पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/३५६

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त्तक ४११५ रत्नधर का नाम । - रत्तक-सञ्चा पुं० [स० रक्तक, प्रा. रत्त ] ग्वालियर मे होनेवाला एक रत्नकणिक-संश' स्त्री० [स०] प्राचीन काल का कान मे पहनने का प्रकार का पत्थर जो कुछ लाल रग का होता है । एक प्रकार का जडाऊ गहना । रत्ती-मज्ञा स्त्री० [स० रक्तिहा,प्रा० रत्त अ१ एक प्रकार का बहुत रत्नकार-सञ्ज्ञा पुं० [सं० रत्न] जौहरी । रलो का पारखी। छोटा मान, जिमका व्यवहार सोने या प्रोधिपयो आदि के रत्नकीर्ति- सञ्ज्ञा पुं० [सं०] एक बुद्ध का नाम । तौलने मे होता है। यह पाठ चावल या ढाई जी के बराबर रत्नकु भ-सज्ञा पुं॰ [सं० रत्नलम्भ] रत्नो से निर्मित घडा [को०] । होता है और प्राय धुंधची के दाने से तोला जाता है । यह एक रत्नकूट-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं०] १ एक पर्वत का नाम | २ एक वोधिसत्व माशे का पाठवाँ भाग होता है । २ वह वाट जो तौल मे इतने का नाम। मान का हो। ३ घुघची का दाना । गुजा। रत्नकेतु-सञ्ज्ञा पुं० [स०] १ एक वुद्ध का नाम । २ एक बोधिसत्व रती@-वि० बहुत थोडा । किंचित् । मुहा० - रत्तीभर = बहुत थोडा सा । जरा सा । रत्नखचित-वि० [स०] जो रत्ननिर्मित हो । रत्नजटित । जिममे रत्न जडे हो [को०] | रत्ती-तज्ञा स्त्री॰ [स० रति] शोभा । छवि । उ०-बत्ती बटि कमी पाग कत्ती सिर टेढो लस वढी मुख रत्ती जैसे पत्ती जदुपति रत्नगर्भ- सज्ञा पुं० [सं०] १ कुवेर का एक नाम । २ समुद्र । ३ एक के। -गोपाल (शब्द०)। वुद्ध का नाम । रत्थी-सशा स्त्री० [२० २थ] लकडी या वाँस का वह ढांचा या सटूक रत्नगर्भा–सचा सी० [सं०] पृथ्वी। भूमि । वमुधरा । श्रादि जिसमे शव को रसकर अतिम संस्कार के लिये ले जाते रत्नगिरि-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १. विहार के एक पहाड का प्राचीन हैं। टिकठी। विमान । अरयी। नाम, जिस पर मगध देश की पुरानी राजधानी राजगृह बसी हुई थी। २ वैद्यक मे एक प्रकार का रस जो अभ्रक, सोने, रत्न-सञ्ज्ञा पुं० [स०] १. कुछ विशिष्ट छोटे, चमकीले, बहुमूल्य पदार्थ, तौवे, गधक और लोहे प्रादि से तैयार किया जाता है और जो विशेपत खनिज पदार्थ या पत्थर, जिनका व्यवहार प्राभूपणो आदि मे जहने के लिये होता है। मरिण । जवाहिर । नगीना । ज्वर के लिये बहुत उपकारी माना गया है । जसे,-हीरा, लाल, पन्ना, मानिक, मोती आदि । रत्नगृह-सञ्ज्ञा पुं० [०] बौद्ध स्तूप की वह बीच की कोठरी जिसमे घातु आदि रक्षित रहती थी। विशेप-हमारे यहां हीरा, पन्ना, पुखराज, मानिक, नीलम, गोमेद, लहसुनियाँ, मोती, और मूगा ये नौरल माने रत्नचद्र-सक्षा पु० [सं० रलचद्र] १. एक देवता जो रलो के अधिष्ठाता माने जाते है । २ एक बोधिसत्व का नाम । गए है। कही इनकी संख्या पांच और कही चौदह भी कही गई है। जैसे, पचरत्न, नवरत्न, समुद्रमथनोद्भूत चतुर्दश रत्नचूह-सञ्ज्ञा पु० [ स० रत्नचूड ] एक बोधिसत्व । रत्न। इसके अतिरिक्त पुराणो आदि मे भी अनेक रल रत्नच्छाया-सज्ञा स्त्री॰ [सं० ] रनो की चमक दमक [को०] । गिनाए गए है, जिनमे से कुछ वास्तविक और कुछ कल्पित रत्नतल्प-सज्ञा पुं॰ [ स० ] रत्नखचित शय्या। वह पलग जिसमे रत्न हैं। जैसे,--गवशस्य, सूर्यकात, चद्रकात, स्फटिक, ज्योतिरस, जडे हो ।को०] । राजपट्ट, शख, सीसा, भुजग, उत्पल आदि । रत्न धारण रत्नत्रय-सञ्चा सं० [ स०] १ जनो के अनुसार सम्यक् दर्शन, सम्यक् करना हमारे यहाँ बहुत पुण्यजनक कहा गया है। ग्रहो ज्ञान और सम्यक् चारत्र, इन तीनों का समूह जो मनुष्य को आदि का उत्पात होने पर रल पहनने और दान करने उत्कृष्ट बनाने का साधन समझा जाता है । २ बौक्षा के अनुसार का विधान है। वद्यक मे इन रत्नो से भी भस्म बनाई बुद्ध, धर्म तथा सघ, (को०)। जाती है, और अलग अलग रलो की भस्म का अलग अलग रत्नदर्पण-सञ्ज्ञा पुं० [सं० ] जहाज आईना [को०] । गुण माना जाता है। रत्नदामा सञ्चा जी० [सं०] १ रत्नो को माला। २ गर्गमाहता २. माणिक्य । मानिक । लाल । के अनुसार साता को माता और राजा जनक को स्त्रा विशेप-कविता मे कभी कभी रत्न शब्द से मानिक का ही ग्रहण रत्नदीप-सज्ञा पुं॰ [ स०] १. एक कल्पित रल का नाम। कहते हैं, ३ वह जो अपने वर्ग या जाति मे सबसे उत्तम हो। सर्वश्रेष्ठ । पाताल में इसी के प्रकाश से उजाला रहता है। २ रत्न जैसे, नररत्न, प्रथरल आदि। ५ जैनो के अनुसार सम्यक् का दीपक। ज्ञान और सम्यक् चरित्र । ५. पानी। जल (को०)। ६. रत्नद्रुम-सच्चा पुं० [ स० ] मूंगा। अयस्कात चु दक (को०)। रत्नद्वाप-सज्ञा पुं० [सं०] १ पुराणानुसार एक द्वीप का नाम । २ रत्नकदल-सा पु० [सं० रनकन्दल] प्रवाल । मूगा । रत्नो का द्वीप । प्रवाल द्वाप । रत्नकर-वज्ञा पुं० [स०] फुवेर का एक नाम । रत्नधर-समा पु० [ स०] धनवान् । अमोर । का नाम। होता है।