पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/१८

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- । || से हेमचद्र संबद्ध न कर सके उन्हें अव्युत्पन्न देशज शब्द मान लिया । (४) नामसत्रात्मक कोशो की भी दो विधाएँ होती थीं---- प्राकृत के व्याकरण नियमों के अनसार जिनकी तद्भवसिद्धि नही एक समानार्थक शब्दसूचीकोश ( जिसै आज पर्यायवाची कोश कहते दिखाई जा सकी, उन्ही को यहाँ देशी कहकर संकलित किया गया । हैं ) और दूसरी अनेका या र्थनानार्थ कोश ।। परतु 'देशीनाममाला' में ऐसे शब्दों की संख्या घहुत बडी है जो सस्कृत। ( ५ ) 'अमरसिंह' के कोशग्रथ मे 'नामतन' और 'लिंगतत्र' के तद्भव व्युत्पन्न शब्द है। चूंकि प्राधृत व्याकरणानुसार हेमचद्र । दोनो का समन्वय होने के बाद जहाँ एक ओर का उभयनिर्देशक उनका संबंध, मुल सेस् त शब्दों से जाने में असमर्थ र अत' उन्ह होने लगे वह फछ का भरकोश' के अनकरण पर से भी बने। देशी कह दिया । फलत हम कह सकते हैं कि देशी शब्द का यह इतना जिनमे समानार्थक पययों और अनेकार्थक शब्दो-दोनो विधामो ही अर्थ है कि उन शब्दो की व्युत्पत्ति का सबध जोडने मे हेमचंद का । की अवतारणा एकत्र की गई। फिर भी कुछ कोश ( अभिधान व्याकरणशान असमर्थ रहा। चितामणि और कैल्पद् अादि ) केवल पर्यायवाची भी बने, मोर इनके अतिरिक्त दो देशी कोणी का मी--एक सूत्ररूप में और कुछ कोण- विश्वप्रकाश, मेदिनी, नानाथर्णवस क्षेप'-पादि दूसरा गोपाल कृत छदोबद्ध--उल्लेख मिलते हैं । द्रोणकृत एक देशी मानार्णको ही हैं। 'बदेशना' सदृश कोशो को छोडकर सस्कृत कौश का नाम भी मिलता है। इसी तरह शिलागि का भी कोई को प्राय पद्यात्मक हैं। इनमें मुख्य छद अनुष्टप है। वे भी कभी देशी कोस रहा होगा। हेमचंद्र ने दैशीनाममाला में अपना बहुछदवाले कोश भी बने । मतभेद और विरोध--वक्त कोशावर के मत के साथ-प्रकट ( ६ ) अमरकोश' की पद्धति पर कुछ कोशो में शब्दो का किया । हेमचंद्र के प्राकृत शब्दसमूह में उपलब्ध अनेक तत्पूर्ववर्ती देमी वर्गीकरण स्वर्ग, द्यौ , दिक, काल आदि विपयसदद्ध पदार्थों के शब्दकोशकारों का उल्लेख मिलता है । हेमचंद्र ने ही जिन कोशकारो आधार पर काडो, वग, अध्यायो आदि में हुआ और आगे चलकर को सर्वाधिक महत्व दिया है उनमें राहुलक की रचना और पाद कुछ में वर्णानुक्रम भब्दयोजना का भी आधार लिया गया। इनमे कभी लिप्ताचार्य का ‘देशीक श' वहा जाता है । जिननकोश' में भी अनेक सप्रमाण शब्दसकलन भी हुआ। मध्यकालीन कोशग्रथो के नाम मिलते हैं। अभिधानचितामणिमाला संभवतः वही ग्रंथ है जिसे हेमचद्र विरचित अभिधानचितामणि कहा ( ७ ) अनेकार्यको शो में विशेप रूप से वर्णक्रमानुसारी शब्दगयी और यह सस्कृत कोश है । सकलन पद्धति स्वीकृत हुई। उसमे भी अत्याक्षर ( अर्थात् अतिम । विजयराजेंद्र सूरि ( १९१३-१९२५ ई० ) द्वारा सपादित, संकलित स्वरात व्यंजन ) के आधार पर शब्सक्लन का क्रम अपनाया गया और थोड़े बहुत कोणों में अदिवणन्सारी शब्द-कम-योजना भी और निमित-- अभिधान राजेंद्र--भ प्रसृत का एक बृहद् शब्दकोश अपनाई गई । अत्यवानुसारी को शो की उक्त योजना का आधार कही है। पर तत्वत यह जनों के मत, धर्म र साहित्य का आधुनिक कहीं निर्दिष्ट वर्ग या उच्चारणस्थान होता था। इनमें कभी कभी अक्षर की भित्रि न प्रणाली में रचित --सात जिल्दी मे ग्रथित-महाकोश हैं। सख्यानुसार भी एकाक्षर, द्वयुक्षर, यक्षर ग्रादि के क्रम से शन्दवर्गों पृष्ठ संख्या भी इसकी लगभग दस हजार है । यह वस्तुत विश्वकोशात्मक का विभाजन भी किया गया है। ज्ञानकोश की मिश्रित शैली का आधुनिक कोश है। ( ६ ) इन विशेषताओं के अतिरिक्त एकाक्षरकोणमाला और निष्कर्ष द्विरूपकोश नमिक शब्दकोशो की दो विधाओं का उल्लेख मिला है। एकार्थनाममाला, 'द्वयर्यनाममाला' अदि ग्रंथ आज उपलब्ध नही है | (१) जहाँ तक सस्कृत कोणो का सवध है। शब्दप्रकृति के तथापि कोथाकार ‘सोहरि' के नाम से निर्मित वे कोश कहे गए हैं । अनुसार उसके तीन प्रकार कहे जा सकते हैं--( १ ) शब्दकोश, (२) । ‘राक्षस’ कवि का ‘पडर्थनिर्णयकोश' मी उल्लिखित है । 'पडूमुखकोष'लौकिक शब्दकोश और (१) उभयात्मक शब्दकोश । वृत्ति भी संभवत ऐसा ही टीकाग्रथ था। 'वर्णदेशना' गद्यात्मक ( २ ) वैदिक निघो की शब्द-सग्रह-पद्धति चया थी इसका कोश है। वैकल्पिक रूपों का भी एकाध कोणो में निर्देश किया गया हैं। ठीक ठीक निधरण नहीं होता, पर उपलब्ध निघट्ट के आधार पर ( ६ ) कुछ कोशटीकाम के आधार पर कहा जा सकता है इतना कहा जा सकता है कि उसमे नाम, आयात, उपसर्ग और कि सस्कृतकोश के युग में बहे कोशो के सक्षेपीकरण द्वारा व्यवहारोनिपात चारों प्रकार के शब्दों का संग्रह रहा होगा। परतु उनका : पयोगी लघू रूप के निमणि की पद्धति भी प्रचलित थी । संस्कृत के संबध मुख्य और विरल शब्दों से रहता था और कदाचित् वेदविणेप वैयाकरणों में भी 'वृहतू' और 'लघु' संस्करणो के संपादन की प्रवृत्ति या सहिताविशेष से भी प्राय वे सवद्ध थे । वे सभवत गद्यात्मक थे । मिलती है जैसे-- 'लघुशब्दं दुशेखर' 'बृहहच्छदें दुशेखर' 'बालमनोरमा ( ३ ) लौफिक सस्कृत की फोशपरंपरा में अमरपूर्व' कोशकारी 'प्रोढमनोरमा' तथा 'लघु-सिद्धांत-कीमुदी'। 'रायम कुट' कृत अमिरकोश की दो पद्धतियाँ थी, एक 'नमितन्न' और दूसरा 'लिगतन'। इस द्वितीय गर। लगतव', इस दितीय टीका मे 'वत्अमरकोश,' सर्वदनिद द्वारा ‘बहानद अमरकोश' और विधा के कोशों में संस्कृत शब्दों के प्रयोगों में स्वीकार्य लिगो का भान्दीक्षित' द्वारा 'बृहत् हाररावली' के नाम उल्लिखित हैं । ऐसी मालम निर्देपा होता था। एकलिग, द्विलित, विलिग पब्दिों के दिमाग के होता है कि इन्ही ग्रंथी के संक्षिप्त संस्करण के रूप मे "हारावली' अर अतिरिक्त अर्थ बत् लिगः और नानालिग के प्रकरण भी इनमे हुआ करते 'अमरकोश' आदि निमित हुए हैं । थे। ये कोश अनुमान के अनुसार गद्यात्मक थे। | (१०) अनपूर्वीमूलक वैकल्पिक शब्दो के सकल भी न कही विधा के कोशों में संलग, द्विलिंग, त्रिलिजा भी इनमे हुआ कर