पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/७८

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महर' ३८५७ महरी महर.-'वि० [ फा० मेहर (= दया) ] दयावान् । दयालु ।(हिं०) । पृ० २७४ । ३ श्वसुर के लिये अादरसुचक शब्द । (चमार) । महर'-सज्ञा पु० [अ०] १ मुसलमानो मे वह मपत्ति या धन जो ४ सरदार । नायक । उ०-~-दसर्व दांव के गा जा दसहरा । विवाह के समय वर को प्रोर से कन्या को देना निश्चित पलटा सोइ नाव लेइ महरा ।—जायसी (शब्द॰) । ५. होता है। दे० मेहरा'। मुहा०—महर वख्शवाना = महर के लिये निश्चित किए गए धन महरा-वि० प्रधान । श्रेष्ठ । वडा। को पत्नी से कह सुनकर पति द्वारा माफ कराना । महर महराई-सज्ञा स्त्री० [हिं० महर + श्राई (प्रत्य॰)] प्रधानता । बांधना= महर के लिये धन या मपत्ति नियत करना श्रेष्ठता। उ०—कुडल श्रवनन देउं गलाई। महरा को सौपौं महर-मज्ञा स्त्री॰ [फा० मेहर ] दया । वृपा। उ०—किकरि महराई । —जायसी (शब्द॰) । ऊपर मह कर, मकर मेट संदेह । -रघु० रू०, पृ०५६ । महराज'-- सज्ञा पु० [हिं०] दे० 'महाराज' । उ०-चलेउ मद्र महराज महर -वि[हिं. महक ] महमहा। सुगधित । उ॰—(क) मह सुभट सिरताज साज सजि । -गोपाल ( शब्द०)। महर घर वाहर राउर देह । लहर लहर छवि तम जिमि, --- सज्ञा पु० हि ] [ स्त्री॰म ६ राजिन ] वह ब्राह्मण जो किमी ज्वलन मनेह । -रहिमन (शब्द॰) । (ख) महर महर कर महराज के घर या मेम मे रसोई बनाता हो । फून नोद नहि अाइल हो । - धरम श०, पृ० ६२ । महरई- मझा स्त्री० [हिं० महाई ] श्रेष्ठता । प्रधानता। उ० महराजा७/- सज्ञा पु० [ हिं० ] दे० 'महाराज' । जी महाराज चाही महरईये, तो नाचौ ए मन बीरा हो। महराण-सज्ञा पुं० [ स० महार्णव ] समुद्र (डि०) । उ०—मनरा --कपीर ग्र०, पृ० ११२ । महराण समापण मोजा, कायण दीना तरणा कुरंद ।-रघु० महरवान-सज्ञा पु० [फा० मेहरवान ] दे० 'मेहरवान' । रू०, पृ०१६। महरम'-सञ्ज्ञा पु० [अ०] १. मुसलमानो मे किमी कन्या या स्त्री महराना'-सज्ञा पुं० [हिं० महर + आना (प्रत्य॰)] महरो के रहने के लिये उसका कोई ऐमा वहुत पास का मधी जिसके माथ का स्थान । महरो के रहने की जगह, महल्ला या गाँव । उ०- उसका विवाह न हो सकता हो। जैसे, पिता, चाचा, नाना, (क)) तुमको लाज होत की हमको बात पर जो कहुं महराने ।- भाई, मामा आदि । मुमलमानी धर्म के अनुसार स्त्रियो को मूर (शब्द॰) । (ख) गोकुल मे आनद होत है मगल ध्वनि केवल ऐसे ही पुरुपो के मामने विना परदे या पूंघट के जाना महराने ढोल । —सूर (शब्द॰) । चाहिए। २ मिन। दोस्त (को०)। ३ भेद का जाननेवाला । रहस्य से परिचित । उ०—दिल का महम कोई न मिलिया महराना-सञ्ज्ञा पु० [हिं० ] [ मी० महरानी ] दे० 'महाराणा'। जो मिलिया सो गरजी। कह कबीर असमानै फाटा क्यो कर महरानी -सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० महारानी ] पटरानी। महारानी। सीव दरजी।-कवीर (शब्द०)। उ० वृदावन राज दुवो साजे सुख के साज। महरानी राधा उतै महाराज ब्रजराज |-स. सप्तक, पृ०, ३४३ । महरम'- सज्ञा स्त्री० १ अगिया का मलकट । अगिया को क्टोरी। २ ग्रगिया। उ.- गए जदपि मुनि मूर तन पन्थर घन महराव-मशा स्त्री॰ [हिं०] २० मेहराव' । उ०—वाट वाट वहु चलाय । व्याप तन जे फूल वे महरम घाले प्राय। रमनिधि द्वार विराजत चामीकर महराव ।-रघुराज (शब्द॰) । (शब्द०)। महराव-सज्ञा पुं॰ [ स० महाराज, प्रा० महाराव ] दे० 'महाराज' । महरमदिली-सज्ञा स्त्री॰ [फा० मेह र + दिली] सदयता। मेवानी। उ.-राणी कहैं सुनो महराव ।-हा० रासो, पृ० ११८ । दयालुता । उ०-मारो कि तारो तुममो अव है कळू न सागे। महरि-सञ्चा ली० [हिं. महर ] १ एक प्रकार का अादरसूचक महमदिली सो दिलवर टुक दीजिए सहारो -व्रज० ग्र०, शब्द जिसका व्यवहार व्रज मे प्रतिष्ठित स्त्रियो के सबध मे पृ०४२। होता है। महरमी-वि० [अ० महरम ] जाननेवाला । जानकार। ज्ञाता। विशेष- कभी कभी इस शब्द का व्यवहार केवल यशोदा के लिये उ०- घाट औ वाट के भेद का महरमी। उसी की नाव पर भी विना उनका नाम लिए हो होता है पाँव दोज । -पलटू॰, भा२, पृ० १ । महरलोक सञ्ज्ञा पु० [सं० महर्लोक ) २० 'महर्लोक' । उ०-सत्यलोक २ गृहस्वामिनी । मालकिन । घरवाली । उ०-बाल बोलि डहिक जनलोक तप और महर निजलोक। सूर (शब्द॰) । विरावत चरित लखि गोपीगन महरि मुदित पुलकित गात ।- महरसीg+-मज्ञा पु० [ स० महर्षि ] ३० 'मर्पि' । उ० - जान तुलसी (शब्द०)। ३ ग्वालिन नामक पक्षी । दहिंगल । उ०- महरसी सत ताहि की निंदा करते ।-पलटू, पृ० ८३ । दही दही कर महरि पुकारा । हारिल विनवइ पापु निहारा ।- जायसी (शब्द०)। महरा'-मज्ञा पुं० [ हिं० महता] [स्त्री० महरी | १ कहार । उ०- सइयाँ, महरा मोर डोलिया फंदावं हो ।-घरम० श०, महरो-सज्ञा स्त्री० [हिं० महर ] ग्वालिन नामक पक्षो। दहिंगल । पृ०७४ । २ नौकर | सेवक । उ०-महरा ने आकर कहा २ दे० 'महरि' । उ०—करे नद जसोदा महरी । पल भर कृष्ण सरकार कोई स्त्री प्रापसे मिलने आई है ।- मान०, भा०, ५, राख ना वहरी । -कवीर सा०, पृ०४४ ।