पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/२७३

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मोतीज्वर ४०३२ मोदमोदिनी यो०-मोतीचूर परिव = गोल छोटी उभरी हुई चमकदार प्राँस । है। 30-मोथा नीर चिरायन बागा। पीतपापरा पित पह (जैसी कवूनर की होती है)। नामा।-द्रा०, पृ० १५१ । २ एक प्रकार का घान जिसकी फसल अगहन मे तैयार होती है। विशेष-यह तृणा जलाशयों में होता है। इसको पत्तियां युश को ३ कुश्ती का एक पेंच जिसमे प्रतिद्वद्वी के बाएं पैर को अपने पत्तियो की तरह पी बी पोर गहरे हरे रंग की होती हैं। दाहिने पैर मे फंसाकर और हाथ से उसका गला लपेटकर उसे सकी जटें बहुत मोटी होतीद, जिन्हें गूपर गोकर खाते हैं। चित्त कर देते हैं। मोतीज्वर-सशा पुं० [हिं० मोती + स० ज्वर ] चेचक निकलने के मोट-T पुं० [१०] [वि० मोदो ] १. पानद । सर्प । प्रगमता । पहले पानेवाला ज्वर । सुनी। २ पांच भगग, T मगण, एक नगण, और एक गुरु वर्ग का एक वर्गकृत । जने, - नर मे मिगर गुण अर्जुन मोतीझरा, मोतीमिरा-सशा पुं० [हिं० मोती+झिरा (=ज्वर)] जाहिर भूपातीद नजाने । ज्योहि म्यवघर मे मदरी दइ वेध छोटी शीतला का रोग । मोतिया माता निकलने का रोग । ममा गा द्रोपदी पाने । मुगध । महा । मुश्त। मथर ज्वर । मोतीमाती। मोदक' मोतीफल-सज्ञा पुं० [ स० मुक्ताफल ] दे० 'मुक्ताफल' । उ०-फोक '- नया पुं० [ 10 ] १ नहर। ( मिठाई)। २ पौषप मोतीफल कोऊ वास रस पय पान, पोऊ पौन पीवत भरत पेट प्रादि का बना हुया नह। जंगे,-मदनानंद मोदन । ३ भार की।-सुदर० ग्रं॰, भा॰ २, पृ० ४२६ | गुट । ४ एक वर्गत जिगके प्रत्येक व ग मे चार भगण छोते है। जैन,-(4) भा नह पार भी निधि गरन । तो मोतीवेल-सज्ञा जी० [हिं० मोतिया+बेल ] वेले का वह भेद जिमे गहु राम पर नित पाया। प्राय घरं प्रभुलै चरनोदक । भूख मोतिया कहते हैं। मोतिया बेला। उ०-मोतीवेल कैसे फून तगे न भारी मन मोदक । -छदप्रभार (गन्द०)। (ख) काहू मोतिन के भूपन मुचीर गुलचाँदनी मी चपक को डारी मी।- पह गर पागर मारिय । भारत गद प्रकाश पुकारिय । देव (शब्द०)। राग वह कान पर घी जब । छोडि रवयवर जात भया तब । मोतीभात-सचा पुं० [हिं० मोती+भात ] एक विदोप प्रकार का -ौशन (शब्द०)। ५ एक वर्णमकर जाति जिसकी उत्पत्ति भात । उ०-परस्यो प्रोदन विविध प्रकारा। मोतीभात मुनाम क्षत्रिय पिता और गूदा माता मे मानी जाती है । उचारा । केसरि भात नाम ससिभातू । कनकभात पुनि विमल मोदक'-[वि०सी० मोदका, मोदकी ] मोद या प्रानद देनेवाला। विभातू ।-रघुराज (शब्द०)। श्रानददायका मोतीलाडू -सशा पुं० [हि. मोती+लड्डू ] मोतीचूर का लड्ड्ड । मोदककार-सरा ० [सं० ] हलवाई। उ०-दूनी बहुत पकावन साधे। मोतीलाडू खेरोरा बने ।- जायसी (शब्द०)। मोदकर-संशा पु. [ मं० ] एक प्राचीन मुनि का नाम । मोतीसिरी-सज्ञा स्त्री॰ [हिं० मोती+सं० श्री ] मोतियो की कठी। मोदकर'-वि० प्रानददायक । मोदजनक । मोतियो की माला । उ०—तोरि मोतीसिरी गुप्त करि घर्यो मोदकवल्लभ-सग पुं० [सं०] मोदा जिन्हे प्रिय है, गणेश [को०) । कहुं एहि मिस सकुचि रही मुख न वोल।-सूर (शब्द०)। मोदकिका-सचा रखी. [ सं० ] मिठाई [को०] । मोतीहारिरी-सञ्ज्ञा पुं० [ स० मुक्ताफल, प्रा० मुचाइल > मोताइल ] मोदकी-सा पी० [सं० ] एक प्रकार की गदा। उ० - शिखरी दे० 'मुक्ताफल'। उ०—सउ सहमे एकोतरे सिरि मोतीहरि त्यो मोदकी गदा युग दीपति भरी सदाई। -रघुराज सुध्ध । नदी निवामउ उत्तरइ प्राणू एक अविध । ढोला०, दू० (गन्द०)। (म) श्री लव और उदठ पुनि गदा मोदकी मारि । ३३०॥ वीर विभीषण प्रमुर पंह दिया भूमि पे डार । -रघुराज मोत्याहला-सज्ञा पुं० [ स० मुक्ताफल ] मुक्ति रूपी फन । मुक्ति । (गन्द०)। २. मूर्वा । उ०-अवधू अहूंठ परवत मझार, बेलडी माझ्या विस्तार । मोदन-मज्ञा पुं० [सं०] [वि. मोदनीय, मोहित ] १ मुदित बेली फूल, वेला फल वेली मछे मोत्याहल ।-गोरख०, करना । प्रसन्न करना। २ मुगधि फैलाना । महकाना। ३ पृ० ११८ । मोम (को०)। ५ प्रानद । मोद । हर्प (को०) । मोथरा-वि० [हिं० भुथरा ] जिसकी घार तेज न हो। कुठिन । मोदना@:-क्रि० प्र० [सं० मोदन ] १. प्रसन्न होगा । सुश होना । गोठिल । कुद । उ०—भयो अवहुं नहिं मोथरो मोर उदड आनंदित होना। २, मुगधि फैलना। महपाना । उ०-फूल कुठार । उपज्यो अमरप दून अव करी सकुल सहार ।-रघुराज फलि तरु फूल बढ़ावत । मोदत महा मोद उपजावत ।- केशव (शब्द०)। (शब्द०)। मोथा-सञ्ज्ञा पुं० [ सं० मुस्तक, प्रा० मुरथल ] १ नागरमोया नामक मोदना-क्रि० म० प्रसन्न करना। खुश करना । उ॰—तुलसी सरिस घास । मुस्ता । उ०-शूकर वृद डहर मे जाई। खोद निडर अजान मान रिम पूरो हिरा । तऊ गोद लेइ पोछि चूमि मुख मोथा जर खाई।-शकुतला, पृ० ३३ । २ उपर्युक्त नागर- मोदत जियरा ।-सुधाकर (शब्द॰) । मोथा घास की जड जो प्रोपघि की भांति प्रयुक्त होती मोदमोदिनी -सज्ञा स्त्री० [सं०] जामुन । जबूफल [को०] ।