पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/११०

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= == = = = == = == = == == = मॅरंनी भधुभ उभचभ–सच्चा स्त्री० [अनुष्य०] डूबने उतारने की स्थिति, क्रिया उभयत्र--क्रि० वि० [सं०] १. दोनो जगह । २ दोनो मोर । ३ * या भाव। दोनो विपयो मे [को०] । क्रि० प्र०-होना । उ०---वह अथाह अधकार के समुद्र मे उभचुभ । उभयथा-क्रि० वि० [सं०] दोनों प्रकार से को]। हो रही थी ।--ककाल, पृ० १५६।। उभयपदी--वि० [सं० उभयपदिन्] वह धातु जो परस्मैपदी और उभटना-क्रि० अ० [हिं० उभरना] १ अहकार करना । अभिमान आत्मनेपदी दोनो रूप धारण करती है । करना । शेखी करना । २ रुक जाना। अडना ।—रय उभयवाटो)---वि० [म० उभवाविन] वर उभयवादी)---वि० [स० उभयवाविन्] स्वर और ताल दोनों का वोध को चतुर चलावन हारो। खिन हाँकै खिन उभटे राखे नही । कुरानेवाला (वाजा, जैसे वीणा) । । प्रान को सारो -२० वानी, पृ० ४२। उभयविपुला--सज्ञा स्त्री० [सं०] प्राय छद का एक भेद। जिस उमड़ना-क्रि० अ० [सं० उद्भिदन, अथवा उद्भरण, प्रा० उदभरण] प्राय के दोनों दलो के प्रयम तीन गणों में पाद पूर्ण होते हैं। १ किसी तल वा सतह का अासपास की तरह से कुछ ऊंचा उसे उभयविपुला कहते हैं । होना। किसी अश का इस प्रकार ऊपर उठना कि समूचे से उभव्यजन–सच्चा पुं० [स०उभब्यञ्जन] नपुसक। वलीव । स्त्री और उसका लगाव वना रहे। उकसना । फूलना । जैसे--गिलटी पुरुप दोनो के चिह्न धारण करनेवाला व्यक्ति (को०] । उभदन। फोडा उमडना । उ०—नारगी के छिलके पर उभयसभव-सच्चा पुं० [सं० उभयसम्भव] सदेह । विकल्प [को०)। उमड़े हुए दाने होते हैं । २ किसी वस्तु का इस प्रकार यमगधगा -सदा १० [स', उभयसगन्धगरग] वे महकनेवाली ऊपर उठना कि वह अपने आधार से लगी रहे। ऊपर बस्तुएँ, जिसकी सुगंध जलाने पर भी फैलती है, जैसे—चंदन, निकलना । जैसे—तभी तो खेत मे अँखुए उभड रहे हैं । सुगधवाला, अमरू, जटामासी, नख, कपूर, कस्तूरी इत्यादि । ३ अाधार छोड़कर ऊपर उठना। उठना । जैसे--मेरा तो , उभयहस्ति-क्रि० वि०स०]दोनो हायों में समा सकने योग्य परिमाणपैर ही नहीं उभङ्घता चलू कैसे ? ४ प्रकट होना । उत्पन्न = हाना उत्पन्न वाला । अजली भर [को० ।। होना । पैदा होना । जैसे—दर्द उभरना, ज्वर उमडना । ५ उभ्या-क्रि० वि० [स] दोन प्रकार से कि०] । खुलना । प्रकाशित होना । जैसे—बात उभड़ना ६ बढ़ना।। उभयात्मक--वि० [सं० उपय+आत्मक] १. दोनों प्रकार की विशेपता अधिक होना । प्रवल होना । जैसे--- नकल इसकी चर्चा । लिए हुए । २ दोनो से रचित [को॰] । खुर्व उभडी है । ७ वृद्धि को प्राप्त होना । समृद्ध होना ।। उभयान्वयी--वि० [सं० उभयान्वयन्] व्याकरण के नियमानुसार प्रतापवान् होना । जैसे-मरहठो के पीछे सिख उमड़े । ६ (पद और वाक्य) दोनो से मिला हुआ। दोनो सबधित चल देना । हट जाना। भागना । उ॰—अब यहाँ से उभड़ो। [को०] । ६. जवानों पर अना। उठना । १० गाय, भैस अादि का मस्त होना । उभयायी–वि० [स० उभयायिन्] १ इस लोक और परलोक उभय-वि० [सं०] दोनो । दोनों के लिये उपयोगी हो । १ जो दोनो लोको से सबद्ध (को०)। उभयचर-सज्ञा पुं॰ [सं०] १ कछुवा । ३ मेढक [को॰] । उभयार्थ—सच्चा पु० [सं०] दोनो अर्थ (को०] । उभयचर—वि० जल और स्थल दोनो में समान रूप से रह सकने उभयार्थ-वि० १ दो अर्थ रखनेवाला। २ जो विस्पष्ट न हो [को०] । | वाला (जीव) [को०] । उभयालकार सञ्चो पुं० [सं० उभयलिङ्कार] बहू अलकार जिसमें उभयत -क्रि० वि० [स ० उभयतस्] दोनो ओर से। दोनों तरफ से । शब्दगत और अर्यगत दोनों प्रकार का चमत्कार हो। उभयतोदत–वि० [स० उभयोदन्त] जिसके दोनों ओर दो दाँत निकले विशेष—इसके दो प्रकार होते हैं—(१) सस्सृष्टि और सुकर । | हो जैसे—हाथो सूअर आदि । जहाँ शब्दोलकार और अर्याल कार तिलतडुल न्याय से पृथकू उभयतोमुख-वि० [सं०] दोनो ओर मुह रखनेवाला । दोमु हा [को०]। अस्तित्व रखते हुए एकत्र स्थित होते हैं वहां सस्सृष्टि और उभयतोमुखी-वि० सी० [सं०] दोनो ओर मुहवाली । जहाँ नीरक्षीर न्याय से एक दूसरे से घुलमिल जाते हैं वहीं यौ०-उभयतोमुखी गौ = व्यावी हुई गाय, जिसके गर्भ से बच्चे सुकर नामक उभयालकार होता है । का मुह वाहर निकल आया हो। ऐसी गाय के दान का वडा उभयाविमित्र-सच्चा पु० [स०] वह राजा या राष्ट्रनायक जो परस्पर माहात्म्य लिखा है। उभयोतऽनर्थापद—सच्चा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार ऐसी स्थिति सधपरत दो राजग्रिो में से किसी एक का भी पक्ष ग्रहण जिसमे दो ही मार्ग हो और दोनो अनिष्टकर हो । नहीं करता। उभयतोभाग - सच्चा 'गु०सै० उमयतोभागिन् कौटिल्य मत से वह । उभयेद्यु- क्रि० वि० [सं० उभयेद्युत्] १. दोनो दिन । २. लगातारी राजा जो अमित्र तथा प्रसार (साथी) दोनो का साथ ही दो दिन कौ] । उपकार करे ।। उभयोन्नतोदर---वि० [सं०] जिसका पेटा दोनों अौर को निकला हो । उभयतोऽर्थापद--सबा पुं० [सं०] जिघर लाम की सभावना दिखाई उभरना -क्रि० अ० [स० उद्भरण] ३० 'उभड ना'। उ०-मो पडती हो, उघर ही शेयू की बाधा। ऐसा करते हैं तो उभरल, इ गेल सुखाए। नाहू बलोह मेघे भर जाए --- भी बाघा, और वैसा करते हैं वो भी (को०)। विद्यापति, पृ० ४५६ }