पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/१८

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हिंदी शब्दसागर म० स० मन-सज्ञा पुं० [सं० मनस ] मन । मन काल्पत--वि० [ म० ] मन द्वारा कल्पित । मनगढत [को०] । मन कात-वि० सज्ञा पुं० [० मन कान्त ) 20 'मनम्कात' । मन काम-सज्ञा पु० [ म० | मनोरथ । मनस्काम [को०) । मन कार-सज्ञा पु०॥ ] मन का एकाग्र करना । सुख दुख भादि का पूर्ण ज्ञान वा जानकारी। मन क्षेप–मशा पु० [ मं० ] मन का उद्वेग । मन पति-मज्ञा पुं॰ [ म० ] विष्णु । मन पर्याप्त-सज्ञा स्त्री० [ मं० ] मन मे सकल्प विकल्प वा बोध प्राप्त करने की शक्ति। मन पर्याय-सज्ञा पु० [ म.] जैन शास्त्रानुसार वह जान जिसमे चितित अर्थ का साक्षात् होता है। यह जान ईर्ष्या और अतराय नामक ज्ञानावरणो के दूर होने पर निर्वाण या मुक्ति की प्राप्ति के पूर्व को अवस्था मे प्राप्त होता है। इसमे जीवो को मनरूपी द्रव्य के पर्यायो का साक्षात् ज्ञान होता है । मन पाप-सका पुं[स०] मानसिक पाप । मन का पाप [को०) । मन पीडा-सदा पुं० [स०] मानसिक सताप या क्लेश [को०] । मन पूत-वि० [ ] जिसे मन पवित्र मानता है । जिसे अतरात्मा अगीकार करती हो [को०' । मन प्रणीत-वि [ मन कल्पित । मनगढत । २ रुचिकर या मन को सुख देनेवाला [को० । मन प्रसाद-मझा पु० [स०] मन की प्रसन्नता । उ०-मन प्रसाद चाहिए केवल क्या कुटोर फिर क्या प्रासाद ?-पचवटी, पृ० १० । मन प्रसूत-बि [ स०] मन से उत्पन्न । मन से कल्पित (को०)। मन-प्रिय-वि॰ [स०] जो मन को प्रिय हो या अच्छा लगे (को० । मन प्रीति-सजा स्त्री० [सं०] मन को प्रसन्नता । मन-शक्ति-घ) स्ना [ स० ] मन की शक्ति । मनोबल [को०] । मन शास्त्र-नशा पुं० [ स० ] वह शास्र जिसमे मन और मनोविकारो का वर्णन हो। मनोविज्ञान । उ० – मन शास्त्र कुछ और बताता है, पर जो हो । रजत०, पृ० १७ ॥ मन शिल-सचा पु. [पु.] मैनसिल । मन शिला-संज्ञा स्रो० [सं०] मैनसिल । मन-शीव्र-वि॰ [सं०] मन की तरह तीव्र [को०] । मन सकल्प -महा पु० [म० मन सकल्प ] मन की इच्छा । हृदय की चाहना (को०।। मनःसग-सज्ञा पु. [ स० मन सङ्ग ] मन की किसी विपय मे मन सताप-सज्ञा पुं० [ म० मन पन्ताप ] मानसिक पीडा या मन का क्लेश [को०] । मन सुख-मि [ स. ] जो मन को रुचे । रुचिकर । मन सुख - सज्ञा पु मन का मुख । । मन स्थैर्य-मज्ञा पु० [स०] मन की दृढता | चित्त को स्थिरता कोला । मन'-मज्ञा पुं० [स० मनस् ] १ प्राणियो मे वह शक्ति या कारण जिममे उनमे वेदना, सकल्प, इच्छा, द्वेष, प्रयन्न, वोध और विचार आदि होते हैं । अत करण । चिन । विशेप-वैशेषिक दर्शन मे मन एक अप्रत्यक्ष द्रव्य माना गया है । सख्या परिमाण, पृथक्त्व, सयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, और सरकार इसके गुण बतलाए गए हैं और इसे अशुरूप माना गया है। इसका धर्म मकल्प विकल्प करना बतलाया गया है तथा इने उभयात्मक लिखा है, अर्थात् उसमे जानेंद्रिय और कर्मेंद्रिय दोनो के धर्म है । ( एकादश मनो विद्धि स्वगुणे- नोभयात्मकम् ।—गोता ) । योगशास्त्र मे इसे चित्त कहा है। बौद्ध आदि इसे छठी इद्रिय मानते हैं । विशेष चित्त' । २ अत करण की चार वृत्तियो में से एक जिससे सकल्प विकल्प होता है। मुहा० -किमी से मन अटकना या उलझना = प्रीति होना । प्रेम होना। मन आना या मन में थाना = नमझ पडना । जंचना । उ० – (क) म गल मूरति कचन पत्र की मैन रचो मन आवत नीठि है।-दास (शब्द॰) । (ख) और दीन बहु रतन पखाना । सोन स्प जो मनहि न पाना ।—जायसी (शब्द॰) । मन का खराव होना = (१) मन फिरना । (२) नाराज होना । अप्रसन्न होना । (२) रागो होना। बीमार होना । अपने मन का होना = (१) अपनी इच्छा या रुचि आदि के अनुकूल होना। उ.- यही कारण था कि लोग अपने मन के नहीं हो सकते । -प्रेमघन०, भा॰ २, पृ० २७६ । (२) किमी की सलाह या बात पर ध्यान न देना। स्वतत्र, स्वच्छद एव जैसा जी मे श्रावे वैसा करना । मन हटना = साहम छूटना । हताश होना । उ०-फूटो निज कर्म नहिं लूटो सुख जानकी को टूटो न धनुप टूट गए मन सबके ।-हनुमन्नाटक (शब्द॰) । मन का दाग = मन का मैल । पापवृत्ति । दुष्प्रवृत्ति । उ.-साखी शब्द बहुत सुना, मिटा न मन का दाग । सगति से मुघरा नही, ता का बडा प्रभाग ।-कवीर मा० सं०, पृ. ५६ । मन की दौड़ = मन की गति । मन का पहुँच । उ०-है जहाँ पर न दौड मन की भी, वां विचारी निगाह क्या दौडे |-चोखे०, पृ० २ । मन बिगड़ना= (१) मन का हट जाना । मन का उदासीन HO आमक्ति को।