पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/२९४

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यज्ञ यजुर्वेदी ४०५३ प्रकार हैं-काठक, कपिस्थल-7ठ, मैत्रायणी और तैत्तिरीय । ये चारो कृष्ण यजुर्वेद की हैं। शुक्ल या वाजसनेयी की काण्व और माध्यदिनी दो शाखाएं है। पतजलि के मत से यजुर्वेद की १०१ शाखाएं हैं, पर चरणव्यूह मे केवल ८६ शाखाएं दी है, और वायुपुराण मे २३ शाखाएं गिनाई गई हैं। इसके सहिता भाग में ब्राह्मण और ब्राह्मण भाग मे संहिता भी मिलती है । इस वेद मे अनेक ऐसे विधिमत्र भी है, जिनका अर्थ बहुत थोडा या कुछ भी नही ज्ञात होता । कुछ प्रार्थनाएं भी ऐसी हैं, जो बिलकुल अर्थरहित जान पडती है। इसके कुछ मत्र ऐमे है, जिनसे सूचित होता है कि उस समय लोगो मे ब्रह्मज्ञान की बहुत कम चर्चा थी। इसमे देवतायो के नामो के साथ बहुत से विशेषण भी मिलते हैं, जिससे जान पडता है कि भक्ति की ओर भी लोगो की कुछ कुछ प्रवृत्ति हो चली थी। पुराणानुसार इस वेद के अधिपति शुक्र और वक्ता वैशपायन माने जाते हैं। विशेप दे० 'वेद' । यजुर्वेदी-सञ्ज्ञा पुं० [सं० यजुर्वेदिन ] १ वह जो यजुर्वेद का ज्ञाता हो। २. वह ब्राह्मण जो यजुर्वेद के अनुसार सब कृत्य फरता हो। यजुर्वेदीय-सज्ञा पुं॰ [ मै० यजुर्वेदिन् ] दे० 'यजुर्वेदी' । यजुश्रुति 1-सचा पुं० [स०] यजुर्वेद । यजुष्पति-मज्ञा पुं० [ स० ] विष्णु । यजुष्पात्र-सज्ञा पुं॰ [सं०] एक प्रकार का यज्ञपान । यजुष्य-वि० [सं०] यज्ञ सवधी। यज्ञ का । यजूदर, यजूवर-सज्ञा पुं॰ [सं०] ब्राह्मण । यज्ञ-सजा पुं० [सं०] १ प्राचीन भारतीय आर्यों का एक प्रसिद्ध वैदिक कृत्य जिसमे प्राय हवन और पूजन हुआ करता था । मख । याग। विशेप-प्राचीन भारतीय पार्यों में यह थी कि जब उनके यहाँ जन्म, विवाह या इसी प्रकार का और कोई ममारभ होता था, अथवा जब वे किसी मृतक की अत्येष्टि क्रिया या पितरो का श्राद्ध श्रादि करते थे, तब ऋग्वेद के कुछ सूक्तो और अथर्ववेद के मत्रो के द्वारा अनेक प्रकार की प्रार्थनाएं करते थे और प्राशीद आदि देते थे। इसी प्रकार पशुओ का पालन करनेवाले अपने पशुप्रो की वृद्धि के लिये तथा किसान लोग अपनी उपज बढाने के लिये अनेक प्रकार के समारभ करके स्तुति प्रादि करते थे। इन अवसरो पर अनेक प्रकार के हवन आदि भी होते थे, जिन्हे उन दिनो 'गृहकम' कहते थे। इन्ही ने प्रागे पलकर विकमित होकर यज्ञो का रूप प्राप्त पिया। पहले इन यज्ञो में घर का मालिक या यतकर्ता, यजमान होने के अतिरिक्त यजपुरोहित भी हुआ फरता पा, और प्राय अपनी सहायता के लिये एक प्राचार्य, जो 'माहाण' पहलाता था, रख लिया करता था। न यज्ञी को आहुति पर पे याड मे ही होती थी। उप प्रतिरिक्त युछ धनवान् या राजा ऐसे भी होते थे, जो बडे वठे यश किया करते थे। जमे,-युद्ध के देवता इद्र को प्रसन्न करने के लिये मोमयाग किया जाता था। धीरे धीरे इन यज्ञों के लिये अनेक प्रकार के नियम यादि बनने लगे, और पीठे में उन्ही नियमो के अनुसार भिन्न भिन्न यसो के लिये भिन्न भिन्न प्रकार की यजभूमियां और उनमे पवित्र अग्नि स्थापित करन के लिये अनेक प्रकार के यज्ञकुड बनने लगे। ऐने यनी में प्राय चार मुन्थ्य ऋत्विज हुग्रा करते थे, जिनको अधीनता में और भी अनेक ऋत्विज् काग करते थे। आगे चलकर जब यर करनेवाले यजमान का काम केवल दक्षिणा घांटना ही रह गया, तब यज्ञ सबंधी अनेक मृत्य करने के लिये और लोगो की नियुक्ति होने लगी। मुख्य चार ऋत्विजो में पहला 'होता' कहलाता था और वह देवताओं की प्रार्थना कन्ये उन्हें यज मे पान के लिये आह्वान करता था। दूसरा प्रत्विज् 'उद्गाता' यज्ञकु ड मे सोम की आहुति देने के समय मामगान करता था। तीसरा ऋत्विज् 'अध्वर्यु' या यज्ञ करनेवाला होता था, और वह स्वयं अपने मुह मे गद्य मत्र पटता तथा अपने हाथ से यज्ञ के सब कृत्य करता था। चौथे ऋत्विज् 'ब्रह्मा' अथवा महापुरोहित को सब प्रकार के विघ्नो से यज्ञ की रक्षा करनी परती थी, और इसके लिये उसे यज्ञकुड की दक्षिण दिशा में स्थान दिया जाता था, क्याकि वही यम की दिशा मानी जाती थी और उसी अोर से अमुर लोग पाया करते थे। इसे इस बात का भी ध्यान रखना पडता था कि कोई किमी मम का अशुद्ध उच्चारण न करे। इसी लिये 'ब्रह्मा' का तीनो वेदो का ज्ञाता होना भी आवश्यक था। जब यज्ञो का प्रचार बहुत बढ गया, तब उनके सब ध में अनेक स्वतत्र शास्त्र भी बन गए, और वे शास्त्र 'बाहाण' तथा 'श्रौत सूत्र' कहलाए। इसी कारण लोग यज्ञो को 'पीतकर्म' भी कहने लगे। इमी के अनुसार यज्ञ अपने मूल गृहकर्म से अलग हो गए, जो केवल स्मरण के आधार पर होते थे। फिर इन गृह्यकर्मों के प्रतिपादक न थो को 'स्मृति' कहने संगे। प्राय सभी वेदो का अधिकाण इन्ही यज्ञमवधी बातो से भरा पड़ा है। (दे० 'वेद')। पहले तो सभी लोग यज्ञ किया करते थे, पर जब धीरे धीरे यक्षो का प्रचार घटने लगा, तर अध्वर्यु और होता ही यज्ञ के नव काम करने जगे। पीछे भिन्न भिन्न ऋपियो के नाम पर भिन्न भिन्न नानावाले यज्ञ प्रचलित हुए, जिससे ग्राह्मणा का महत्व भी बढ़ने लगा। इन यज्ञों में अनेक प्रकार के पशुओं की बलि भी होती थी, जिगो कुछ लोग मसतुष्ट होने लो, और भागवत प्रादि नए मप्रदाय स्थापित हुए, जिनके कारण यज्ञो का प्रचार धीरे धीरे वद हो गया। यज्ञ अनक प्रकार के होते थे। जगे,-गोमयाग, अश्वमय यज्ञ, राजमूज़ (राजनूय) यज्ञ, ऋनुयाज, अग्निष्टोग, अतिराम, महायत, दशराम, दशमूरामास, पविष्टि, पुकामेष्टि, नातुमान्य मौवामणि, दशरेय, पुष्पर्मप, पादि, पारि। घायों को ईरानी माया मे मी या पलिन हे श्री 'परा' पलाते थे। इस 'यश्न' के ही कारनी का 'जर' गर वना