पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/२९२

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यकलाई ४८५१ यक्षी' यकसू HO HO 40 HO - यकलाई-सज्ञा स्त्री॰ [फा०] १. दे० 'इकलाई'। २ नकाव । 3 विशेष-कहते हैं, जब इस ग्रह का अाक्रमण होता है, तर चोगा [को०] । अादमी पागल हो जाता है। यकलोही-वि० [ फा। यक+हिं० लोहा+ई ] एक ही लोहे की बनी यनण-नशा पुं० [म०] १ पूजन करना । यजन । २ भक्षण करना। हुई । बिना जोड की (कटाही आदि) । खाना। यकसाँ-वि० [फा० ] एक समान । एक सा । वरावर । यक्षतरु-मज्ञा पु० [ म० ] वट वृक्ष । बट का पंछ । यक्षायाम । वि० [फा०] १ एक अोर । एक तरफ । २ निश्चित । विशेष-कहते हैं, वट का वृक्ष यक्षो को बहुत प्रिय होता है वेफिक्र । ३ एकाग्रचित्त । ४ फारिग [को०] । पीर उसी पर वे नहा करते है। यकायक-क्रि० वि० [फा०] एकाएक । अचानक । एकबारगी। यक्षता-मज्ञा स्त्री॰ [ ] यक्ष का भाव या धर्म । यक्षपन । सहसा। यक्षत्व-मशा पुं० [स० ] यक्ष का भाव या धर्म । यकार-सज्ञा पु० [ ] य का वर्ण । य अक्षर । यक्षधूप-मग पुं० [ ] १ साधारण धूप जो प्राय देवतायो आदि के आगे जलाया जाता है । २ सरल वृक्षा निर्याम । यकीन-सशा पु० [अ० यकीन ] प्रतीति । विश्वास । एतबार । तापीन का तेल । यकीनन्-क्रि० वि० [अ० यकीनन् । अवश्य । नि मदेह । बेशक । यक्षनायक-मशा पुं० [ म०] १ यक्षा के स्वामी, कुबेर । २ जनो जरूर। के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी के अर्हत् के चीये अनुचर का यकीनी-वि० [फा० यकीनी ] विश्वसनीय । अमदिग्ध [को०) । नाम। यकृत्-सज्ञा पु० [सं०] १. पेट मे दाहिनी ओर की एक थैली यक्षप-सा पु० [ ] यक्षपति । कुवेर । जिसमें पाचनरस रहता है और जिमकी क्रिया से भोजन यक्षपति-सज्ञा पुं० [ ० ] यक्षो के स्वामी, कुरेर । उ० - मृत्यु पचता है, अर्थात् उसमे वह विकार उत्पन्न होना है, जिसमे कुबेर यक्षपति काहयत जहं पकर को धाम । -सूर (शब्द॰) । शरीर की धातुएं बनती है । जिगर । कालखड । २ वह रोग यक्षपुर-सा पु० [ ] अलकापुरी। उ०-प्रजापती कह पूजहिं जिसमे यह अग दूषित होकर वढ जाता है। वर्म जिगर । जोई । तिन कर वास यक्षपुर होई ।-विश्राम (शब्द॰) । ३ पक्वाशय । यकोला- यक्षरस-सज्ञा पु० [म०] फूला मे तैयार की हुई शराब । मध्यामव । 1-सञ्ज्ञा पु० [देश॰] एक प्रकार का मझोला पेड जिसके पत्ते प्रतिवर्ष शिशिर ऋतु मे झड जाते है । यक्षराज-सज्ञा पुं० [स०] यक्षो का राजा, कुवेर । विशेष - इसकी लकडी अदर से सफेद और वडी मजबूत होती है यक्षरात्रि-सशा नी० [स० ] कार्तिक मास की पूणिमा जो यक्षा की रात मानी जाती है। तथा सदूक, प्रारायशी सामान आदि बनाने के काम आती है । इसे मसूरी भी कहते है । यक्षलोक-रचा पुं० [ म० ] वह लोक जिसमे यक्षो का निवास माना जाता है। यक्ष-सञ्ज्ञा पुं० [०] एक प्रकार की देवयोनि । एक प्रकार के देवता जो कुवेर के सेवक और उसकी निधियो के रक्षक माने यक्षवित्त-मरा पु० [स०] वह जो बहुत बनवान् हो, पर अपने धन जाते है। उ०-यक्ष प्रवल बाढे भुवमटल तिन मान्यो निज मे से कुछ भी व्यय न करता हा । मात । जिनके काज प्रस हरि प्रगटे धूव जगत विख्यात । यनस्थल-सक्षा पु० [१०] पुगणानुमार एक तीर्य का नाम । —सूर (शब्द०)। यक्षागी-सशा त्री० [सं० यक्षाड गी ] एक प्राचीन नदी का नाम । विशेप-पुराणानुसार यक्ष लाग प्रचेता की सतान माने जाते हैं। यक्षाविप, यक्षाविपति-सरा पु० [स०] यक्षों के स्वामी, युबेर । कहते हैं, इनकी प्राकृति विकराल होती है, पेट फूना ग्रा यक्षामलक-सा पुं० [सं०] पिंड खजूर । और कवे बहुत भारी होते हैं तथा हाथ पैर घार काले रग यक्षावास-सरा पुं० [म.] १ वट का वृक्ष जिसपर यक्षा का के होते है। निवास माना जाता है। २ गूलर का वृक्ष । २. कुबेर । यक्षराज। यक्षिणी- सी० [२०] १ यक्ष का प-नी। २ सुमेर को पनो । यक्षकर्दम म-सज्ञा पु० [सं०] एक प्रकार का अगलेप जो कपूर, अगर, ३ दुर्गा की एक अनुचरी का नाम । कस्तूरी और ककोल मिलाकर बनाया जाता है। कहते है, यक्षो -सुश रसी० [२०] १. यक्षराज सुमेर की स्त्री। २ यज्ञो वी। यक्षो को यह अगलेप बहुत प्रिय है। उ०-प्राजु प्रादित्य यक्षिणी। जल पवन पावन प्रवल चद मानदमय ताप जग को हरी। यक्षी-मश पुं० [सं० यक्ष+ई (प्रत्य॰)] वह जो पक्ष की उपासना गान किन्नर करहु, नृत्य गर्व गुल, यस विधि लक्ष उर करता हो, अथवा उन माथता हा। उ०-प्रजापती फह यक्षकर्दम धरौ। केशव (शब्द०)। पूजहिं जोई। तिन कर वान पक्षपुर हाई। भूता नूनाहे या यज्ञमह-सा पुं० [सं० ] पुराणानुसार एक प्रकार का कलित ग्रह । यक्षन । प्रेतो प्रेतन रदी रक्षन । -गिरयर (धन्द०) ।