पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/११९

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उर्फ उलझन जिसका मुह ऊपर की ओर हो। उ०--हमरे देसवा उधं मुख महात्मा, पोर आदि के मरने के दिन का कृत्य । २ मुमल मन कुइयाँ सॉकर वाकी खोरिया-धरम० श०, पृ० ३५। साधुग्रो की निर्वाण तिथि । *- संज्ञा पुं० [अ० उर्फ] चलतु नाम । पुकारने का नाम ।। । उलंग- वि० [सं० उन्नग्न] नगा। उ०--दास गरीव उलग छवि —सुज्ञा स्त्री० [स० ऊम्] दे॰ 'म । । अधर डाक कूदत |कवीर म०, पृ० ५८८ ।। ०" ला--संज्ञा स्त्री० [स० मला] १. सीता जी की छोटी बहिन उलंगना ---क्रि० स० [सं० उल्लङ्घन] दे॰ 'उलधना' । उ० -३ जो लक्षमण जी से ब्याही थी । उ०—(क) माडवी श्रुति कीन। इब्लीस भुई पर थे हमला किया । व सातो तवक से उलंग कर उर्मिला के अरि लुई हुँकार के।-तुलसी (शब्द॰) । २ गया ।- दक्खिनी॰, पृ० ३२६ } एक गंध जिसकी पुत्री सोमदा से ब्रह्मदत्ते उत्पन्न हुग्रा । उलगन--(७)सच्चा पुं० [स० उल्लङ्घन] दे० 'उल घन'। जिसने कपिला नगरी वसाई । उलघना उलंघना--क्रि० स० [स० उल्लघन प्रा० उल्लघण = | उर्वट-सज्ञा पुं० [सं०] १ बछड़ा ! २ वर्षे [को॰] । लाँघना] १ नाँघनी । कना । फॉदना। उल्लघन करना । उर्वर--वि० [सं०] उज्ञ या पदाकरनेवाला [को॰] । उ०—(क) ऊँचा चढि असमान को मेरु उलं भी उड़ि। पशु | उर्वरक--संज्ञा पुं० [सं० उर्वर+क]खाद जो खेतो की उपज बढ़ाने के पक्षी जीव जंतु सव रहा मेरु मे गूडि।—कबीर (शब्द०)। लिये रासायनिक ढंग से तैयारी की जाती है। या व पारावार को उलँघि पार को जाय, तिय छवि छाया उर्वरता-संज्ञा स्त्री० [स० उर्वर+ता (प्रत्य॰)] १ उर्जर होने ग्राहिनी गहैं बीच ही प्राय ।-विहारी (शब्द॰) । २ न मानना । अवहेलना करना । अवज्ञा करना । उ०---सतगुरु की स्यिति । उपजाऊपन । २ अधिक उपजाऊ होना ।। सवद उलघि करि जो कोई शिप जीय । जहाँ जाय तहँ काल उर्वरा-सज्ञा पुं० [सं०] १ उजाऊ भूमि । २ पृथ्वी । भूमि । ३ है कह कबीर समुझाय--कवीर (शब्द॰) । एक अप्सर । ४ सूत या ऊन अदि की ढेरी या गड्ढी (को०)। उलका -सच्चा स्त्री० [स० उल्का] ६० ‘उल्का' । उ० -मुख में ५ घुघराले बाल (हाम परिहास में) (को॰) । उलका लए फिरति हैं कुशिवा का ।--प्रामा० उवा-वि॰ स्त्री० उपजाऊ । जरखेन । । (भू०), १० ५। | यौ॰—उर्वरा शक्ति । उलकैयाँ विलुकैयाँG) --सच्ची श्री० [हिं०] झाई । झाँसापट्टी । उर्वराजित--वि० [सं०] उपजाऊ भूमि को अधिकार में करने दमपट्टी । लुकाछिपी । | वाली कि०] । क्रि० प्र०- देना। उ०-~-राजा तो उकैलय विलुकैया दै के उर्वरापति--सज्ञा पुं० [सं०] खडो खेती या फसल का स्वामी [को०)। निकरि प्रायो।--पोद्दार अभि० ग्र०, पृ० १०६ ।। उर्वरित–वि० [सं०]१ वहुत । अत्यधिक। २ अवशिष्ट । मुक्त [को॰] । ' उलगट-सच्चा स्त्री० [हिं० उल्लङ्घ+ट (प्रत्य॰)] कूद । फाँद । उर्वरी- सज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह पत्नी जो बहुत सौ अन्य स्त्रियों के । उलगना- क्रि० अ० [सं० उल्लंघन] कूदना । लधिना। साय वरण के लिये दी गई हो । २ श्रे, स्त्री । ३. सूत या उलगाना---क्रि० स० [सं० उल्लघन] [सा उलगट] कुदाना । रेशा जो चरखे से निकाला गया हो (को०] । फैदाना । उर्वर्य-वि० [सं०] उपजाऊ भूमि से संबध रखनेवाला (को॰] । उलचना-क्रि० स० [हिं०] ३० 'उलीचना' । उर्वशी--सज्ञा स्त्री० [सं०] एक दिव्य अप्सरा । स्वर्ग की अप्सरा ।। उलछना- क्रि० स० [हिं० उलघना] १ हाथ से छितराना। यो०-उर्वशीतीर्थ । उर्वशीरमण, उर्वशीवल्लभ, उर्वशीसहाय = | विखराना । २ उलीचना ।। पुरुरुवा नरेश का नाम । उलछा--मझा पुं० (हिं०उलचना) हाय से छितरकर वीज बोने की उर्वशीतीर्थ--सज्ञा पु० [सं०] महाभारत में वणित एक तीर्थ का नाम । रीति । छोटा। बुवेरना । पत्रेरा । उवरु-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ खरबुजा । २ ककजी। विशेप--इसका उलटा सेव या गुल्ली है ।। उर्वारुक-सज्ञा पुं० [सं०] १ खरबूजा । २ ककड़ी । ३ कद्द, (को०)। उलछार- सच्चा पुं० [हिं०] छीटने या बनेरने की क्रि ।। २ उविजा--सच्चा पु० [सं० उर्दी+जा ] दे॰ 'उर्वजा' । ऊपर या अगल वैगन फेंकना। ३ हुल आना । के उव-सज्ञा स्त्री० [स०] पृथिवी ।। मालूम होना। यौ॰—उज । उवतल । उवधव, उवपति, उर्वी मृत, उर्बी श । उलछारना - क्रि० स० [हिं० उलछना या उछाल] 1 ऊपर उर्वश्वर= नरेश । राजा ! या अलग उछालना या फेंकना । २ कोई गुप्त वात सव पर प्रकट कर देना । ३ आरोप करना । ईतजाम लगाना। ४. उजा--संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी से उत्पन्न सीता ।। उर्वीतल–अज्ञा पुं० [सं०] पृथ्वी का तल । धरातल [को०] । निदा करना। बुराई करना । उधर--सच्चा पु० [सं०] १. शेप । २ पर्वत । उलझन--संज्ञा पुं॰ [स० अबरुन्चन, ‘अवरुध्यते के रहित माग 'ते' से उर्वी रुह-सझा पुं० [सं०] वृक्ष, पौधा ग्रादि वनस्पति समूह [को०)। | पा० ग्रोरुज्झन] १ अटकाव । फैमान । निरहु । गाँठ । २ . उर्स-सज्ञा पुं० [अ०] १, मुसलमानो के मत के अनुसार किसी साधु, वाधा । जैसे-नुम सब कामों में उलझन डाला करते हो।