लडी के बीच मे हो (को॰) । मिरगी-मझा जी० [सं० मृगी] एक प्रसिद्ध मानसिक रोग । अपस्मार । यौ०-मियाना कद = मझोले आकार का । न लवा न ठिगना । विशेप-इम रोग का बीच बीच मे दौरा तुपा करता है और मियाना रवी = मध्यम मार्ग। सरलाचार । मियाना री= इसमें रोगी प्राय मूछिन होकर गिर पड़ता है, उसके मध्यममार्गी । सरलाचारी। हाय पर ऐंठने लगते है और उमो मुंह मे भाग निक्लने लगता मियानी-सज्ञा स्त्री॰ [फा० मियान + ई (प्रत्य॰)] पायजामे मे वह है। कभी कभी रोगी के केवल हाय पैर ही ऐंठने है और उसे कपडा जो दोनो पार्यचो के बीच मे पडता है मूर्छा नहीं पाती। यह रोग वातज, पित्तज, कफज और विशेप-इसे कही कही रूमाल भी कहते हैं । सन्निपातज भेद मे चार प्रकार का कहा गया है। विशेप दे० 'अपस्मार'। मियार-सशा पुं० [हिं० मॅझार ? ] वह लकडी जो कूएं के ऊपर क्रि० प्र०-याना ।—होना । दो खभो पर लगी होती है और जिममें गराडी पड़ी रहती है। मिरगुत-सञ्ज्ञा पुं० [ म० मृग ] दे० 'मृग' । मियाला-सज्ञा पुं० [हिं० मैंझार ? ] २० 'मियार'। मिरघ-सज्ञा पु० [ ] बौद्धो के अनुसार एक बहुत बडी सख्या । मियेध–सशा पु० [सं०] १. पशु । २ यज्ञ । मिरचा- सज्ञा पुं॰ [ म. मरिच ] लाल मिर्च । मिरगा - सशा पु० [फा० ) प्रवाल । मूंगा। मिरकी -सञ्ज्ञा स्त्री० [ देश० ] चौपायो को होनेवाली मुंह की एक मिरचाई-सका स्त्री० [हिं० मिरचा+ई (प्रत्य॰)] १ दे० 'मिर्च' । २ दे० 'काला दाना'। वीमारी । (अवध)। मिरचियागव-सशा पुं० [हिं० मिर्च + गध ] रूगा घाम । मिरखभ-सज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'मिरसम' । मिरखम-सज्ञा पु० [ स० मेरुस्तम्भ, प्रा. मेरखभ ] कोल्हू में वह मिरजई-सा मी० [फा० मिरजा ] एक प्रकार का बददार अगा मिरची-मा स्पी० [हिं० मिर्च ] छोटी, पर बहुत नेग लाल गिर्च । लकडी जो वैठकर हाँकने की जगह खडे बल में लगी रहती है। जो कमर तक और प्राय पूरी वौह फा होता है। मिरग@t-सञ्ज्ञा पुं॰ [ नं० मृग ] मृग । हरिन । मिरजा'-मज्ञा पुं॰ [फा० मिरजा, मीरजा] १. मार या अमीर का मिरगचिडा-सज्ञा पुं० [हिं० मिरग+चिड़ा ] एक प्रकार का छोटा लडका । मीरजाया। अमीरजादा । २ राजकुमार । कुंवर । ३ मुगतो की एक उपाधि । ४ तैमूर वश के शाहजादो की मिरगछाला 1-सज्ञा स्त्री॰ [ सं० मृग+ हिं० छाल ] दे० 'मृगछाला' । उपाधि । मिरगनी-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० मिरग] दे० 'मृगी' । उ०-पांच मिरग मिरजा-वि० कोमल । नाजुक । ( व्यक्ति )। पच्चीस मिरगनी तिन मे तीन चितारे ।-कवीर श०, भा० २, मिरजाई-मशा सी० [फा०] १ मिरजा का भाव या पद । २. पृ० ३५। सरदारी । नेतृत्व । ३ अभिमान । घमह । ४ दे० 'मिरजई' । मिरगमद-सज्ञा पु० [म० मृगमद] दे० 'मृगमद' । उ०--गौलोचन मिरजान-सज्ञा पुं॰ [ फा० ] प्रवाल । मूंगा। गोसीम मिरगमद नाभि तें जानौं। भिन्न भिन्न गुन होय नीर मिरजानी-वि० [फा० ] मूंगे का [को०] । एक हि पहिचानो।-पलटू०, पृ. ६६ । मिरजा मिजाज-वि० [फा० मिरजा + मिजाज] नाजुक दिमाग का। मिरगला-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० मिरग+ ला (प्रत्य०).] दे० 'मृग' । मिरत-सज्ञा स्त्री० [सं० मृत्यु ] दे॰ 'मृत्यु' । उ०—यह बन हरिया देखि करि, फूल्यो फिर गंवार । दादू यह मम (१) मिरगला, काल अहेडी लार ।-सतवाणी०, यौ०-मिरतलोक = दे० 'मृत्युलोक' । उ०-मिरतलोक से पृ०८०। हमा पाए, पुहप दीप चल जाई।-कवीर श०, भा० १, मिरगा-सज्ञा पुं० [हिं० मृगा ] दे० 'मृग' । उ०-जैसे मिरगा शब्द पृ०६३। सनेही शब्द मुनन को जाई ।-कवीर श०, भा० १, पृ० ३५ । मिरतका-सज्ञा पुं० [सं० मृतक ] दे० 'मृतक' । उ०-मिरतक बांधि कूप मे डारे, भाभी सोच मरे ।-घट०, पृ० २६५ । मिरगानी@-सञ्ज्ञा पु० [स० मृग] मृगचर्म की प्रासनी। मृगछाला। मिरथाल+-वि० [ स० वृथा (= व्यर्क) ] निरर्थक । वेकार । उ०- उ०-कवनु मुद्रा कवनु मिरगानी ।—प्राण०, पृ० ७६ । विनु गुरु ज्ञान नाम ना पहो, मिरथा जनम गंवाई हो। मिरगारन-सचा पुं० [सं० मृगारण्य ] जगली जानवरो का वन । -कवीर श०, भा० ३, पृ० २४ । मृगारण्य। मिरदग-सज्ञा पुं० [ स० मृदङ्ग ] दे० 'मृदग' । मिरगिया-सञ्ज्ञा पु० [सं० मिरगी + इया (प्रत्य॰)] वह जिसे मिरगी मिरदगी-सशा पुं० [हिं० मिरदग+ ई (प्रत्य॰)] वह जो मृदग का रोग हो। वजाता हो। पखावजी। उ०-वीली नाचे मुस मिरदगी खरहा मिरगिसिरा-सज्ञा पुं॰ [सं० मृगशिरस् ] दे० 'मृगशिरा' । उ०- ताल बजावं ।-सत० दरिया, पृ० १२६ । पक्षी।