म्यों ४०४८ म्लेच्छ म्यो-~सच्चा स्त्री० [अनु०] विल्ली की बोली । म्रदना-क्रि० स० [ म० मईन ] दे० 'मर्दना' । उ०-परे पंच मुहा०- म्यो म्यों करना = दे० 'म्यावं म्यां करना'। उ०-मेरी वीर, नद्रे नप्प भीर ।-पृ० रा०, ६१।१६८३ । देह छुटत जम पठए जितक हुते घर मो। ल ल सव हथियार म्रनाल@-मग पुं० [ ४० मृणाल ] दे० 'गृणाल'। उ०- मनों आपुने सान धराए त्यो। तिनके दारुन दरस देसि के पतित चच सी नाल ति पग्गी-पृ० रा, "५११८ । करत म्यो म्यो ।—सूर (शब्द॰) । दे० 'म्यांव' । म्रातन--सग पुं० [ मै० ] कैरी मुम्तक । केवटी मोया । म्योड़ी- सज्ञा सी० [ स० निर्गुण्डी ] एक सदावहार झाड का नाम | म्रितक-मुशा पुं० [सं० मृतक ] दे॰ 'मृतक' । उ० नितक होय सिंदुवार । निर्गुडी। काल को उसे, उलट बानी पर्प को पाइ ।-रामानद०, पृ. विशेप-इस झाड मे केसरिया र ग के छोटे छोटे फूलो की मज- ३४। रियां लगती है। इसकी डालियो मे प्रामने सामने पत्तियां म्रिया-क्रि० वि० [म० मृपा] २० 'मृया' । उ-यह म्रिया मत होती हैं, जिनके बीच से दूसरी शाखाएं निकराती है। इनकी नहि होय । सब गर्मजात पियोग । -मत० दरिया, पृ० १० । पत्तियो के बीच एक सीक होती है जिसके सिरे पर एक और दोनो ओर दो दो पत्तियां होती है, जो कुल मिलनर पांच पाँच मिनाल@i-सा पुं० [ सं० गृणात ] दे० 'मृणात्र' । उ० --हटि होती है। यह झाड बनो मे होता है और वागो के किनारे यत दतन तीर । विनात मनु कहि नीर । -पृ० रा०, ६१॥ वाढ पर भी लगाया जाता है। वैद्यक मे म्योडी उष्ण और १७१३ रुक्ष मानी गई है और इसका स्वाद कटु तथा तिक्त लिसा म्रियमाण-वि० [०] मरता हुया । मग हुभा ना। मृतप्राय । गया है। यह खांसी, कफ, सुजन और अफरा को दूर करती अवमग्न । उ०—पित उठे पुण्य पद्य त्रियमाण, विश्व का है। इसका प्रयोग वात रोग मे भी होता है और इनकी पत्तियो हो सदैव कल्याण । नागरिका, पृ० ७६ ॥ की भाप बवासीर की पीडा को दूर करती है । म्लात-वि० [सं०] मुरझाया हुआ । म्नान [को० । पर्या-नीलिका । नील निर्गुडो । सिंहक । सिंदवार । निर्गुडी। म्लान'-वि० [M०] मलिन । कुम्हलाया हुप्रा । २ दुर्बल । फमजोर । म्रक्ष, म्रक्षण-सज्ञा पुं० [सं०] १ अपने दोपो को छिपाना । मधारी। ३ मैला । मलिन । २ तेल लगाना । ३ मसलना । मीजना। स्लान-सा खी०३० म्लानि'। म्रगमद-सज्ञा पु० [सं० मृगमद ] कस्तूरी। मृगमद । उ०-- योः -ग्लानमना= उदान । सिन्न । म्लानबीडनिर्लज्ज । कालिंदी न्हावहि न नयन अन न मृगमद | कुचा अग्न परम न वेशर्म । लज्जाहीन । नील दल कवल तोरि सद।-पृ० रा०, २।३४६ । म्लानता-सग पी० [सं०] १ म्लान होने का भाव । मलिनता । म्रग-सज्ञा पुं० [सं० मृग] [स्त्री० नंगी ] मृग । हिरन । उ०- २ ग्नानि । म्रगी जान म्रद्द घर वध धाई।-पृ० रा०, ६१२२२३३ । म्लानि-मज्ञा ली० [सं०] १ मलिनता। कातिक्षय । २ छाया । म्रगतिम-सज्ञा स्त्री० [सं० मृगतृष्णा, प्रा० म्रगतिराहा ] दे० गलिनता । उ०या कि विधु में ज्यो मही की म्लानि, दूर 'मृगतृषा', 'मृगतृष्णा'। उ०-नव वधू सजत भूपन संवारि, भी निचित हुई गृह ग्लानि । - साकेत, पृ० १६६ । २ ग्लानि । ससि बढी किरन अति तेज तार । म्रगतिह्म भई उर मुत्ति- माल, भुल्ल चकोर ससि नैन चाल |--पृ० रा०, २।३४६ । म्लायी-वि० [ स० म्लायिन् ] १ म्लान । म्लानियुक्त । २ दुखी । म्रगमासा--तश पुं० [ स० मृगमास ] दे० 'मार्गशीर्ष । उ०--नव उच्छ्व नर नार नवल शृ गार वसन्ने । गीता में म्रगमास की म्लिष्ट-वि० [सं०] १ जो साफ न हो। अस्पष्ट । जैसे, म्निष्ट वायो। २ अव्यक्त वाणी वोलनेवाला । जो स्पप्ट न बोलता मम रूप किमन्ने ।-रा० रू०, पृ० ३७७ । हो। नग्ग-सज्ञा पुं० [सं० मृग, प्रा० नग्ग ] [ सी० नंग्गी ] दे० म्लेच्छ-सा पुं० [सं०] १ मनुष्यो की वे जातिया जिनमे वर्णाश्रम 'मृग' । उ०-तिने देपि असमान नग्गी ठठुक्की। मनो मेनिफा धर्म न हो। इस शब्द का अर्थ है-यस्पष्टभापी अथवा ऐसी नृत्य तें ताल चुक्की।-पृ० रा०, ११४३०। भाषा बोलनेवाला जिनमे वर्णो का व्यक्त उच्चारण न होता हो। म्रजाद--सञ्ज्ञा पुं० [सं० मर्याद ] दे॰ 'मर्यादा'। उ०-पुष्टि विशेप-प्राचीन ग्रयों मे म्लेच्छ शब्द का प्रयोग उन जातियो म्रजाद, भजन सुख सीमा निजजन पोपन भरन भों। के लिये होता था, जिनकी भापा के उच्चारण की शैली --नद० ग्र० पृ० ३२५। आर्यो की शैली से विलक्षण होती थी। ये जातियां प्राय म्रदिमा-सज्ञा पु० [सं० प्रदिमन् ] १ मृदुता। कोमलता। २ ऐमी थी जिनका पार्यों के साथ सपर्क था, इसीलिये म्लेच्छ नम्रता । प्राजिजी। देश भी भारत के प्रतर्गत माना गया है और म्लेच्छो म्रदिष्ट-वि० [सं० ] अति मृदु । अत्यत कोमल । को वर्णाश्रमधर्म से रहित यज्ञ करनेवाला लिखा है। महा- म्रदुल-वि० [सं० मृदु ] दे॰ 'मृदु' । उ०—सु दर माल विमाल, भारत के आदिपर्व मे म्लेच्छो की उत्पत्ति, विश्वामित्र से अलक सम माल अनोपम । हित प्रकाश प्रदु हास, अरुण छीनकर ले जाते समय वशिष्ठ की धेनु नदिनी के अंग प्रत्यग से वारिज मुख अोपम ।-रा० रू०, पृ०२। लिखी गई है और पह्नव, द्रविड, शक, यवन, शवर, पौड़ शोक।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/२८९
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