पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/११८

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उरुहार उर्घमुख उरुहार-सज्ञा पुं० [सं०] बहुमूल्य हार (को॰] । उरोग्रह-सज्ञा पुं० [स] पाश्र्व शूल [को॰] । उरूक- संज्ञा पुं० [मं०] एक प्रकार का उल्लु (को॰] । उरोघात--संज्ञा पुं० [सं०] छाती का दर्द (को०)। उरूज-सज्ञा पुं० [अ०] १ ऊपर उठना । चढ़ना । २ वळती । वृद्धि । उरोज-सज्ञी पुं० [सं०] स्तन । कुच । छाती। | उन्नति । उरोवती--सज्ञा स्त्री॰ [सं०] एक छद का नाम [को०] । यौ०-उरुजोजवाल= (१) उन्नति-प्रवनति । (२) लाभ-हानि । उभूपण -सज्ञा पुं० [सं०] छाती पर धारण किया जानेवाला | वृद्धि ह्रास ।। | एक अलकार किये। उरूणस--वि० [सं०] चौड़ी नाकवाना को । उरोरुह- -सुद्धा पु० [सं०] उरोज । कुच । उ०--नयनों में नि सीम उरूसी--सज्ञा पुं० [?] एक वृक्ष जो जापान में होता हैं। इसके व्योम, औ उरोरुह मे सुरसरि घरि |---पल्लव, पृ० ३९ ।। धड से एक प्रकार का गोद निकाला जाता है जिससे रग और उरोविवघ-संज्ञा पुं० [सं० उरोविवध] श्वास रोग 1 दमा [वै] । वारनिश वनती है । उरोहस्त--सज्ञा पुं॰ [स०] वायुद्ध या मल्लयुद्ध का एक भेद [को०] 1 उरूसी --सुज्ञा स्त्री॰ [५० उरूस] दुलहन 1 उ०--जवे इस बज्म उजित--वि० [सं०] १ वैधते । शक्तिशाली १ बलवान् । २ त्यक्त। छव की उरूसी दिखाय, तो जोहर को ज्यो दिप मने जल्चा | छोड हुा । ३ गर्वी । अभिमानी । घमडी (को॰] । गाय }--दक्खिनी॰, पृ० १३८ । उझैरा -सच्चा पुं० [हिं०] ३० ‘उरझेरा' । उ०—तीन सौ साठ उरे -क्रि० वि० [वै ० स० अवार= निकट, इधर, स० अवर १ । पैठ उझेरा । कैसे हुसन लेव उवेरा ।—कबीर सा०, पृ० ८०४ ।। परे । अगे। दूर। ३ इधर । निकट उ०--(क) श्री उर्ण --सच्चा पुं० [सं०] दे॰ 'ऊर्ण' । जगन्नाथ राय जी ते उरे कोस वीस कोस पर एक ग्राम है ।-- उर्णनाभ--पक्षी पुं० [स०] मुकदी x दौसीवावन०, भा० २ पृ० १३ (ख) घरते चलिके दिल्ली । उर्णा--पज्ञा स्त्री॰ [स०] दे० 'ऊर्गा'। के उरे को चल्यो ।-दो सौ वादन, भा० १, पृ० १६५। उर्द-मन्त्री पुं० [हिं०] दे॰ 'उरद' । उरेखना - क्रि० स० [हिं० अदरखना] दे॰ 'अवरेखना' । उ० उर्दपर्णी--सच्चा स्त्री० [हिं० उर्द भ० पर्णी] मापपर्णी । वन उर्दी। अवर पीत लस चपला छवि अवुद मेचक अग उरेखे -- उर्दू –सञ्चा पुं० [तु ०] लश्कर । छावनी । मतिराम ग्र०, पृ० ३३० ।। उर्दू-सज्ञा स्त्री॰ [1०] वह हिदी जिसमें अरबी, फारसी भाषा के उरेखना(g)--क्रि० स० [सं० उल्लेखन या कावरेखन] 'उरेहना। |शब्द अधिक मिले हो और जो फारसी लिपि में लिखी जाय । उ०—यूसुफ मूरत हिएँ उरेखें, घर घ्यान निज अगे देखें । विशेप-तुर्की भाषा में इस प्राब्द का अयं लश्कर, सेना का शिविर -हिंदी प्रेमा०, पृ० २६६ । । | है। शाहजहाँ के समय से इस शब्द का प्रयोग भापो के अर्थ में उझा- सज्ञा पुं० [हिं० उलझन] दे० 'उलझन' । उ०--परे होने लगा। उस समय बादशाही सेना में फारसी, तुर्क और जहाँ तह मुरझि भूप सध उरझि उरेझा ।—नद० ग्र०, अरब घादि भरती थे अौर वे लोग हिंदी में कुछ फारसी, पृ० २१० । तुर्की, अरवी अादि के शब्द मिलाकर वोलते थे । उनको इस उरेह+G-मज्ञा पुं० [सं० उल्लेख] चित्रकारी । नक्काशी । उ०— भापा का व्यवहार लश्कर के बाजार में चीजो के लेनदेन में (क) कीन्हेसि अगिनि पवन जल बेहा, कीन्हैसि बहुत रग उरेहा ।—जायसी (शब्द॰) । (ख) जाउँत सवै उह करना पडता था 1 पहले उद्' एक बाजारू भापा समझी जाती वृरे । मति भौति नग लाग उवैहे ।—जायसी (शब्द॰) । यी पर धीरे धीरे वह साहित्य की भाप बन गई । उरेहना -क्रि० स० [सं० उल्लेखन] १ खीचना ।।.लिखना। यौ॰—उर्दू ए मु अल्ला- प्रशस्त या उच्च कोटि की उर्दू जिसमे अरबी फारसी शब्दो का अधिकतम प्रयोग हो । उर्दू बेगनी= रचना । उ०- काह न भूठ भरी वह देही, असे मूरति के देव उरेही !-—जायसी (शब्द०)। २. सुलाई से लकीर बाजार में खरीदी हुई स्त्रियाँ जो लड़ाई के वक्त अमीरो की करना । रंगना । लगाना। उ०—खेह उडनी जाहि घर वेगम का काम करती थीं ।-राज० इति०, पृ० ७६६ । हैरत फिरत सो खेह, पिय अवईि अब दिप्ट तोहि अजन उर्दू बाजार--संज्ञा पुं॰ [तु० उद्+बाजार] १ लश्कर का बाजार ।। नयन उरेहु !-जायसी (शब्द०)। छावनी का बाजार । २ वह बाजार जहाँ सर्व चीजें मिले । उरेडना --कि० अ० [हिं० उडेलना] दे॰ 'उडेलना" । । उद्ध -वि० [सं० अवं] दे० 'ऊर्ध्व । उ०—अघ को अधर धरा पे यौ०-उरेबाउरेंडी =उडेला उँडेती । छीनाझपट्टी में गिराने का धरयो। उद्धं अघर जलघर मै फरयौ ।-नद० काम् । उ०-प्रादघन सो मिलि चलि दामिन नातर मचि ' ग्र०, पृ० २६० । | है दधि की उरेडाउरेडी -घनानद, पृ० ५२६। उद्ग---सधा पुं० [स०] ऊदबिलाव [को॰] । उG+--क्रि० वि० [हिं०] ६० 'उरे' । उ०—छगन मगन बारे उर्च –वि० [सं० अब्वं] दे॰ ‘ऊवं'। कन्हैया, नैकु उरै धौं माइ रे ।---नद० ग्र०, १० ३३६ । उर्ववाहु--संज्ञा पुं० [सं० अवंवातु] जिसकी वह ऊपर उठीं हो । उरो--सज्ञा पुं० [सं०] ‘उरस्’ का समास प्राप्त रूप ।। उ०--कोई उद्घबाहु कर रहे उठाई ।--जग० ०, पृ० ६६ । पुरोगम–सुज्ञा पुं॰ [स] सर्प । साँप (फो] ।। उर्धमुख -वि० [सं० अद्ध मुद्ध] ऊपर की ओर मुडवावा ।