पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/३८०

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co रसेस रसौल उपयोग से व्याविनाश, जीवनदान और खेचरत्वादि माना है । रसोत-सा रसी० [ म० रसवत्ता ] रसमयता । रस उक्तता। इनके दर्शन और स्पर्श मे महापुण्य बतलाया है और कहा गया रसोत-सका सी० [हिं० ] द० 'रसात'। है कि शरीर का प्रारोग्य होना परमावश्यक है, क्योक शरीर रसोत्तम-सा पु० [ स०] १ दूध । २ दुग्ध । २ पारा। पारद । के बिना पुरुपार्थ नहीं हो सकता, और पुत्पार्थ के बिना मोक्ष ३ मुद्ग । मूग की प्राप्ति असभव है। रसादर- म.। पुं० [ म० ] रिगुल । सिंगरफ। ३ एक रसौषध जो पारे, गवक, हरताल और सोने आदि के योग रसोद्भव-सजा पु० [स] १. शिगरफ। ईंगुर । एक प्रोपप । से तैयार होती है। २. रसौत । २. मुक्ता । मातो (को०) । रसेसर--सा पु० [ स० रसेश ] १. रसिक शिरोमणि, श्रीकृष्ण । रसोद्भूत--सञ्ज्ञा पुं० [ ] रतौत । २ नमक । लवण । उ०-रुचिर रूप जल मा रसेस है मिलि न रसोन-सज्ञा पुं० [ स० ] लसुन । फिरन की बात चलाई।—तुलसी (शब्द०)। रसोपल-सशा पुं० [ स० ] मोती। रससर. सशा पुं० [ स० रसेश्वर, रसेश पारा । रसाया-सज्ञा जी० [हिं० रसाई ] रनोई। भोजन । उ.-भा रसोइया-सा पुं० [हिं० रसोई +इया (प्रत्य ) | रसोई बनाने आयजु बम राज घर वेगहि करा रसाय । —जायसी (शब्द॰) । वाता। भोजन बनानेवाला । रसोईदार | सूपकार । रसौत- 1-सा बी० [हिं० रसौत ] दे॰ 'रसौत' । रसोई, रसोइ --सज्ञा स्त्री० [हिं० रस +ोई (प्रत्य॰)] १ पका रसौत - सज्ञा पी० [ स० रसाभूत ] एक प्रकार का प्रनिद्ध औपच । हुआ खाद्य पदार्थ । वना हुआ भोजन । विशेप-यह दान्हल्दी का जड और लकड़ी का पानी में घोटाकर, यौ०- कच्ची रसोई = दाल, मात, रोटी आदि भोजन जो घी और उसमे म निकले हुए रन का गाढा करके तैयार की जाती या दूध मे नही पकते और जो हिंदू लोग चौके के बाहर या है। इसके लिये पहले दारहल्दी का काढ़ा तैयार करते है किसी दूसरे के हाथ की बनी हुई नही खाते । सखरी । तब उसम उसके परावर हो गौ या यवरो का दूध डालकर पक्की रसाई = पूरी, पकवान, सीर आदि धो या दूध मे पकी दोनो का पकाकर बहुत गाटा अवलह तैयार करत है। यही चीजें जो चौके के बाहर और अन्य द्विजा के हाथ की भी अवलेह जमकर बाजारा म रमौत क नाम से विकता है। खाई जा सकती है। निखरी । रसौत कालापन लिए भूरे रंग की होती है और पानी मे सहज मे घुल जाती है । इसका स्वाद कड़वा होता है और मुहा०-रसोई चढ़ना = भोजन पकना । खाना बनना । रसोई इममे से एक विलक्षण गध निकलता ह, जा प्रफीम को गय तपना = भोजन पकाना । साना बनाना । उ०—(क) जो पुरुषा- से कुछ मिलती जुलती हाती है। इसका व्यवहार प्राय भाखा पथ ते कहूं सपति मिलति रहीम । पेट लागि वैराट घर तपत पर लगाने और घावों का विकार दूर करन मे होता है। रसोई भीम । -रहीम (शब्द०)। उ०—यह गिरवर कावराय वंद्यको यह चरपरी, गरम, रमाया, कवा, शातल, तीक्ष्ण, आपकी तप रसोई । —गिरिधर (शब्द०)। शुक्रजनक, नयो के लये अत्यत हितकारी तथा कफ, विप, क्रि० प्र०—करना । जीमना ।—पकाना। -बनाना, आदि । रक्तापत्त वमन, हिचका, वास और मुवराग का दूर करन- २ वह स्थान जहाँ भोजन बनता हो। चौका । पाकशाला । वाली मानी गई। उ.- जसुमति चली रसाई भीतर तबहिं ग्वालि इक छोकी । पर्या-रलगर्भ। तार्यशल । रसोद्भूत । रसाग्रज । कृतक । —सूर (शब्द०)। बालभैपज्य । रसराज । अग्निसार । रतनाभि । रसोईखाना-सव -सज्ञा पुं० [हिं० रसोई + फा० खानह, ] 'रसोईघर' । रसौता-मला पुं० [ स० रसोती ] दे० 'रमोती' । रसोईघर-सशा पु० [हिं० रसोई+घर ] वह स्थान जहाँ भोजन रसौती-मज्ञा सी० [PN०] धान को वह बोप्राई जिसमे पेन जोतकर पाया जाता हो। खाना बनाने की जगह । पाकशाला। वर्षा होने से पहले ही बीज डाल दिया जाता है। रसौर-सभा पु० [हि० रस और<प्रावर (प्रत्य॰)] रमियाउर । रसोईदार -सहा पुं० [हिं० रसोई + फा० दार (प्रत्य० ] [स्त्री ऊख के रस में पके हुए चावल । रसोईदारिन ] वह जो रसोई बनाने के काम पर नियुक्त हो । रसौल-संग सी० [८.०] एक प्रकार की बहुत कटीली लता । एला । भोजन बनानेवाला। रसोइया । विशप-यह सीरी और बहराइच जगतो मे बहुत अधिकता से रसोइदारो-सज्ञा स्त्री० [हिं० रसोईदार+ ई (प्रत्य॰)] १ रसाई हाती है और दक्षिण भारत, बगाल, तथा वरमा मे भी पाई करने का काम। भाजन बनाने का काम। २ रसोईदार जाती है । यह गरमो के दिना मे फूलको मोर जादे में फलती है का पद। इनकी पत्तियां और फलियां प्रापधि प में भी काम आती है रसोईवरदार-सज्ञा पुं० [हिं० रसोई + फा० घरदार ] भोजन ले और उनसे चमज भी सिझाया जाता है। इनकी पत्तियां सट्टी जानवाला । भोजनवाहक । हाती है, इसलिये उनको चटनी भी बनाई जाती है। चौका।