यमेश्वर ४०६२ यवनप्रिय और पुरु 30 ] जी। स० 0 हो [को०] । HO यमेश्वर --सञ्ज्ञा पुं० [सं० ] शिव । एक नाप जो एक इच की एक तिहाई होती है । ४ मामुद्रिक के ययाति-सज्ञा पुं० [स० ] राजा नहुष के पुत्र जो चद्रवश के पांचवें अनुसार जी के प्राकार की एक प्रकार की खा जो उंगला में राजा थे और जिनका विवाह शुक्राचार्य की कन्या देवयानी के होती है और जो बहुत शुभ मानी जाती है। यहते हैं, यदि साथ हुआ था। यह रेखा अंगूठे मे हो, तो ठमका फन और भी शुभ होता है। विशेप-इनको देवयानी के गर्भ से यदु और तुर्वमु नाम के दो इस रेखा का रामचद्र के दाहिने पैर के अगूठे में होना माना तथा शर्मिष्ठा के गर्भ से द्रुह्य, अरशु और पुरु नाम के तीन जाता है । ५ वेग । तेजी । ६ वह वस्तु जो दोनो ओर पुत्र हुए थे। विशेप दे० 'देवयानी'। इनमे से यदु से यादव वश उन्नतोदर हो। से पौरव वश का प्रारभ हुया । शर्मिप्ठा इन्हें विवाह यवकटक-मा ० [स० यवक्ण्टक ] नेतपापडा। के दहेज मे मिली थी। शुक्राचार्य ने इन्हे यह कह दिया था यवक-सग पुं० [ कि शर्मिष्ठा के साथ सभोग न करना। पर जब शर्मिष्ठा ने ऋतु- मती होने पर इनसे ऋतुरक्षा की प्रार्थना की, तब इन्होंने उसके यवकलश-सा पुं० [ ] इद्रजी। साथ सभोग किया और उसे सतान हुई। इसपर शुक्राचार्य ने यवक्य-वि० [ ] यव बोने के उपयुक्त (सेत) । जिनमे जो बोया इन्हे शाप दिया कि तुम्हे शीघ्र वुढापा पा जायगा । जव इन्होने शुक्राचार्य को सभोग का कारण बतलाया, तब उन्होने कहा यवक्रीत-मा पुं० [स.] एक ऋपि का नाम जो भरद्वाज के पुत्र थे । कि यदि कोई तुम्हारा बुढापा ले लेगा, तो तुम फिर ज्यो के त्यो यवना-सज्ञा स्त्री० [ स० ] महाभारत के अनुसार एक नदी का नाम । हो जाओगे | इन्होने एक एक करके अपने चारो पुयो से कहा यवनार-मग पु० [ ] जो के पोचो को जलाकर निकाला हुआ कि तुम हमारा बुढापा लेकर अपना यौवन हमे दे दो, पर किसी बार । विशेप दे० 'जवाखार' । ने स्वीकार नहीं किया । अत मे पुरु ने इनका बुढ़ापा पाप ले लिया और अपनी जवानी इन्दे दे दी। पुना यौवन प्राप्त यवचतुर्थी-सझा सी० [ स० ] वैशाख शुक्ला चतुर्थो । करके इन्होने एक सहस्र वर्ष तक विपयमुख भोगा। प्रत मे यवज-सज्ञा पुं॰ [सं०] १ यवक्षार। २ गेहूँ का पौधा । ३ अजवायन । पुरु को अपना राज्य देकर धाप वन मे जाकर तपस्या करने यवतिक्ता---मज्ञा स्त्री॰ [ म० ] शखिनी नाम की लता। लगे और अत मे स्वर्ग चले गए। स्वर्ग पहुंचने पर भी एक यवदोप- सझा पुं० [सं० ] जी के प्राकार की एक रेखा, जो रलो में वार यह इद्र के शाप से वहां से च्युत हुए थे, क्योकि इन्होने पट जाती है और जिससे वह रत्न कुछ दूषित हो जाता है । इद्र से कहा था कि जैसी तपस्या मैंने की है, वैसी और किसी ने नही की। जब ये स्वर्ग से च्युत हो रहे थे, तब मार्ग मे यवद्वीप-सज्ञा पुं॰ [ मं० ] वर्तमान जावा द्वीप का प्राचीन नाम । इन्हे अष्टक ऋषियो ने रोककर फिर से स्वर्ग भेजा था। यवन-सचा पुं० [सं० ] [ सी० यवनी] १ वेग । तेजी । २ तेज इसका उल्लेख ऋग्वेद मे भी आया है। घोडा । ३ यूनान देश का निवासी । यूनानी । ययातिपतन-सञ्ज्ञा पुं० [स०] महाभारत के अनुसार एक तीर्थ विशेप-यूनान देश में 'पायोनिया' नामक प्रात या द्वीप है, का नाम । जिमका लगाव पहले पूर्वीय देशो मे बहुत अधिक था । उसी के प्राधार भारतवासी उस देश के निवासियो को, नीर तदु- ययावर-सञ्ज्ञा पुं० [सं० ] दे० 'यायावर' । परात भारत मे यूनानियो के प्राने पर उन्हे भी 'यवन' कहते ययि-सज्ञा पुं० [सं०] १ अश्वमेध यज्ञ के उपयुक्त अश्व । २ मेघ । थे । पीछे से इस शब्द का अर्थ और भी विस्तृत हो गया और वादल । दे० 'ययी' [को०] । रोमन, पारसी आदि प्राय सभी विदेशियो, विशेषत पश्चिम से ययी-सञ्ज्ञा पुं० [सं० यिन् ] १ शिव । २ घोडा । ३ मार्ग । भानेवाले विदेशियो को लोग 'यवन' ही कहने लगे, और इस पथ | रास्ता । दः 'ययि'। शब्द का प्रयोग प्राय 'म्लेच्छ' के अर्थ मे होने लगा। परतु ययु-सञ्ज्ञा पुं० [ स०] १ अश्वमेध यज्ञ का घोडा । २ घोडा । महाभारत काल मे यवन और म्लेच्छ ये दोना भिन्न भिन्न यरकान-सहा पुं० [अ० यरकान ] एक रोग जिसमे शरीर, विशेषत जातिया मानी जाती थी। पुराणो के अनुसार अन्यान्य म्लेच्छ आँखें पीली हो जाती हैं । कमल रोग । पीलिया [को०। जातियो (पारद, पह्नव अादि) के समान यवनो की उत्पत्ति भी यल-सज्ञा स्त्री॰ [ स० ला ] पृथिवी । धरती [को०] । वसिष्ठ और विश्वामित्र के झगडे के समय वसिष्ठ की गाय के शरीर से हुई थी। गाय के 'योनि' देश से यवन उत्पन्न हुए थे। यलधीश, यलनाय-सशा पुं० [ स० इला+अधीश ] राजा (डि०) । ४ मुसलमान । उ०-भूषण यो अवनी यवनी कह कोक कहै सरजा यला-सज्ञा सी० [ सं० इला ] पृथ्वी । (हिं०) । सो हहारे। तू सवको प्रतिपालनहार विचारे भतार न मारु यलाइद-सज्ञा पुं॰ [ सं० इला + इन्द्र ] राजा । (हिं.) । हमारे । -भूपण (शब्द०)। ५, कालयवन नामक म्लेच्छ राजा यलापत-सञ्चा पुं० [ सं० इला+ पति ] राजा । (हिं०) । जो कृष्ण से कई बार लडा था। यव-मज्ञा पुं० [सं०] १ जो नामक अन्न । विशेप दे० 'जी' । २ यवनद्विष्ट-सज्ञा पुं॰ [ स०] गुग्गुल । गुगुल [को०] । एक जौ या १२ सरसो की तौल का एक मान । ३. लंवाई की यवनप्रिय-सज्ञा पुं० [सं०] मिर्च ।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/३०३
दिखावट