पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/३५२

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रणस्थल ४१११ रतनारा HO HO रणस्थल-सज्ञा पु० [ स० ] लडाई का मैदान । रणभूमि । रणस्वामी-सञ्ज्ञा पुं० [ सं० २रणस्वामिन् ] १. शिव | महादेव । २ युद्ध का प्रधान सचालक या सेनापति । रणहस-सज्ञा पुं० [ स० ] एक वर्ण वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण मे सगण, जगण, भगण और रगण होते हैं। इसको 'मनम', 'मानहस' और 'मानसहम' भी कहते हैं। रणाग-सञ्ज्ञा पु० [ स० रणाझ ] हथियार । शस्त्रास्त्र।को०] । रणागण-सज्ञा पुं॰ [ स० रणाङ्गण ] लडाई का मैदान । युद्धक्षेत्र । रणांतकृत - सञ्ज्ञा ० [ सं० रणान्तकृत् ] विष्णु को०] । रणाग्र-सञ्ज्ञा पुं० [ ] सेनामुख । लडाई का अग्रिम मोरचा। रणाजिर-सज्ञा पुं० [ स० ] युद्ध क्षेत्र । लडाई का मैदान । रणि-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० रैन ] रात्रि । रात । (डिं०) । रणित-सञ्ज्ञा पु० [ स० ] झनझनाहट । रगत्कार (को०] | रणेचर-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० ] विष्णु । रणेश-सशा पुं० [ ] १ शिव । २ विगु । रणेस्वच्छ-सज्ञा पुं० [ स० ] कुक्कट । मुर्गा [को०] । रणोत्कट'-सज्ञा पुं० [स० ] १ कार्तिकेय के एक अनुचर का नाम । २ एक दैत्य का नाम । रणोत्कट-वि० जो रण मे समिलित होने या रण ठानने के लिये उन्मत्त हो रहा हो। रणोत्साह-सज्ञा पुं॰ [ सं० ] युद्ध यवधी उत्साह । युद्धोत्साह (को॰] । रत-सञ्ज्ञा ० [ पुं०] १ मैथुन । प्रसग । उ०—प्रिया का है विवाधर मृदुल ज्यो पल्लव नयो। लियो धीरे धीरे रहसि रस मैंने रत समै ।-लक्ष्मण ( शब्द०)। २ योनि । ३ लिंग । ४ प्रेम । प्रीति । रत'-वि० १ प्रेम मे पड़ा हुआ । अनुरक्त । आसक्त । २ (कार्य प्रादि मे ) लगा हुा । लिप्त । लीन । तत्पर । रत-सञ्ज्ञा पुं० [सं० रक्त, प्रा० रत्त] रक्त । खून । लहू । (डि०) । रत-सज्ञा स्त्री॰ [सं० ऋतु ] दे॰ 'ऋतु' । उ०—ावी सव रत श्रामली प्रिया करइ सिणगार ।- ढोला०, दू० ३०३ । रतकील-सज्ञा पुं० [ ] १ कुत्ता। २ पुरुप की जननेंद्रिय । वह प्रानदोत्सव जो रात भर होता रहे। ३ एक त्योहार जो पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा विहार आदि मे भाद्रपद कृष्ण द्वितीया की रात को होता है। इसमे प्राय स्त्रियां रात भर कजली श्रादि गाया करती हैं। रतज्वर-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० ] कोपा । काक (को०] । रतताली'-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ सै० ] कुटनी। रतताली-सञ्ज्ञा पुं० [ म० रततालिन् ] विषयी। कामाचारी । लपट (को०] । रतन-सज्ञा पुं० [ स० रत्न ] ३० 'रत्न' । रतनजोत-सज्ञा स्त्री॰ [स० रत्न -- ज्योति] १ एक प्रकार की मणि । २ एक प्रकार का बहुत छोटा क्षुप जो कश्मीर और कुमाऊ मे अधिकता से होता है। विशेप- इसके डठल प्राय डेढ बालिश्त तक लबे होते हैं, जिनमे काहू के पत्तो के से, प्राय चार अगुल नक लवे और कुछ अनीदार पत्ते और छोटे छोटे फूलो तथा फलो के गुच्छे लगते है। इसकी जड लाल रग की होती है, जिमसे लाल रग निकाला जाता है और तेल आदि रंगे जाते हैं। वैद्यक मे यह गरम, रुक्ष, पित्तज, त्रिदोषनाशक तथा जीर्णज्वर, प्लीहा, शोथ आदि को दूर करनेवाली कही गई है। इसके कई भेद होते हैं, जिनमे से एक के डठन और पत्ते अपेक्षाकृत बडे होते हैं, और एक छत्ते के प्राकार की होती है जिसकी पत्तियाँ बहुत छोटी होती हैं। वैद्यक के अनुसार इन सबके गुण भी भिन्न भिन्न होते है, और इनका व्यवहार प्रौपध रूप मे होता है । ३ वृहद्दती | वडी दती । वि० दे० 'दती' । रतनपटोरा-सज्ञा पुं० [हिं० रतन + पटोरा ] रत्न जड़े हुए वस्त्र। जडाऊ वस्त्र। उ०-रतन पटोरा डारि पॉवडा सन्मुख जाऊ हो।-घरम०, पृ० ५४ । रतनपुरुष-सञ्ज्ञा पुं॰ [ 7 ] एक प्रकार की छोटी झाडी जो दिल्ली, आगरा, वु देलखड और बगाल मे पाई जाती है। इसकी जड और पत्तियां प्रोषधि के रूप में काम मे पाती हैं । रतनाकर-सज्ञा पुं० [सं० रत्नाकर ] १ दे० 'रत्नाकर'। २ है. 'रतनजोत' । रतनागर-सञ्ज्ञा पुं० [स० रत्नाकर ] समुद्र । उ.-जनमि जगत जमु प्रगटिहु मातु पिताकर । तीयरतन तुम उपजिहु भव रतनागर ।-तुलसी (शब्द॰) । रतनगरभ-सज्ञा स्त्री० [सं० रत्नगर्भा ] पृथ्वी । भूमि । ( डि० )। रतनार-वि० [हिं० ] दे० 'रतनारा'। रतनारा-वि० [ स० रक्त, प्रा० रत्त, रत+नाल ( = पोला मुरमा) अथवा स० रत्न (= मानिक)+ हिं० भार (प्रत्य॰)] कुछ लाल । सुर्जी लिए हुए। उ०-दुलरी कठ नयन रतनारे मो मन चित हरौरी ।—सूर (शब्द०)। लिंग (को०] । रतकूजित-सञ्ज्ञा पुं० [ स०] सभोग के समय की जानेवाली अस्फुट ध्वनि । कामुकतापूर्ण कुथन । सभोग या प्रसगकालीन सीत्कार । [को०)। रतगिरा-तज्ञा स्त्री० [हिं० रत्ती ] गुजा । घुघची। रतगुरु-सा पुं० [सं०] पति । खसम । शौहर । रतगृह-सा पु० [सं० । दे० 'रतिगृह' [को॰] । रतजगा-मचा पुं० [हिं० रात+जागना] १ किसी उत्सव या विहार प्रादि क लिये सारी रात जागकर विता देना। २ ८-४३