पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/४४

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मरीच ३८०३ udby 1 70 1 । HO इमसे ताडी निकाली जाती है जिसे लोग पीते है और जिससे मरीचिप-वि० [ म० प्रकाश कणो का पान करनेवाले (बालखि- गुड भी बनाते हैं । इसकी कोमल बालो या मजरी की तरकारी ऋपि)। वनाई जाती है। इसके पुराने स्कय मे के गूदे से मागूदाना मरीचिमान-वि०, मन्ना पु० [ म० मरीचिमत् ] > 'मरीचिमाली' निकलता है जो पानी मे पकाकर खाया जाता है या पीसकर मरीचिमाली'-वि० [ स० मरीचिमालिन् ] | वि० स्त्री० मरी जिसकी रोटियां बनाई जाती है, और रेशे से कूची, ब्रुण, रस्सी मालिनी ] किरणयुक्त । ज्योतिर्मय । चमकना हुया [को०] । और जाल बनाए जाते हैं। इसकी लकडी मजबूत और टिकाऊ मरीचिमालो'-सज्ञा पु० मूर्य । होती है । इसे भेरवा भी कहते है। मरीची'-वि० [ म० मरीचिन् ] [ नि० पी० मरीचिनी ] किरण मरीच'-सञ्ज्ञा पुं० [ मं० ] दे॰ 'मरिच', 'मिरिच' [को०) । युक्त । जिसमे किरणें हो मरीच-सज्ञा पु० [सं० मारीच ] 'भारीच' । उ०—कचन मरीची-सञ्ज्ञा पुं० १ सूर्य । २ चद्रमा । मृग रूप मरीच कियो, सीता मुख पागल नीसरियो।-रघु० मरीज वि० [ अ० मरीज़ ] रोगी। रोगग्रस्त । बीमार । रू०, पृ० १३३ । मरीचि'-सज्ञा पुं॰ [ स०] १ एक ऋषि का नाम । मरीजा-मशा स्त्री॰ [अ० मरीजह, ] बीमार स्त्री । रोगिणी [को०] । मरीना-सज्ञा पुं० [ स्पेनी० मेरिनो ] एक प्रकार का बहुत मुलायम विशेष-पुराणो मे इन्हे ब्रह्मा का मानसिक पुत्र लिखा है, एक ऊनी पतला कपडा जो मरीनो नामक भेड के ऊन से बनता है प्रजापति माना है और सप्तर्पियो मे गिनाया गया है । किसी किसी पुराण में इनकी स्त्री का नाम 'कला' और किसी किसी ममंडा-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स० मरुण्डा ] उच्च ललाटवाली स्त्री [को०] । मे 'सभूति' लिखा है। मरु'-सज्ञा पुं० 1 ] १. वह भूमि जहाँ जल न हो और केवल २ एक मरुत् का नाम । एक ऋपि का नाम जो भृगु के पुत्र बलुग्रा मैदान हो। मरुस्थल । निर्जल स्थान । रेगिस्तान और कश्यप के पिता थे। ४ दनु के एक पुत्र का नाम । ५ मरुभूमि । २ वह पर्वत जिममे जल का अभाव हो। ३ मारवाड और उसके प्रामपाम के देश का नाम । ४ मरुया प्रियव्रतवशी एक राजा का नाम । ६ एक प्राचीन मान जा नामक पौवा । ५ एक मूर्यवंशी राजा का नाम । ६ नरकासुर छह प्रसरेणु के बराबर होता है। ७ एक दैत्य का नाम । ८. कृष्ण का एक नाम (को०)। ६ एक पुरातन स्मृतिकार के एक सहचर असुर का नाम । ७ कुरवक नामक पीया । का नाम (को०) । १० कृपण । कदर्य (को॰) । मरु-वि० [स० मेर या हिं० मरना ] कठिन । दुरुह । दे० 'मरू' । उ०—करप ममान रैन तेहिं वाढी। तिल तिल मरु मरीचि'-सचा स्त्री॰ [ स०] १ किरण। उ०—(क) अति मुकुमारी जुग जुग पर गाढी । —जायसी (शब्द०)। वृपभान की दुलारी सो कैसे सहै प्यारी मरीचे मारतड की ।- सरलाबाई (शब्द०)। (ख) कित्ति सुधा दिग भित्त पखारत मरुअटि-संक्षा स्त्री॰ [ दश० ] वे रोली के टीके जो हल्दी चढ़ जाने चद मरीचिन को करि कूचो।-मतिराम (शब्द०)। (ग) के बाद मुंह पर लगाए जाते हैं । उ०-भूग्रा भेना कर प्रारती, रघुनाथ पिय बस करिवे को चली बाल मुख को मरीचि जल मांचे मरुटि लगवामे, ऊपर चामर चुपटांमे ।-पोद्दार अभि० दिसि मढि के लई । --रघुनाथ (शब्द०) । २ प्रभा । काति । ग्रं॰, पृ० ६३५॥ ज्योति । उ०—कीधी मृगलोचन मरीचिका मरीचि किधों रूप मरुआ-सञ्ज्ञा पुं० [स० मरुख ] बनतुलसी या बवरी की जाति के की रुचिर रुचि शुचि सो दुराई है। केशव (शब्द०)। ३ एक पौधे का नाम । नागवेल । नादबोई। उ०—अति व्याकुन मरीचिका । मृगतृष्णा । उ०-बीच मरीचिनु के मृग लौ अब भइ गोपिका हूंढत गिरिधारी। बूझति है वनवेलि सो देवे धावै न रे सुन काहू नरिंद के । देव (शब्द०)। बनवारी। बूझा मरुमा कुद मौ कहे गोद पमारी। बकुल मरीचिका-सज्ञा स्त्री० [ स०] १ मृगतृष्णा । सिरोह । २ किरण । बहुल बट कदम पै ठाढी ब्रजनारी।—सूर (शब्द॰) । विशेष-यह पौधा वागो मे लगाया जाता है। इसकी पत्तिया उ०-वारिज बरत बिन वारे वारि चारु वीच बीच बीच वीचिका ववरी की पत्तियो से कुछ वडी, नुकीली, मोटी, नरम और मरीचिका मी छहरी।—देव (शब्द०)। (ख) चहचही सेज चिकनी होती हैं जिनमे से उग्र मय प्राती है। इसक दल चहूं चहक चमेलिन सो, वेलिन सो मजु मजु गुजन मलिंद देवताओ पर चढाए जाने है। इसका पेड डढ दो हाथ ऊचा जाल । तैसेई मरीचिका दरीचिन के दीवे ही में, छपा की होता है और इसकी फुनगी पर कार्तिक अगहन मे तु नसी की छबीली छबि छहरत तत्काल ।-देव (शब्द०)। भांति मजरो निकलती है जिसमे नन्ह नन्द सफेद फूल लगत है । मरीचिगर्भ '-सज्ञा पुं० [ स०] १. सूर्य । २ दक्षसावरिण मन्वतर फूलो के झड जाने पर बीजो से भरे हुए छोटे छोटे वागकोश मे होनेवाले एक प्रकार के देवताओ का गण । निकल आत हैं जिनमे से पक्न पर बहुत वीज निकलते हैं। मरोचिगर्भ-वि० प्रकाशकणो से युक्त (को०] । ये बीज पानी में पहन पर ईसबगोल की तरह फूल जाते हैं। मरोचिजल-सज्ञा पुं० [सं०] मृगतृष्णा । यह पौधा बोजो से उगता है, पर यदि इसको कोमल टहनी मरीचितोय-मशा पुं० [स०] मृगतृष्णा । या फुनगी लगाई जाय तो वह भी लग जाती है। रग के भेद