पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/३३४

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रईस ४०६३ रकांव सपन्नता। महत परस्पर प्रापुरा मे सव कहाँ रही हम काहि रई।-मुर छाप । मोहर । ३ रुपया या बीघा विस्वा प्रादि लिखने के (शन्द॰) । (स) स्वांग सूधो साधु की, कुचानि कलि तें अधिक, फारमी के विशिष्ट श्रक जो साधारण मंन्यानूचरु को ने परलोक फीकी, मति लोक रग रई।-तुलगी (शब्द०)। ३ भित होते है। नियत मख्या का धन । मपत्ति । दोनत। युना । सहित । मयुक्त । उ० -(क) वीरा विसे बलवन हुते जो ५ गहना । जेवर । ६ धनगगन । मानदार । ७ चलता पुरजा । हुती हग कोशव रूप रई जू ।-केशव (शब्द॰) । (स) करिए चालाक । धूर्त । ८ नवयौनना और गुदरी स्त्री। (वाजाग्र)। युत भूगरण रूप रई। मिथिलेश मुना क स्पर्श मई। केशव हलगान की दर । १० प्रकार । तरह। भांति । ११ एक (गन्द०)। ४. मिली हुई। प्रकार का कमीदा किया कपडा जो धारीदार होता है। रईस - सरा पु० [अ०] [वि० रईसाना] १ वह जिसके पास रियासत यौ०- रकम पताई = माल मत्ता। जमा पूजी। म सायर, या इनाका हो । तअल्लुकेदार । भूस्वामी । सरदार । २ प्रति- रकम सिपाय = लगान के प्रतिरिक्त मिलनेवाली थामदनी। हित और धनगन पुरुप । वडा यादमी । अमीर । धनी । जैसे,- रकमी-सज्ञा पुं० [अ० रक्मा] वह किमान जिसके साथ कोई खाम उमकी दावत मे शहर के बडे बडे रईस पाए थे। रियायत की जाय। यौनुल पहर = नामेनापति । रईसजादा । रईसजादी । रकमी - वि० १ लिखा हुआ । लिखित । २ रेखाफिन चिहित । रईसी. -- सज्ञा पी० [अ० रईस + ई] अमीरी। धनान्यता । ऐश्वर्य- निशान किया हुआ (को० । रका --सज्ञा पुं० [अ० रकाक] पटपर नरम भूमि । चौरस पौर रउताई-सझा पु० [हि० रावत + अाई (पत्य०) ] मालिक होने मुलायम मिट्टीवाली जमीन । का भाव । प्रभुत्व । स्वामित्व । उ०--धनि सो पेल खेल मह रकान-सा सी० [हिं॰] १ तौर तरीका । २. वल्गा । लगाम । पेमा । उताई अउ कूसल खेमा । —जायसी (शब्द०)। रउरे-तर्व० [हिं० राय, रावल] मध्यम पुरप के लिये प्रादरसूचक रकाब-सजा सी० [फा०] १. घोडो की काठी का पावदान जिनपर पैर रखकर सवार होते है और बैठने मे जिमसे महारा लेते है। शब्द । आप । जनाब । उ०-विप्र सहित परिवार गोसाई । घोडो की जीन फा पावदान । (यह लोहे का एक घेरा होता है, करहिं छोह सब रउरिहि नाईं। -तुलसी (शब्द॰) । जो जीन मे दोनो ओर रस्सी या तस्मे से लटका रहता है।) रऐयत 1- सज्ञा स्त्री० [अ०] प्रजा। रिमाया । मुहा०--रफाय पर पैर रखना, रफाब मे पांव रहना जाने के रकछा-सा पुं० [हिं० रिकवच] पत्तो की पकोडी। पतौड । उ०- लिये उद्यत होना। चलन के लिये बिलकुल तैयार होना। पान कतरि छौके रकछ डारि मिर्च श्री आदि । एफ खड जो जैसे,—(क) पाप तो पहले से ही रकान पर पैर रखे हुए है। सावै पावै सहस सवादि । जायसी (शब्द०)। (स) पाप जब पाते है, तब रकाब पर पैर रखे पाते हैं। रकत'-सक्षा पु० [स० रक्त] लहू । खून । रुधिर । २ रकाबी। तश्तरी। रक्त'-वि० ताल । सुर्ख। रयतकद-सज्ञा पुं० [म. रक्तकन्द] १ मूंगा। प्रवाल । विद्रुम रकाबत--संशा सी० [अ० रकायत] एक नायिका के दो प्रेमियो को परस्पर प्रतिद्वद्विता। एक नायक को चाहनेवाली दो नायि- (डि०) । २ राजपलादु । रक्तालु । रतालु । कायो का परम्पर डाह [को०] । रफता-सज्ञा पुं० [स० रक्ता] १ विद्रुग। प्रवाल । मूंगा। रकाबदार- सशा पुं० [फा०] १. मुख्या, मिठाई श्रादि बनानेवाला। (डि०) । २ कुकुम । केमर । ३ रक्तचदन । लाल चदन । हनवाई । २ रयावियो मे खाना सुनने और लगानेवाला। रकती-वि० [हिं० फत+ ई (प्रत्य॰)] सुर्सी लाल । जो जून की तरह वानमामा। ३. बादशाहो के साथ साना लेकर चलनेनाला साल हो । उ०-उसे पूरी प्राशा हो गई, उनको बडी वडी सेवक । खाना वरदार । ४ रकान पकडकर घोडे पर मवार रकती गौसे देखकर कि, "प्रव उसकी गरदन बिना नप न करानवाला । नोकर । माईप । बचेगी।-शरानी, पृ०६१ । रकाया- सं० [फा०] बडी पाली । परात । नश्तर्ग। रकतो'-सा सी० प्रांखो मे जमा हुआ सून या उसकी लाली । रफावी - सहा झी० [फा०] एक प्रकार की घिचलो छोटो थाली, सवा-सस पु० [अ० रकबा] वह गुणनफन जो गिगी क्षेत्र की जिनसी दीवार बहुत पम ऊंनी प्रयया बाहर की घार मुद्री लगाई गौर चौडाई को गुणा करो ने प्राप्त हो । क्षेत्रफन | हुई होती है । तसरी। सवाहा-सा पुं० [दश०] घोडा का एक भेद । उ०—कर रफाहे रकार-नशा पुं॰ [सं०] वर्ण का बोयर अक्षर । र । शिलवायी कुही कादिल के, सुरानानो सजरीट सजन सलक रकीक'-वि० [५० रफ़ोऊ ] १ पानी की तरह पता। तरल । ।-पूरन (२०)। द्रव । २. कोमल । मुलायम । नरम । रकमजनी-सका सी० [म० रम] एक प्रकार का पाया। रकी-वि० [अ० ] प्रथम । नुन्छ । मीना नि रकम- 7 ० ० र ग] १ लिसने ती मिया या भाग । २ रसीव-ज्ञा ० [भ० रफ़ीच ] [ नसी० रप या ] दर प्रतियोगी