पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/३५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रत्नधार ४११६ रतोल्का HO HO HO रत्नस, रत्नसूति- रत्नधार-सज्ञा पुं॰ [ सं० ] पुराणानुसार एक पर्वत का नाम । रत्नराज-सज्ञा पुं० [ ] माणिक्य (को०] । रत्नधारा-सज्ञा स्त्री॰ [ स० ] पुराणानुसार एक नदी का नाम । रत्नराशि-सज्ञा स्त्री॰ [ सं०] १ हीरा जवाहरातो का ढेर । २ रत्नधेनु-सज्ञा स्त्री॰ [ स० ] पुराणानुसार रत्नो की वनाई हुई वह सागर । समुद्र । गाय जो दान की जाती है। रत्नवती-सञ्चा स्त्री॰ [ ] १ पृथ्वी । भूमि । २ राजा वीरकेतु विशेष-इस दान की गणना महादानो मे की जाती है और इस की कन्या का नाम । प्रकार का दान करनेवाला गोलोक का अधिकारी समझा रत्नवर-सञ्ज्ञा पुं० [ म० ] स्वर्ण । सोना (को०) । जाता है। रत्नवर्प क-सञ्ज्ञा पुं० [ स० ] पुष्पक विमान (फो०] । रत्नध्वज-सज्ञा पुं० [स] एक बोधिसत्व का नाम । रत्नशाला-सञ्ज्ञा स्त्री० [ •] १ रत्नो के रसने का स्थान । २ रत्ननख-सज्ञा पु० [ मै० ] वह कृपाण या छुरी या कटार जिसकी जडाऊ महल, जिसको दीवारो मे रत्न जडे हो । मूठ मे रत्न जडे हो [को०] । रत्नपष्ठी-सज्ञा स्त्री॰ [ स० ] ग्रीष्म ऋतु की एक छ. जिम दिन रत्ननाभ-सञ्ज्ञा पुं० [ सु० ] विष्णु । व्रत रहते हैं [को०] । रत्ननायक-सज्ञा पुं० [सं०] १ खजन पक्षी । ममोला । २ समुद्र । रत्नसभव-सज्ञा पुं० [स० रत्नसम्भव ] १ एक ध्यानी वुद्ध का ३ मेरु पर्वत । ४ विष्णु । नाम । २ एक बोधिमत्व का नाम । रत्ननिधि-सज्ञा पुं० [०] माणिक्य । लाल [को॰] । रत्नसागर-सक्षा पु० [ स० ] समुद्र का वह भाग जहाँ से प्राय रत्नपचक-सञ्चा स्त्री॰ [स० रत्नपञ्चक ] पांच प्रकार के रत्नो का रत्न निकलते हो। समुच्चय जिसमे सोना, चांदी, मोती, राजावर्त और मूगा रत्नसानु-सञ्ज्ञा पु० [ सं०] मुमेरु पर्वत का एक नाम । पाते हैं। -सज्ञा स्त्री॰ [ ] पृथ्वी । रत्नपरीक्षक-सज्ञा पु० [सं०] वह जो रत्नो को परखना जानता रत्ना-सञ्ज्ञा स्त्री० [ सं० ] पुराणानुसार एक नदी का नाम । हो । जौहरी। रत्नाक-सञ्ज्ञा पु० [ स० रत्नाक ] विष्णु को०] । रत्नपर्वत-सज्ञा पुं० [स० ] सुमेरु पर्वत का एक नाम । रत्नाग-सज्ञा पु० [सं० ] रत्नकदल । प्रवाल (को०] । रत्नपाणि-सज्ञा पुं० [सं० ] एक वोधिसत्व का नाम । रत्नाकर-संश पुं० [ स०] १ समुद्र । २ मणियो के निकलने का रत्नपारखी-सज्ञा पु० [हिं० रत्न+पारखी ] रत्नो को पहचानने स्थान। खान । ३ रत्नो का समूह । उ०-रत्नाकर के हैं वाला । जौहरी। दोऊ केशव प्रकाशकर अवर विलास कुवलय हित मानिए । रत्नपारायण-सज्ञा पुं० [सं० ] रत्नो से परिपूरित स्थान । रत्नो की —केशव (शब्द०)। ४ वाल्मीकि मुनि पहले का नाम । खान (को०] । ५ भगवान् बुद्ध का एक नाम । ६. एक बोधिसत का नाम । रत्नपीठ-सज्ञा पुं० [सं० ] तात्रिको के अनुसार एक तीर्थ का नाम । रत्नागिरि-सज्ञा पुं० [सं० रत्नगिरि ] दे० 'रत्नगिरि' । रत्नप्रदीप-सज्ञा पुं॰ [ स० ] ऐसा रत्न जो दीपक के समान प्रकाश रत्नाचल-सञ्ज्ञा पुं० [ स० ] पुराणानुसार रलो का वह ढेर जो मान हो। पहाड के रूप में लगाकर दान किया जाता है और जिसका रत्नप्रभ-सझा पुं० [सं०] एक प्रकार का देवता । दान करने से दाता स्वर्ग का अधिकारी समझा जाता है। रत्नप्रभा-सज्ञा स्त्री॰ [ सं०] १ पृथ्वी। २. जैनो के अनुसार एक रत्नाद्रि-सना पु० [ स० ] एक पर्वत का नाम । रत्नाधिपति-सज्ञा पुं० [ स०] कुवेर । नरक का नाम। रत्नबाहु-सञ्ज्ञा पुं० [सं० ] विष्णु । रत्नाभूपण - सज्ञा पुं॰ [ स०] वह आभूषण या गहना जिसमे रल रत्नमाला-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] १ राजा बलि की कन्या । 'जड हो । जडाक गहना। रत्नावली-सञ्ज्ञा स्वा० । स० ] १. मणियो की श्रेणी या माला। विशेप-वामन भगवान् का देखकर इसके मन में यह कामना हुई थी कि ऐसे बालक को मैं दूध पिलाऊं। इसीलिये यह कृष्णा- २ एक रागिनी जा शास्त्रो मे दीपफ राग की पुत्रवधू कही गई है। ३ एक अथोलकार जिसम प्रस्तुत मर्थ निकलन के वतार मे पूतना हुई थी। श्रातारक्त ठाक क्रम स कुछ और वस्तुसमूह के नाम भी २ मणियो की माला या हार । निकलते हैं। जैस,-पादित सोम कही कबहूँ, कवहूं कही रत्नमाली-सञ्ज्ञा पुं० [ स० रत्नमालिन् ] पुराणानुसार एक प्रकार के मगल औ बुध होते । ४. एक प्रकार का हार । मोतियो का हार । ५ श्राहक्ष राचत एक नाटिका । रत्नमुकट-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व का नाम । रत्नोचमा-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ सं० ] तात्रिका का एक देवो का नाम । रत्नमुख्य-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] वज । होरा [को॰] । रत्नाल्का-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स०] तात्रिका के अनुसार एक देवी का नाम । देवता ।