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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/४०१

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राटिर रातिष ao राटि-सहा सी० एक प्रकार का पक्षी । प्राडी। रेघनी चिरई। राटुल-सज्ञा पुं० [अ० रतल (= एक तौल ) ] वह वडा तराजू जो लट्ठा गाडकर लटकाया जाता है और जिसमे लोहा, लकडी इत्यादि मनो को तोल से तोली जाती है। राठ- ससा पु० [स. राष्ट्र ] १ राज्य । २ राजा। राठवर-सज्ञा पु० [हिं० राठौर ] दे० 'राठौर' । राठौर-सचा पुं० [सं० राष्ट्रकूट ] १ दक्षिण भारत का एक प्रसिद्ध राजवश । २ राजपूतो की एक उपजाति । राड-वि० [ स० राष्टि, प्रा० गडि ] १ दुष्ट । जड। उ०—(क) लखि गयद ले चलत भजि स्वान सुखानो हाड । गज गुन, मोल, अहार, वल महिमा जान को राड ।-तुलसी ग्र०, पृ० १३४ । २ नीच । निकम्मा । उ० (क) कागा करंक ढंढोरिया मूठिक रहिया हाड । जिस पिंजर विरहा वर्म मांस कहा रे राड । कबीर (शब्द०)। (ग) विष्ठा का चौका दिया हाँडी सीझ हाड, छूति बचाव चाम की तिनहू का गुरु राड ।- वीर (शब्द०)। (घ) रावन राड के हाड गर्दैग । –तुलमी (शब्द॰) । २ कायर । भगोडा । यौ०-राड रोर। रोड़ा-सया पुं० [देश॰] सरसो । सर्पप । राढ–वि० [हिं० राड ] दे॰ 'राड' । उ०—तुलसी तेरी भलाई अजहू बूझ । राढ़उ राउत होत फिरि के जूझ । —तुलसी ग्र०, पृ०५४६॥ यौ० -राढ़ रोर । उ०-ऐसेउ साहव की सेवा सो होत चोर रे। आपनी ना बूझि ना कहे को राढ़ रोर रे । तुलसी ग्र०, पृ०४६६। राढ़ा '-सचा स्त्री॰ [सं० राटि (= लहाई) ] रार । झगडा । उ०- उन्हीं के किए सब धंधा गदा हुआ। वह देती तो यह राढ़ क्यो बढ़ती। दुर्गाप्रसाद मिश्र (शब्द॰) । राढो-सशा पुं० [ स० राढि ] वग देश के उत्तर भाग का पुराना नाम। राढा-सज्ञा स्त्री० एक प्रकार की कपास । राढा-सञ्चा स्त्री० [सं० राढा ] १ काति । दीप्ति । २ शोभा । विशेष- इस शब्द का प्रयोग राजपूताने की उदयपुर आदि कुछ विशेप रियासनो के राजाओ के लिये होता है। नेपाल के सरदार भी राणा कहलाते हैं। राणिका-मज्ञा स्त्री० [सं० ] लगाम । वल्गा [को०] । रातग-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० ] गीध । गिद्ध । रातती-सञ्ज्ञा सी० [ स० रातन्ती ] पोप शक्ल चतुर्दशी को होनेवाला एक त्योहार [को०] । रात'-सज्ञा स्त्री॰ [सं० रात्रि ] समय का वह भाग जिसमें सूर्य का प्रकाश हम तक नहीं पहुंचता। सध्या से प्रात काल तक का समय । दिन का उलटा । पर्या o-रजनी । निशा । शर्वरी । निशि । विभावरी । मुहा०—रात दिन = सर्वदा । सदा । हमेशा। यौ -रातराजा = उल्लू । रातरानी = एक पौवा सौर उसका फून जो रात मे फूलता है। रजनीगधा। रात-वि० ] प्रदत्त । दिया हुआ [को०] । रोत–वि० [सं० रक्त ] लाल । रक्त वर्ण का । उ०—कंवल चरन अति रात विसेखे। रहहिं पाट पर पुहुमि न देखे । —जायसी ग्र ० ( गुप्त० ), पृ० १६६ । रातड़ी, रातरीमन्ना स्त्री० [सं० रात्रि ] रात । उ०—राम सनेही कारने रोय रोय रातडियाँ ।-कवीर (शब्द०)। रातना-क्रि० अ० [स० रक्त, प्रा० रत्त + हिं० ना (प्रत्य॰)] १ लाल रग से रंग जाना । लाल हो जाना । २ रंग जाना । रगीन होना । उ०-रंग राते बहु चीर अमोला ।—जायसी (शब्द॰) । ३ अनुरक्त होना । आशिक होना । उ०—(क) जाहि जो भज सो ताहि रात। कोउ कछु कहे सब निरस वातै । -सूर (शब्द॰) । (ख) रँग राती राते हिये प्रीतम लिखी बनाय । पाती काती बिरह की छाती रही लगाय |-विहारी (शब्द०)। (ग) जिन कर मन इन सन नहिं राता। तिन जग वचित किए विधाता । तुलसी (शब्द०)। राता 2- [सं० रक्त, प्रा० रत्त] [वि० स्त्री० राती] १ लाल | सुर्ख । उ०—(क) वन बाटनि पिक वटपरा तकि विरहिन मन मैन ।- कुही कुही कहि कहि उठ करि करि राते नैन ।-विहारी (शब्द०)। (ख) भृकुटी फुटिल नैन रिस राते । -तुलसी (शब्द० । २ रंगा हृया। राति-सञ्ज्ञा स्त्री० [हि० रात] दे० 'रात' । उ०--रातिहिं घाट घाट की तरनी। आई अग,नेत जाहि न बरनी।—मानस, २।२२० । राति-वि० [स०] १ उदार । २ सनद्ध । तैयार [को॰] । राति'-सञ्चा पुं० १ मित्र । अराति का विलोम । २ उपहार । उपा- यन । ३ धन । सपत्ति किो०] । रातिचर-सञ्ज्ञा पु० [हिं० राति + सं० चर] निणिचर । राक्षम | उ०-मारे रन रातिचर रावन सकुल दल अनुकूल देव मुनि फूल वरपतु हैं।-तुलसी ग्र०, पृ० १६७ । रातिव-सज्ञा पुं० [अ०] १ पशुप्रो का दैनिक भोजन । २. हा गया प्रादि का खाना। छवि। रोदा -वि॰ [ स० राटि ] १ झगडालू । जिद्दी । २ नासमझ। मूर्स । राढि-सज्ञा पु० [ स० राढि ] वा देश के उत्तरी भाग का नाम । उ.-खेलत जीत्यो जिन राढि देश । —कर्पूरमजरी (शब्द॰) । -मश सी० [ देश० ] १ एक प्रकार की मोटी घाम । २ एक प्रकार का प्राम। राण-सपा पुं० [ से० ] १ पत्ता। दल । २ मोरपख । मोर की पूंछ [को०] । राणा - पुं० [ म० राट् या राजान , प्रा०राश्राणो, हिं० राणा या राज्ञी = 'राणी' का पुल्लिगीकृत राखा] [स्त्री॰ राणा] राजा । रादी-