सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/२००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मुखानिल ३६६ मुगत. स० प्राश्रित रहना। मुख+श्रारी मुख्यकर्म मुहा०-(किसी की तरफ ) मुखातिब होना = (१) किसी को मुखुली -सञ्ज्ञा स्त्री॰ [सं०] बौद्धो की एक देवी का नाम । ओर घूमकर उससे बातें करना । (२) किसी की बात सुनने मुखेंदु--सञ्ज्ञा पु० [सं० मुखेन्दु ] चद्रमा की तरह सु दर मुंह । के लिये उसकी ओर प्रवृत्त होना । चांद सा मुखडा । सुदर मुंह [को०] । मुखानिल-सज्ञा पुं० [ ] साँस । श्वास [को॰] । मुखोल्का-वि० [ मं० ] दावाग्नि । मुखापेक्षक-लज्ञा पुं० [ म० ] दूसरो का मुंह ताकनेवाला । दूसरो मुख्तलिफ-वि० [अ० मुख्तलिफ़ ] १ भिन्न । अलग। पृथक् । २ के सहारे रहनेवाला । दूसरो की कृपा पर रहनेवाला । अनेक प्रकार का । तरह तरह का। मुखापेक्षा-मज्ञा स्त्री० [ स०] दूसरो का मुंह ताकना । दूसरो के मुख्तसर-वि० [अ० मुख्तासर ] १. जो थो मे हो। सक्षिप्त । २ छोटा । ३. अल्प । थोडा । मुखापेक्षी-सज्ञा पुं० [स० मुर।पेक्षिन ] वह जो दूसरो का मुह मुख्तार-सशा पुं० [अ० मुख्तार ] दे॰ 'मुखतार' । ताकता हो। दूसरो के सहारे रहनेवाला । दूसरो की कृपादृष्टि विशेष-इसके यौगिक शब्दो के लिये दे० 'मुखतार' के यौगिक । के भरोसे रहनेवाला । प्राश्रित । मुखामय-मज्ञा पुं॰ [ स० ] मुह मे होनेवाला रोग । मुखरोग । मुख्य'-वि० [ म०] १ मुखसवधी। २ सव मे वडा । ऊपर या आगे रहनेवाला । ३ प्रधान । श्रेष्ठ । मुखामुख-क्रि० वि० [हिं० मुख ] आमने सामने । उ० - चव मेछ मुखामुख जोम चढे ।-रा० रू०, पृ० ८० । मुग्न्य-सञ्ज्ञा पु० १ यज्ञ का पहला कल्प । २. वेद का अध्ययन और अध्यापन । ३ प्रमात मास । ४ वह जो मुख्य या प्रधान मुखारी - सज्ञा ली० [ म० मुखाकृति या हिं. हो । नेता । अगुवा को०)। (प्रत्य॰)] १ किसी से मिलती जुलती प्राकृति । २ सादृश्य । - सज्ञा पु० [ ] पहला काम । प्रधान कार्य । अनुरूपता। ३. मुख का कार्य । मुखशोधन । दतून कुल्ला करने का कार्य । ४ प्रात कुछ साना । खराई मारना । मुख्यचाद्र- मज्ञा पुं० [सं० मुख्यचान्द्र ] चाद्र मास के दो विभागो मुखार्जक-सज्ञा पुं० [स० ] वनतुलसी का पौधा। बवरी तुलसी । मे से एक । शुक्ल प्रतिपदा से लेकर अमावास्या तक का काल जो 'श्रमात चाद्र मास' भी कहलाता है। विशेष-दे० 'मास' । मुखालिफ-वि० [अ० मुखालिफ] १. जो खिलाफ हो। विरुद्ध पक्ष का । विरोधी । २ शत्रु । दुश्मन । ३ प्रतिद्व द्वी। मुख्यत -क्रि० वि० [ सं० मुख्यतस् ] मुख्य रूप से। खास तौर से। प्रधानत । उ०-बाकी सब छोटी छोटी बातें और कथानक मुखालिफत-वि० [अ० मुखालिफ़त ] १ विरोध । २. शत्रुता। मुख्यत कवियो की करामात हैं।-हिंदु० सम्यता, पृ० १५५ । दुश्मनी । मुखालु-सञ्ज्ञा पु० [सं० ] एक प्रकार का बडा मीठा कद जिसे मुख्यता- सज्ञा स्त्री० [ स० ] मुख्य होने का भाव । प्रधानता। श्रेष्ठता। स्थूलकद, महाकद या दीर्घव द भी कहते हैं। मुख्यनृप-सज्ञा पुं० [सं०] मुख्यनृपति । सर्वसत्तासपन्न राजा [को०] | विशेप-वैद्यक मे यह मधुर, शीतल, रुचिकारी, वातवर्धक तथा पित्त, शोप, दाह और प्यास को दूर करनेवाला माना गया है। मुख्यमत्री सज्ञा पुं० [ स० मुख्य मन्छिन् ] १. प्रधान मत्री । २ किसी प्रदेश या प्रात का विधानसभा में वह मत्री,जो मत्रि- मुसासव - मशा पु० [ स० ] १ थूक । २ लार । मडल का प्रधान होता है । मुखास्त्र-मचा पु० ] केकडा। विशेष-स्वतत्र भारत के अाधुनिक सविधान द्वारा समग्र राष्ट्र मे मुखास्वाद-सज्ञा पुं० [ स० ] मुह का चुवन । प्रधान मत्री एक रखा गया है। विभिन्न प्रदेशो के मत्रिमडल के मुसानव-सज्ञा पुं० [सं० ] मुंह से वहनेवाली थूक या लार । प्रधान को मुख्य मत्री कहा जाता है। ये दोनो शब्द क्रमश मुखिक-सञ्ज्ञा पुं० [सं० ] मोखा नामक वृक्ष । अग्रेजी के प्राइम मिनिस्टर और चीफ मिनिस्टर के अनुवाद है। संस्कृत मे मुख्य मत्री का अर्थ मात्रयो मे प्रधान अर्थात् मुखिया-सज्ञा पुं० [सं० मुख्य + हिं० इया (प्रत्य॰)] १ नेता। प्रधान । सरदार । जैसे,-वे अपने गांव के मुखिया है। २ प्रधान मत्री ही है। पृथ्वीराज रासो मे यह शन्द इसी अर्थ म प्रयुक्त हुग्रा है। वह जो किसी काम में सब से आगे हो। किसी काम को सब से पहले करनेवाला । अगुआ। ३ वल्लभ सप्रदाय के मदिरो का मुख्यसर्ग-स - सज्ञा पु० [ स० स्थावर सृष्टि । वह कर्मचारी जो मूर्ति का पूजन करता और भोग आदि लगाता मुख्यार्थ-स -सज्ञा पुं० [ स० ] शब्द का प्रधान अर्थ । अभिधाजन्य है । ऐसा कर्मचारी प्राय पाकविद्या मे निपुण हुमा करता है। मुखिल- वि० [अ० मुखिल ] वाधक । हस्तक्षेप करनेवाला । खलल मुगट-सज्ञा पु० [ स० मुकुट ] दे० 'मुकुट'। उ०-मोरपप जट डालनेवाला [को०)। मुगट सिंगि सग्राम सुधार। मोह देह सव, रहित मरन दिन प्रत विचार ।-पृ० रा०, ६१५१८२६ । मुखीय-सज्ञा [ स०] १. मुख सवधी । २ मुख्य । मुखुडी-सशा पु० [सं० मुखुण्डी ] एव प्रकार का शस्त्र [को॰] । मुगत-सजा स्त्री० [ म० मुक्ता ] मोती । मुक्ता। उ०-वैजंती ६-२४ अर्थ (को०) ।