४१४६ रागप्रसव और इमी प्रवृत्ति का नाम उन्होने राग रखा है। इसका मून रागिनियाँ शोर सोमेश्वर धादि के मत मे छह छह रागिनियाँ आवद्या और परिणाम क्लेश है। है । इस अतिम मत के अनुसार प्रत्येक राग के पाठ पाठ पुत्र २ क्लेग । कष्ट । पीडा । तकलीफ । ३. मत्सर । ईर्ष्या । द्वेप । ४ तथा पाठ पाठ पुत्रवधु भी । (विशेष दे० 'रागिनी'-४) । यदि अनुराग । प्रेम । प्रीति । उ०—पो जन जगत जहाज है, जाके वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो राग और गगिनी मे काई राग न द्वष।- तुलती (शब्द०)। ५ चदन, कपूर, कस्तूरी अतर नहीं है । जो कुछ अतर है, वह केवन कल्पित है। हाँ, प्रा.ि से बना हुआ प्रग में लगाने का सुगधित लेप। अगराग । रागो मे रागिनियो की अपेक्षा कुछ विगेपता और प्रधानता उल-कौन कर होरी कोई गोरी नमुझावै कहा, नागरी को अवश्य होती है और रागनियो उनकी छाया से युक्त जान पटती राग लाग्यो विप सो विराग सो। कहर सी केसर कपूर लाग्यो है। प्रत हम गगनियो नारगो के अवातर भेद वह सपने काल सम गाज सो गुलाव लाग्यो अरगजा आग हैं । इस के सिवा और भी बहुत ने राग हैं, जो कई रागों की ता। -पद्माकर (शब्द०)। ६ एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक छाया पर अथवा मेल स बनते हैं और 'सकर राग' कहलात है। वरण मे १३ अक्षर (र, ज, र, ज और ग ) होते रागो को उत्पत्ति के सबध मे लोगो का विश्वास है कि ७. रग, विशेपत लाल रंग । जैसे,-लाख श्रादि जिम प्रकार श्रीगण की वशी के मात छेदों में से सत स्वर का । ८ मन प्रसन्न करने की क्रिया । रजन । ६ राजा । १० निकले हैं, उमी प्रकार यीण जी की १६०८ गोपिकानो के सूर्य । ११ चद्रमा । १२ पैर में लगाने का अलता। १३ गाने मे १६०८ प्रकार के राग उत्पन्न हुए थे, और उन्हीं में से सगीत मे पहज श्रादि स्वरो, उनके वों और अगो से युक्त वह वचते बचते अत में केवल छह राग और उनकी ३० या ३६ ध्वनि जो किसी विशिष्ट ताल मे बैठाई हुई हो और जो रागिनिया रह गई। कुछ लोगा का यह भी मत है कि महादेव जी मनोरजन के लिये गाई जाती हो। किमी खास धुन में बैठाए फै पाच मुग्वा ने पाच राग (श्री, वमत, भैरव, पचम और मेघ) हुए स्वर जिनके उच्चारण से गान होता हा । निकले हैं और पार्वती के मुग से छठा नटनारायण गग विशेष-सगीत शास्त्र के भारतीय प्राचार्यों ने छह, राग माने है, निकला है। परतु इन रागो के नामो के सवव मे बहुत मतभेद है । भरत मुहा०-थपना राग अलापना = अपनी ही बात कहना । अपना और हनुमत के मत से ये छह राग इस प्रकार है-भैरव, ही विचार प्रकट करना, दूसरे की बातो पर ध्यान न देना। कौशिक ( मालकोस ), हिंडोल, दीपक, श्री और मेघ । सोमेश्वर रागखाडव-सज्ञा पुं० [सं० रागखाण्डव दे० 'रागपाडव' । और ब्रह्मा के मत से इन छह रागो के नाम इस प्रकार हैं रागखाडव-सा पुं० [म.] एक प्रकार का खाद्यपदार्थ। दे० 'रागपाडव'। श्री, वसत, पचम, भैरव, मेघ और नटनागयण । नारद- सहिता का मत है कि मालव, मल्लार, श्री, वसत, हिंडोल और रागचूर्ण-नश पु० [म०] १ कामदेव । २ खर का पेड । ३ लाख । कर्णाट ये छह राग हैं। परतु अाजकल पाय ब्रह्मा और लाह (को०) । ४ अवीर । गुलाल (को०) । सोमेश्वर का मत ही अधिक प्रचलित है। स्वरभेद स राग रागच्छन्न-महा पु० [म०] १ कामदेव । २ रामचद्र । तीन प्रकार के कहे गए हैं-(१) सपूर्ण, जिसमे सातो स्वर रागदा-सशा सी० [म०] स्फटिक । सित मणि (को०] । रागदालि-सझा सी० [स०] गसूर (को॰] । लगते हो, (२) पाडव, जिसमें केवल छह स्वर लगते हा और कोई एक स्वर वजित हो, और (३) प्रोडव, जिसमे केवल पांच रागद्रव्य-सशा पुं० [म.] रंगन का सामान । रग [को॰] । स्वर लगते हो और दो स्वर वजित हो । मतग के मत से रागो रागदृश् - मज्ञा पुं० [सं०] माणिक्य । लाल [को०) । रागना।—क्रि० अ० [स० राग + हिं० ना (प्रत्य॰)] १ अनुराग के ये तीन भेद हैं-(१) शुद्ध, जो शास्त्रीय नियम तथा विधान करना। अरक्त हाना। २ रंग जाना। राजत होना। ३ के अनुसार हो और जिसमे किसी दूसरे राग की छाया न हो, निमग्न हो जाना। उ०-सोमक स्याम करन रस रागि। (२) सालक या छायालग, जिसमे किसी दूसरे राग की छाया भी -गोपाल (शब्द०)। दिवाई देती हो, अयवा जो दो रागो के योग से बना हो, रागना-क्रि० स० [स० राग] गाना । अलापना । उ०—(क) या श्रीर (३) सकीर्ण, जो कई रागो के योग से बना हो। सकीर्ण अनुराग की फाग लखो जहं रागती राग किशोर किणारी।- को 'सकर राग' भी कहते है। ऊपर जिन छह रागो के नाम पाकर (गन्द०)। (ख) पंधी लबित सतलरी पुही प्रेम रंग वतलाए गए हैं, उनमे से प्रत्येक राग का एक निश्चित सरगम ताग । मनी विपची काम की रागति पचम राग।-गुमान या स्वरक्रम है, उसका एक विशिष्ट स्वरूप माना गया है, (शब्द०)। (ग) गहि कर वीन प्रवीन तिय राग्यो राग मलार ।- उसके लिये एक विशिष्ट ऋतु, समय और पहर आदि निश्चित बिहारी (शब्द०)। हैं, उसके लिये कुछ रस नियत हैं, तथा अनेक ऐसी बातें भी रागपट्ट-सञ्ज्ञा ॰ [स०] एक प्रकार का बहुमूल्य पत्थर [को०। कही गई हैं, जिनमे से अधिकाश केवल कल्पित ही हैं। जैसे, रागपुष्प-सज्ञा पुं० [स०] वधुजीव नामक पुष्प या उसका पौधा । माना गया है कि अमुक राग का अमुक द्वीप या वर्प पर गुलदुपहरिया। अधिकार है, उसका अधिपति अमुक ग्रह है, आदि । इसके रागपुष्पी--सज्ञा स्री[सं०] जवा । अतिरिक्त भरत और हनुमत के मत से प्रत्येक राग की पांच पांच रागप्रसव-सञ्चा पुं० [ स० दे० 'रागपुष्प' को।
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