पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१७

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शिवकोश (वैद्यक), गणितका विशेषकोश रहा है। ये महेश्वर से ये भिन्न है। पर्यायशब्दरत्नाकर के कृत धनजयभट्टाचार्य की 'रामाश्रयी' टीका में प्रत्येक शब्द पाणिनीय व्याकरणानुसारी है। (२३) विश्वमेदिनी--सारस्वत मिश्र का है। (२४) विश्वकवि की व्युत्पत्ति दी गई है । कभी कभी किसी टीका में त्रुटियाँ और कभी कभी कोशवाङमय विश्वप्रसिद्ध है। (२५) १७८६ और १८३३ के बीच बनारस में संस्कृत- प्रयोग भी बताए गए हैं । सब मिलाकर इन टीका पर्यायवाची शब्दों की एक 'ग्लोसरी' एथेनियन' ने अपने एक वाङ्मय का महत्त्वपूर्ण अंग कहा जा सकता है। वस्तुत ये कोशो के पूरक अंग मित्र द्वारा अपने निर्देशन में बनवाये थे । इसमेंं मूल शब्द सप्तमी विभक्ति हैं । इनमे 'उक्त अनुक्त और दुरुक्त' विषयोंं का विचार और विवेचन किये गये थे।अत संस्कृत कोशो के इतिहास में इनको महत्त्व है। आधारहीनता अथवा दोषपूर्ण विनियोग के कारण इनका योगदान हमे कभी नहीं भूलना चाहिए।'बोथलिंंक' का संक्षिप्त शब्दकोश भी अनेकपाली, प्राकृत और अपभ्रंश का कोशवाङ्मय उद्धरणोंं से युक्त है। मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषायों का वाङ्मय भी कोशसे परिपूर्ण है।इनके अलावा क्षेमेंंद्र का लोकप्रकाश, महीप की अनेकार्थमाला । पालि भाषा में अनेक कोश मिलते हैं। इन्हें बौद्धकोश का हरिचरणसेन की पर्यायमुक्तावली, वेणीप्रसाद का पचतत्वप्रकाश,भी कहा गया है। उनकी मुख्य उपयोगिता पालि भापा के वौद्धकार्यतिलक, राघव खाडेकर का फोषितस, ‘महाक्षपणफ की अनेकार्थ- साहित्य के समझाने में थी । उनकी रचना पद्यबद्ध संस्कृतकोश ध्वनिमजरी आदि साधारण शब्दकोष उपलब्ध है। भट्टमल्ल की की अपेक्षा गद्य मय निघुटनो के अधिक समीप है। बहुधा इनका संबंध प्रायातक्षन्दिका । क्रियाकोश), हर्ष का लिंगानुशासन से संबंध रहा है। पालि का महाव्युत्पत्ति कोश २८५ अध्यायोंं शब्दभेदप्रकाश और शिवदत्त वैद्य की शिवकोश (वंद्य क ), गणितीर्थ में लगभग नौ हजार श्लोकों का परिचय देनेवाली है। बौद्ध संप्रदाय नाममाला, नक्षत्र का आदि विशिष्ट कोश है । लौकिक न्याय की सूक्तियों के पारिभाषिक शब्द का अर्थ देने के साथ साथ विपक्षियों, के भी अनेक संग्रह है। इनमें भुवनेश की लौकिकन्यायसाहसी के अलावा वनस्पतियोंं तथा रोगोंं आदि के पर्यायों का इसमें संग्रह है। इसमें लौकिक न्यायसंग्रह, लौकिक न्याय मुक्तावली, लौकिकन्यायकोश आदि लगभग ६००० शब्द, संकलित हैं। दूसरी ओर मुहावरों, नामधातु हैं। दार्शनिक कोश--जिन्हें हम पारिभाषिक कहते के रूपो और वाक्यो के भी संकलन हैं । पाली का दूसरा विशेष महत्त्व है---पाडुलिपि की सूचियों में पाए जाते हैं। पूर्ण कोश अभिधान प्रदीपिका ( अभिधानपदीपिका ) है। यह संस्कृतकोशों की टीका का महत्त्व के अमरकोश की पद्धति पर तथा उसके अनुकरण पर छंदोबद्ध रूप में निर्मित है। 'अमरकोश' के अनेक लोकों का भी इसमें | संस्कृति में टीका, व्याख्या और भाष्य की प्रणाली विशेष महत्व पालिरूपांतरण है। इसी प्रकार भिक्षु सद्धर्मकीति के एकाक्षर कोश रखती है । प्राय सभी प्रकार के ग्रंथों में इन टीकास्त्रो का विघोष महत्व का भी नामोल्लेख मिलता है । है । इसका कारण यह है कि अनेक टीकाओं में मूल की अपेक्षा अधिक प्राकृत भाषा में उपलब्ध कशि की संख्या कम है । जैन भाडागारो पाते, नूतन व्याख्या तथा व इन महन द्वारा नव्य मतों की भी स्थापना से कुछ प्राकृत और अपभ्रश के काशो की विद्यमानता का पता चला की गई है । कोशग्रथों के टीकाकारो का कृतित्व भी बडे महत्व का है। है। परतु जब तक उन्हें देखने का अवसर नहीं मिलता, तब तक उनका उनमे जहाँ एक अोर नए शब्द, नवीन अर्थ और नई व्याख्याएँ हैं। विवरण देना ठीक नहीं हैं । नहीं दूसरी घोर अनेक केशिकारो और कोशग्नयो के नाम भी मिलते हैं। अनेक तो ऐसे टीकाकार हैं जो स्वय ग्रंथकार हैं और स्वयमपि धनपाल ( समय ६७२ ई० से ६.६७ ई० के बीच) विरचित जिन्होने अपने ग्रंथ की टीकाएँ भी लिखी हैं। अधिकांश ने केवल टीकाएँ 'पाइअलछीनाममाला' कदाचित् प्राकृत का सर्वप्राचीन उपलब्ध कोश बनाई है। 'अमरकोश' को टीकाएं सर्वाधिक और कदाचित् सर्बप्राचीन | है। इनके गद्यकाव्य---‘तिलकम जरी'--के उल्लेखानुसार 'मुजराज' ने भी है । उनका अनुवादात्मक हिदी ग्रादि भाषाओं में कोयीकरण भी इन्हें 'सरस्वती' उपाधि दी थी । गाथाछद में रचित, अपायविरहित इस किया गया है। इन टीकायों में अनेक पूर्ववर्ती कोशो यः कशिकारों के काम में कम से एलोक, श्लोकार्ध अरि पद ( धरण ) एव शब्द में नाम और कभी कभी छद्रण भी मिलते हैं। अमरकोण के टीकाकर पर्यायवाची शब्द निदिष्ट है। ‘हेमचद्र' ने अपने ‘देशीनाममाला' में क्षीरस्वामी' तथा 'हेमचद्र' ने 'काव्य' कोण' के नानार्थ और पर्यायवाची इसकी सहायता लेने का टीका में उल्लेख किया है। कोपा का सकेत दिया है। इनसे यह भी लक्षित होता है कि कभी हेमचद 'चित देशीनाममाला नाम से प्रसिद्ध प्राकृत का महत्वपूर्ण कमी शब्द की अर्थबोधक व्याख्याएँ भी वहाँ थी—यथा---'क्षुद्र और विश्वपति छोरा कहा जाता है। देशी शब्द वस्तुत प्रात का छिद्रसमोपेत चालन तितः पुमान् ।' अथवा 'स्कधाद्ध्वं तरी शाखा पर्याय नहीं है, उसका सभा में प्राकृत और अपभ्रा को-जी हेमचंद्र वाटप्रो विटपो मत । हेमचद्र ने ३० कोश करो या कोशो का उल्लेख के समय तक उक्त भापाम्रो के प्रथा म मिलते थे उन्हीका-संग्रह है। किया है। टीम आदि के अधार पर-तारपाल, दुर्ग, धरणीधर देशी से सामान्यत अाभास यह होता है कि जो घाब्द' सस्त तत्सम धर्ममुनि, रतिदेव, रुद्र, विश्वरूप, बोपदेव, शुभाग ( शुमाक ), धोपालित ( गोपालत ), कृष्णकवि ( वैभापिक शब्दकोश ) अादि नाना नाम । मिलते हैं । 'राक्षस' या 'रभस' के षडयंकोश का भी उल्लेख हैं। शब्द थे उन्हीं को देश कहा गया है। देशज भी उन्हीं का परिचायक है। परंतु तथ्य यह नहीं है। देशी नाममाला के बहुत से शब्द देशव न कोराटी कामों में शब्दों की व्युत्पत्तियाँ भी हैं। अमरको अवश्य हैं। परंतु जिन तद्भव शब्दों की व्युत्पत्ति संस्कृत तत्सम शब्दो