पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१०९

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उवैहुना ६२३ उठाना । उ०—(क) पुनि सलार कादिम मत माहीं । खाई १. जोश । उद्वेग । क्षम । जैसे---से देखते ही उनके जी में ऐसा दान उवह नित वाहाँ ।-जायसी (शब्द॰) । (ख। रघुराज उवाल आया कि वे उसकी ओर दौड़ पडे । लवे रघुनायक है महा भीम नपानक दड़ गई। सिर काटन उवालना-क्रि० स० [हिं० उवलना] १. पानी, दूध या और चाहत ज्यौं अबहीं करवाल कराल लिए उवहे । ---रघुराज किसी तरल पदार्थ को ग्राग पर रखकर इतना गरम (शब्द०)। ३ पानी फेकना । उलीचनी।। करना कि वह फेन के साथ उपर उठ अवै । खौलाना । उवहना -क्रि० अ० ऊपर की ओर उठना । उभरना। उ०— चुराना । जोश देना। जैसे,--दूध उबालकर पीना चाहिए । जावत मवै उह उरेहे, ति मति नग लाग उठे ।-- जायसी २. किसी वस्तु को पानी के साथ आग पर चढाकर गरम उवहना --क्रि० त० [स० उद्वहन= जोतना जोतना। ३०-म्बरिय करना । जोश देना। उसिनना । जैसे-आलू उबाल डालो । सेवा कीजिए । तातें भला न कोय। दादू उसर वहि उकरि उवास--सुं० ली० [सं० उच्छ्वास] जै भाई ।। कोठा भरे न कोय । दादू (शब्द॰) । उवाहना -क्रि० स० [हिं० उवहना! दे० 'उवहना' । उवहना-वि० 1 देवाज, मि० हि० उवेना] विना जूते का 1 नंगा । उठना- क्रि० स०, क्रि० अ० [हिं०] दे॰ 'उठना' । ३०--रघ तें उतरि उत्रहने पायन । चलि भै रहहि हुरहू चित उवीना--क्रि० स० [देशी] उनीचनी 1 पानी फेंकना । चायन । पद्माकर (शब्द॰) । उवोठना-क्रि० स० [स० अब, पा० + मुं० इष्ट पा० इट्ठ= उवहनि, उवहनी--सज्ञा स्त्री० [सं० उद्वहन, अद० उवहनि = रम्सी] | इट्ट] जी भर जाने के कारण अच्छा न लगना। चित्त से पानी खींचने की रस्सी । ३०-गगरिया मोरी चित सो उतरि उतर जाना । अधिक व्यवहार के कारण अरुचिकर हो जाना । न जाय । इक कर दरवा एक कर उवहनि, वतिया कहीं उ०--(क) सुठि मोती लाडे मीठे, वे खात न कबहू उबीडै ।अरथाय ।-ज० वानी, पृ० ४८ । (ख) जव जल से भरे सूर०, १०८०१ । (ख) वचक विषय विविध तनु घरि मारी गागर खींचती उवहनी वह, वरवस |--ग्राम्या, पृ० १३।। अनुभवे, सुने अरु डीठे । यह जानतहु हृदय अपने सपने न उबात --सज्ञा स्त्री० [सं० उद्वान्त] उलटी । वमन । के । उ०— अघाइ उबीठे -तुलस ग्रे ०, पृ० ५४३ । बस तुम महा प्रसाद न पायो । अस कहि करि उवात विशेप--इस शब्द का प्रयोग यद्यपि देखने में क_प्रधान की दरलायो ।-रघुराज (शब्द॰) । | तरह है पर वास्तव में है कर्मप्रधान । उबाना'-संज्ञा पुं० [हिं० उवहनी= नगा अथवा उ = नहीं+बीना] संयो॰ क्रि०--जाना ।। वह जो कपडा बुनने में छि के बाहर रह जाता है। उ०— उवठिनी--क्रि० ० ऊबना । घबराना। उ०—देव समाज के, साधु पाई करि के भरना लीन्हो वे बांधे को रामा । वे ये भरि समाज के लेत निवेदन नाहि उदीठे--(शब्द०)। तिः' लोकहि धौधे कोई न रहै उवाना--कवीर (शब्द०)। उवोधना--क्रि० अ० [सं० उद्विद्ध, प्रा० उविद्ध[ १ फेसन । उलझना । २ घंसना । गहना। उवाना–वि० विना जूते का । नगे पैर। उ०-मो हित मोहन जेठ । उवीधा-- वि० [सं० उद्विद्ध] [स्त्री० उवीधो] १ पैसा हुआ । गड़ा | को धूप में प्राए उत्राने परे पग छाले ।--वेनी (शब्द॰) । हुआ । उ०--गरवीली गुन न लजीली ढीली भहन के, ज्यो उवाना–क्रि० स० [हिं० ॐवना] १ तंग करना । नाको दम कर ज्यों नई त्यो त्यो नई नेह नित ही। वोधी वात वातन, देना । २ उवाने का कारण होना या बनना । समीधी गात गतिने, उबीघी परजक मे निक अक हित ही। उवार- सज्ञा पुं॰ [स० उद्वार] १ उद्धार। निम्तीर। छुटकारा । - देव (शब्द०)। २ छेदनेवाला । गहनेवाला । कटो वैचाव। रक्षा। उ०-मन तेवान के राघौ झरा । नाहि से भरा हुअा। झाड झम्बाड वाला। उ०—क शीतल उवार जीउ डर पूरा —जायसी ग्रे ०, पृ० २०४। (ख) कहु उष्ण उवीधो । कहू कुटिल मारग कहु सीघो --शं० गहत चरन कह वानि कुमारा । मम पद गहे न तोर उबारा । दि० (शब्द०)। -मानस, ६।३१ । २ ग्रिौहार । ३ विचत । उबेना -वि० [हिं०] नंगा । बिना जूते का । ३०–तवलो उवारना--क्रि० स० [सं० उद्वारण]उद्धार करना । छुडीना। निस्तार मलीन हीन दीन सुख सपने में जहाँ तहाँ दुखी जन 'भाजन करना 1 मुक्त करना। रक्षा करना । बचाना। उ०——तात कलेस को । तवलो उबेने पाएँ फिरत पैट खलाए बाए मुहै मातु ही सुनिअ पुकारा । एहि अवसर को हमह उवा । -- सहत पराभौ देस देस को --तुलसी (शब्द॰) । मानस, ५॥२६॥ उवेरना -क्रि० स० [हिं०] दे॰ 'उबारना' । उ०-अलख अगोचर उवारा-सज्ञा पुं० [सं० उद् (म० उदक) =जल+वारण = रोक] वह हो प्रभु मेर। अब जीवन को करो उबेरा ।—कबीर (शब्द०)। जल की कुड जो कुप्रो पर चौपायो के जल पीने के लिये वन । उबहिका--संज्ञा स्त्री० [सं० उवाहिका, प्रा० उध्वाहिका] जूरी। रहता है। निपान । वैबर । अँहरी । निर्णय में सलाह देनेवाले व्यक्ति । उ०—सभ्यो का काम उवाल-ज्ञा पुं० [हिं० उबलना] १ आँच पाकर फेन के सहित उब्वाहिका या जूरी का रह गया था ।--भा० इ० ऊपर उठना । उफान । जोश । रू०, पृ० १०१० । क्रि० प्र०-- माना। उठना । उभइ -वि० [स० उभय दे० 'उभय' ।