पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/२४९

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स० मेवर । TO मृदुहृदय-वि० [ पद । सदस्यता। मृदुरोमक ४००८ मैंडरा मृदुरोमक-सञ्ज्ञा पुं॰ [ सं० ] खरगोश । शशक [को॰) । मृपावादी-वि० [स० मृपावादिन्] [ वि० सी० मृपावादिनी ] असत्य- मृदुरोमा-सज्ञा पुं० [ स० मृटुरोमन् ] खरगोश [को०] । वादी । झूठा । मिथ्याभाषी। मृदुल'- [सं०] १ कोमल । मुलायम । नरम । उ०—सुमन सेज मृष्ट'-वि० [सं० ] शोधित । ते लगि रहे तु दरि तेरे गात । सुरभित हू मिडि के भए मृदुल मृष्ट-सज्ञा पुं० मिर्च। नाल जलजात ।-लक्ष्मणसिंह (शब्द०)। २ कोमलहृदय । मृष्टि -सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स० ] परिशुद्धि । शोधन । दयामय । कृपालु । उ०-मृदुल चित अजित कृत गरलपान । —तुलसी (शब्द०)। ३ नाजुक । सुकुमार । उ०—मृदुल मेठ-सञ्ज्ञा पुं॰ [ सं० मेण्ठ ] हस्तिपक । हाथी रखनेवाला [को०] । मनोहर सु दर गाता। सहत दुसह बन पातप वाता। तुलसी मेंड-सञ्ज्ञा पुं० [ स० मेण्ड ] दे० 'मेठ'। (शब्द०)। मेढ, मेढक-सञ्ज्ञा पुं॰ [ म० मेण्ढ, मेण्ढक ] मेढा । मेप [को०] । मृदुल-सशा पुं[ सं०] १ जल । पानी । २ अंजीर । मेंढ-सज्ञा पु० [ स० मेण्ट ] दे० 'मेढ़' को०] । मृढलाई-सञ्ज्ञा ग° [ सं० मृदुल + हिं० भ ई (प्रत्य॰) ] मार्दव । मेंधिका-सञ्ज्ञा स्त्री० [ स० मेन्धिका ] दे० 'मेहंदी'। मृदुता | कोमलता। मेंधा-सञ्ज्ञा सी० [सं० मेन्धी ] दे० 'मेहंदी' । मृदुसूर्य-वि० पुं० [सं० ] जिस दिन सूर्य तीक्ष्णता से न चमकता मेबर-सज्ञा पुं० [अ० मेम्बर ] किसी सभा, समाज या गोष्ठी मे हो [को०] । ममिलित व्यक्ति। सभासद । सदस्य । जैसे, काउ सिल का मृदुस्पर्श-वि० [ ] जो छूने मे मुलायम हो। ] कोमलहृदय । दयावान । मेंबरी-सञ्ज्ञा स्त्री० [अ० मेग्बर + हि० ई (प्रत्य०) ] मेंबर का मृदूत्पल-सशा पुं० [स० ] नीलोत्पल । नील पद्म [को०] । मृद्वी'-वि० स्त्री० [सं०] १ मृदु । कोमल । २ कोमलागी। मैं'-अव्य० [सं० मध्ये, प्रा० मज्झे, मजिक, पु. हिं० महँ, मा ह] यधि- मृद्वी-सच्चा सी० कपिल द्राक्षा । सफेद अगूर । करण कारक का चिह्न जो किसो शब्द के प्रागे लगकर उसके मृद्वीका-सज्ञा सी० [सं०] १ कपिल द्राक्षा। सफेद अगूर । २ भीतर, उसके बीच या उसके चारो ओर होना सूचित करता अगूर की शराव । द्राक्षासव । है । प्राधार या अवस्थान सूचक शब्द । जैसे,—वह घर मे वठा है। घडे में पानी है। वह चार दिन मे प्रादेगा। पैर मे मोज मृद्वीकासव-सज्ञा पुं० [सं० ] द्राक्षासव । अगूर की शराब । या जूता पहनना। मृध-सञ्ज्ञा पुं० [सं० ] युद्ध । लड़ाई। उ०-प्रायोधन, रन, प्राजि, मृघ, पाहव, सग, समीक । नद० ०, पृ० ६७ । में२- सज्ञा पुं॰ [ अनु० ] बकरी के बोलने का शन्द । मृनाल-सज्ञा पुं० [सं० मृणाल ] दे० 'मृणाल' । मैं-सर्व० [स० स्मिन्, प्रा० म्मि, अप० मई] दे० 'मैं'। उ० - मृन्मय-वि० [सं० ] मिट्टी का बना हुवा । (क) तो मे ढोटा नद को, (जी) पाइन परि परि दें।- मृत्मरु-सज्ञा पुं० [सं० ] पापाण । प्रस्तर (को॰) । नद० ग्र०, पृ० १६५। (ख) अपनी माते अनुसार श्री गीता पदार्थ बोधिनी वचनिका भाषा मे ने करी है।-पोद्दार अभि० मृन्मान-वि० [सं० ] केवल मिट्टी का। उ०—मर्त्य हम, केवल क्षर म०, पृ० ५२० । मृन्मात्र ।-मधुज्वाल, पृ० ३४ । मृन्मान-सा पुं० [सं० ] कूयो । कूप । मैंगनी-सज्ञा स्त्री० [हिं० मीगा ? ] ऐसे पशुमो की विष्ठा जो छोटी मृपा'-अन्य० [सं० ] झूठमूठ । व्यर्थ । उ०—मूढ मृषा का करसि छोटी गोलियो के प्राकार मे होती है । लेंडी। जैसे, बकरो की बडाई।—मानस, ५॥५६॥ मेगनी, ऊंट की मेगनी। मृपा-वि० असत्य । झूठ । मैंड-सहा स्त्री० [हिं० डाँड का अनु० या सं० मण्डल ] १ ऊंचो मृपाज्ञान-सशा पु० [ ] झूठ वा असत्य ज्ञान । प्रज्ञान (को०) । उठी हुई तग जमीन जो दूर तक लकीर के रूप मे चली गई मृपाव-सज्ञा पुं० [स०] मिथ्यात्व । असत्यता । झूठपन । हो । २ दो खेतो के बीच का कुछ ऊँचो उठी हुई संकरी जमीन जिसपर लोग पाते जाते हैं । डोट । पगडडो । मृपाध्यायी-सज्ञा पुं० [सं० मृपाध्यायिन्] एक प्रकार का सारस (को०) । यौ॰—दॉडमेंद = कूल । किनारा । वार पार । उ०—पवनहुं ते मृपामापी-वि० [सं० मृपाभाषिन् ] झूठ बोलनेवाला । प्रसत्यवक्ता । मन चांड, मन ते मासु उतावला। कतई मेल न डाँड, मुहमद बहु मृपार्थक-वि० [सं०] पसभव । झूठा । जैसे, मृषार्थक वचन (को०] । विस्तार सो।—जायसी (शब्द॰) । मृपालक-समा पु० [सं०] पाम का पैड़। मॅडकी-सपा खी० [स० मेढकी ] दे० 'मेढ़को'। उ०-महातम विशेप-पान के वृक्ष में थोड़े ही दिन म जरियों का अलफार जान नहीं मेड़की गगा वीच । पलटू सबद लग नहीं कतनी रहै रहता है, इसी से इसका यह नाम रखा गया है। नगीच ।-पलटू०, भा० ३, पृ० १००। मृपावाद-सझा पुं० [सं०] १ झूठ बोलना । २ झूठी वात। मॅडरा-सा पुं० [सं० मण्टल ] १ घेरकर बनाया हुअा काई असत्य वचन। गोल चक्कर । २. एंडा । गेडुरी। HO