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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/५६६

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भिल्ली। लोवरा। HO लोथड़ा ४३२५ लोनहरामी भूरि भूतन मैं टांगे चद्रायतन लोथै लटकत हैं।-भूपण विशेप-इसके दो भेद होते हैं-श्वेत लोध और रक्त लोध । यह (शब्द०)। कसला, ठढा और वात, पित्त नाशक माना जाता है। विशेप मुहा०-लोय गिरना = मारा जाना। लोथ डालना =मार दे० 'लोव' । गिगना । प्राणाद करना । हत्या करना। लोथपोथ होना पर्या०—तिल्बक । गालव । शावर । तिर्राट । तिल्वक्र । मार्जन । थकने मे चूर होना । अत्यत शिथिल होना । लथपथ होना । भिल्लतरु | काडकीलक । शवर । काडनीलक । हेमपुष्पक । लोथडा-संज्ञा पुं० [हिं० लोथ + डा] मास का वडा खड जिसमे हड्डी २ एक जाति का नाम । न हो। मासपिंड। लोध्र- लोयरा-सज्ञा पुं० [हिं० लोथडा ] दे० 'लोथडा' । -सशा पु० [ स० लोध्र, हिं० लोवरा | जानी तावा । लोथारी-सज्ञा स्त्री॰ [ म० लुण्ठन ] १ कम पानी मे मे नाव को लोध्रक-सश' पु० [ ] दे० 'लोध्र' । खीचते या धीरे वीरे खेते हुए किनारे लगाना। २ लोथारी लगर डालकर पानी की तह का पता लेते हुए मार्ग मे किनारे यौ०--लोध्रकवृक्ष = लोच का पेड । की अोर नाव वढाना । (लश०) । लोध्रतिलक-सज्ञा पुं॰ [ स० ] एक प्रकार का अलकार जो उपमा का एक भेद माना जाता है। यौ०-लोथारी लगर । लोध्ररेणु-स -सज्ञा पुं० [ स० ] लोन के फूल का चूर्ण जिसका अगराग मुहा०-लोयारी हालना = लोथारी लगर को थोडे पानी मे की तरह उपयोग होता था। टानकर तल की थाह लेते हुए नाव को किनारे लगाना । लोन-सज्ञा पुं० [ म० लवण या लोण ] १ लवण । नमक । लोथारी तानना = ठीक अोर नाव जाने के योग्य मार्ग से होकर मुहा०--किसी का लोन खाना = अन्न खाना । पाला जाना । दास नाव को किनारे ले जाना। होना। उ०--पाछे कहो लकापति सुनो हनुमान कपि रामचद्र लोथारी लगर-सज्ञा पु० [हिं० लोधारी+लगर] सबसे छोटा लगर । ही को एक तही लोन खायो है । -हनुमन्नाटक (शब्द०)। किसी विशेष-यह उम जगह डाला जाता है, जहा पानी कम होता है का लोन निकलना = निमकहरामी का फल मिलना । अकृतज्ञता और यह जानना अभिप्रन होता है कि यह किनारे जाने का मार्ग का फल पाना । उ०—ताते मन पोखियत घोर वरतोर है या नहीं। मिसि फूटि फूटि निकपत है लोन राम राय को ।-तुलसी लोट-सज्ञा सी० म० लोध ] दे० 'लोच' । (शब्द०)। किसी का लोन न मानना = किसी का उपकार न लोदी-स -सगा पुं० [फा०] पठानो की एक जाति (को०] । मानना । कृतघ्न होना । उ.-नैनन को अब नाहिं पत्या। बहुर्यो उनको बोलति हो तुम हाइ हाइ लीज नहिं नाऊं। लोध-मा सी० [ म० लोध्र, लोध ] १ एक प्रकार का वृक्ष जो अब उनको मैं नाहिं बसाक मेरे उनको नाही ठाऊँ । व्याकुल भारतवर्ष के जगतो में उत्पन्न होता है । भई डोलत ही ऐसेहि वे जहँ हैं महाँ नहिं जाऊँ । खाइ खवाइ विशप-इस वृक्ष की छाल रंगने, चमडा मिझाने और पोषधियो बडे जब कीन्हे बसे जाइ अब मौरहि गाऊं। अपनो क्यिो श्राप में काम आती है। छाल को गरम पानी में भिगो देने से पीला पावैगे मैं काहे उनको पछिनाऊँ। जैसे लोन हमारो मान्यो कहा रंग निकलता है। कही कही इसकी छाल पानी मे उबालकर कहाँ कहि काहि सुनाऊ । सूरदास मैं इन बिन रहिही कृपा करें भी रग निकाला जाता है। छाल को सजी मिट्टी के साथ पानी उनको मरमाऊ।-सूर (शब्द०)। जले पर लोन लगाना या मे उबारने से लाल रग निकलता है, जिससे छीट छापते हैं । देना = दुख पर दुख देना । दुखी को दुखी करना । उ०--प्रति वैचर मे इसकी छाल और लकडी दोनो का प्रयोग होता है। कटु वचन कहै कैकेई । मानो लोन जले पर देई ।--तुलसी इसकी छाल कुछ कमैली होती है और पेचिश प्रादि पेट के कई (शब्द०) । किसी बात का लोन सा लगना = अरुचिकर होता। रोगा मे दी जाती है । इसका गुण ठढा है और २० ग्रेन तक अप्रिय होना। उ०--राज लोन सुनाव लागहु हूँ जस लोन । इसकी मात्रा है । इसक काढे का भी प्रयोग किया जाता है। आइ कुँहाइ महिर कहँ सिंह जान प्रो गौन । —जायसी लोव की लकडी के काढे से कुल्ला करने से मसूढे से रक्त निक- (शब्द०)। लोन चराना = नमकीन बनाना । जैसे,—ग्राम को लना जाता रहता है और वह दृढ़ हो जाता है। इसकी लफडी लोन चराना। जल्दी फट जाती है, पर मजबूत होती है और कई तरह के काम २ मांदर्य । लावण्य । उ०—जो उन महं देखेसि इक दासी । देखि मे लाई जाती है। लोन होय लोन विलासी ।-जायमी ( शब्द०)। विशेष २ एक जाति का नाम । दे० 'नमक। लोधरा- सञ्ज्ञा पुं० [ स० लोन ] एक प्रकार का तांवा जो जापान से लोनहरामो-वि० [हिं० लोन + अ० हरामी ] कृतघ्न । नमक- प्राता है। हराम । उ०-मन भयो ढीठ इनहिं के कीन्हे ऐसे लोन- लोधी-मशा [ फा० लोदी ] पठानो की एक जाति । हरामी । सूरदाम प्रभु इनहि पत्याने आखिर बडे निकामी ।- लोध'-सद्या पुं० [ स०] १ लोध नामक वृक्ष । सूर (शब्द०)।