पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/३५३

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रतनाराच रतिकंत co विशेष-इस शब्द का प्रयोग अधिकतर प्रांखो के लिये ही रतामर्द'-सज्ञा पुं० [ ] कुत्ता [को०] । होता है । रतायनी-सज्ञा स्त्री॰ [ स० ] वेश्या । रडी। रतनाराच-सशा पुं० [ मं० ] दे॰ 'रतनारीच' [को०] । रतार्थी-वि० [ सं० रतार्थिन् ] [ वि० सी० तायिनी ] मंभोग चाहने- रतनारी-सज्ञा पुं० [हिं० रतनार+ ई ( प्रत्य० ) ] १ एक प्रकार वाला । कामुक [को०] । का धान । उ०—कपूर काट कजरी रतनारी। मधुकर ढेला जीरा सारी ।—जायसी (शब्द०)। रतालू -सज्ञा पु० [ मं० २त्तालु ] १ पिटालू नामक कद जिमका व्यवहार तरकारी बनान मे होता है । २ वाराहीफद । गेंठी । रतनारी-सज्ञा स्त्री॰ [स० रक्त (= रत+नार)] लाली । लालिमा । रति'-सशा सी० [ स०] १ कामदेव की पत्नी जो दक्ष प्रजापति की सुर्यो । कन्या मानी जाती है। विशेप दे० 'कामदेव' । उ०-रावा हरि रतनारी'—वि० दे० 'रतनारा' । केरी प्रीति सब तें अधिक जानि रति रतिनाथ हूं देवो रति रतनारीच-सज्ञा पुं० [ ] १ कामदेव । मदन । २ कुत्ता । श्वान । थोरी सी। केशव (शब्द॰) । ३ आवारा । लपट । बदचलन । ४. रतकूजित । सभोगानदजन्य विशेष-कहते हैं, दक्ष ने अपने शरीर के पनीने मे इमे उत्पन सीत्कार (को०)। करके कामदेव को अर्पित किया था। यह संसार की सबसे अधिक रतनालिया@t-वि० [हिं० रतनारा+इया (प्रत्य०)] दे० रूपवती, सौंदर्य की भाक्षात् मूर्ति मानी जाती है । हमे देखकर 'रतनारा'। उ-खडिया रतनालिया चेला कर प्रताल । मैं सभी देवतायो के मन में अनुराग उत्पन्न हुया था, इसलिये तोहिं बूझी माछली तूं क्यों वधी जाल ।-कवीर (शब्द०)। इनका नाम रति पडा था। जिम समय शिव जी ने कामदेव को रतनावली-सज्ञा स्त्री॰ [ सं० रत्नावली ] दे० 'रत्नावली' । अपने तीसरे नन से भस्म कर दिया था, उस समय इसने बहुत रतनिधि--सञ्ज्ञा पुं० [सं०] खजन पक्षी । ममोला । अधिक विलाप करके शिव जी से यह वरदान प्राप्त किया था रतबध-सञ्ज्ञा पुं० [स० रतवन्ध ] दे० 'रतिवध' । कि अब से कामदेव विना शरीर के या अनग होकर सदा वना रतमानस-वि॰ [ स० ] खुशदिल । प्रसन्नचित्त [को०] । रहेगा। यह भी माना जाता है कि यह सदा कामदेव के साथ रतमुहाँल-वि० [हिं० रत (= लाल ) + मुह] [वि० सी० रहती है। रतमुही ] लाल मुहवाला । उ०—रायमुनी तुम्ह श्री रतमुही। २ कामक्रीडा । सभोग । मथुन । उ०—(क) रति जय लिखिवे अलिमुख लाग भई फुल जुही ।—जायसी (शब्द॰) । की लेखनी सुरेख किवी मीनरथ सारथी के नोदन नवीने रतमुहाँ'-सञ्ज्ञा पु० वदर । हैं ।--केशव (शब्द॰) । (ख) लाज गरव पारस उमग भरे नैन मुसकात । राति रमी रति देत कहि और प्रभा प्रभात । रतवॉस-सशा पुं० [हिं० रात+वाँस (प्रत्य॰)] हाथियो और -बिहारी (शब्द॰) । ३. प्रीति । प्रम । अनुराग । मुहब्बत । घोडों का वह चारा जो उन्हें रात के समय दिया जाता है । रतवा-सञ्चा पुं० [ देश० ] खर नाम की घास जो घोहो के लिये बहुत क्रि० प्र०-करना ।-जोडना ।—लगाना।—होना । अच्छी समझी जाती है। ४ शोभा ! छवि। उ-चोटी मे लपेटी एक मणि ही सुकाढि रतवाई-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [देश० ] पहले दिन कोल्हू चलने पर उसका रस दीन्ही दीजो गम हाथ जो वढया तेरी रति को। हृदयराम लोगो मे वांटने की प्रथा । (शब्द॰) । ५ सौभाग्य । खुशकिस्मती । ६ साहित्य मे शृगार रतवाह-सज्ञा पुं० [हिं० रात+वाह ? ] रात की लडाई। रात्रि रस का स्थायां भाव । नायक नायिका की परस्पर प्रीति या को होनेवाला युद्ध। प्रेम । ७ वह कर्म जिसका उदय होने से किसी रमणीक वस्तु रतव्रण-सञ्ज्ञा पुं० [ सं० ] कुत्ता। से मन प्रसन्न होता है । (जैन)। ८ गुप्त भेद । रहस्य । ६ रतशायी-सज्ञा पुं॰ [ सं० रतशायिन् ] कुत्ता। चद्रमा की छठी कला (को॰) । रतहिडक- सज्ञा पु० [ स० रतहिण्डक ] १ वह जो स्त्रियो को चुराता रति-सज्ञा स्त्री॰ [हिं० ] दे॰ 'रत्ती' । हो। २ लंपट । आवारा । बदचलन । रति-क्रि० वि० दे० 'रती'। उ० - कत सकुचत निधरक फिरौ रताजली-सज्ञा स्त्री० [सं० रताञ्जली ] रक्तचदन । लाल चदन । रतियौ खोरि तुई न । कहा करो जो जाहिं ये लगै लगोहैं रतादुक-सञ्ज्ञा पु० [सं० रतान्दुक ] कुत्ता। नैन । -विहारी (शब्द०)। रता-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ देश० ] भुकडी, जो अनेक वस्तुमो पर रति-सज्ञा स्त्री॰ [हिं० रात ] रात । रात्रि । रैन । उ०—सही बरसात के दिनो मे या सीड की जगह मे लग जाती है। रंगीले रति जगे जगी पगी सुख चैन। अलमौंहें सौहैं किए कहैं रतानाgt'-क्रि० अ० [५० रत+ हिं० श्राना (प्रत्य॰)] रत होना। हंसीह नैन ।-विहारी (शब्द॰) । उ०—कीधौ श्याम हटकि है राख्यो कीघौं अापु रतान्यो। विशेष—केवल समस्त पदो मे ही इस शब्द का इस रूप मे व्यवहार सूर (शब्द०)। होता है । जैसे, रतिवाह । रताना-क्रि० स० किसी को अपनी ओर रत करना। रतिकत-सज्ञा पुं० [सं० रतिकान्त] दे॰ 'रतिकात' । ३०-नव प्राय