पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१२६

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विलेन वैल्थ उलेटना-क्रि० स० [हिं० उलटना दे० 'उलटना' । अश मोरचे के रूप में रहने हैं और उल्कापिडो में धातु के उलेटा--वि० [हिं० उलटा] दे० 'उलटा' ।। रूप में । उल्का का वेग प्रति सेकंड दम मील से लेकर चालीस उलेड़ना--क्रि० स० [हिं० उडे लना] ढरकाना । उहेलना । पचास मील तक का होता है । साधारण उल्का छोटे छोटे पिंड ढालना। उ०-गारी होरी देत देवावत, ब्रज में फिरत गोपि हैं जो अनियत मार्ग पर प्रकाश में इधर उधर फिरा करते हैं। कन गावेत । रुक गए वाट न नारे पंडे, नव केसर के माट पर उल्काओं का एक बड़ा भारी समूह है जो सूर्य के चारों उलँडे ।—सूर (शब्द०) ।। ओर केतु की कक्षा में घूमता है। पृथ्वी इम उल्का क्षेत्र में से उलेल(q) --सज्ञा [सं० उद्-लाल, प्रा० उल्लल] १. उमंग 1 जोश । होकर प्रत्येक तीसवें वर्ष कन्या राशि पर अर्थात् १४ नववर तेजी । उछलकूद। उ०—(क) ठठके सब जड से भए मरि गई के लगभग निकलती है। इस समय उल्का की झडी देखी द्विय की उलेल। प्राननाथ के बिना रहे माटी के सी खेले ।--- जाती है । काष्ठजिह्वा (शब्द०) । (ख) क्यों या के ढिग भाव ताव उल्काखड़ जवे पृथ्वी के वायुमडल के भीतर अाते हैं तब वायु की भपत उलेल को । सुकवि कहत यह हँसत अचमनकरि फुलेल रगड़ से वे जलने लगते हैं और उनमें चमक ग्रा जाती है । को ।—यास (शब्द॰) । २ बाढ़ । छोटे छोटे पिङ तो ज नकर राख हो जाते हैं और घडधडाट उलेल)---वि० [हि०] बेपरवाह । अल्हड । ग्रन जान । का शब्द भी होता है । जव उल्की वायुमडल के भीतर आते उलेडना(५ --क्रि० स० [हिं०] ३• ‘उलेना' । हैं और उनमें चमक उत्पन्न होती हैं तभी वे हमें दिखाई उल्का–सद्या स्त्री॰ [सं०] १ लूक । लुअाठा । पड़ते हैं। उल्का पृथ्वी से अधिक से अधिक १०० मील के यौ॰—उल्कामु । उल्काजिह्वा । ऊपर अथवा कम से कम ४० मील के ऊपर से होकर जाते ३ मशाल । दस्ती । ३ दिया । चिराग । ४ एक प्रकार के दिखाई पड़ते हैं। पृथ्वी के आकर्षण से ये नीचे गिरते हैं। चमकीले पिंह जो कभी कभी रात को आग की लकीर के गिरने पर इनके ऊपर का माग गरम होता है। लंदन, पेरिस, समान अाकाश मै एक अौर से दूसरी ओर को वेग से जाते बरलिन, विपना अादि स्थानों में उल्का के बहुत से पत्थर हुए अथवा पृथ्वी पर गिरते हुए दिखाई पड़ते हैं । रखे हुए हैं। विशेष—इनके गिरने को 'तार टूटना' या ‘लुक टूटना' कहते ६. फलित ज्योति में गौरी जातक के अनुसार मगला आदि आठ हैं । उल्का के पिड प्राय किसी विशेष प्रकार के नहीं होते। दशाओं में से एक। यह छह वर्षों तक रहती है।' ककड या झाँवे की तरह ऊवड़खावडू होते हैं । इनका रग। उल्काचक्र—सधा पुं० [सं०] १ उत्पात । विघ्न । २ हलचल । प्राय काला होता है और उनके ऊपर पालिश या लूक की उल्काचिह-सज्ञा पुं० [सं०] एक राक्षस का नाम । तरह चमक होती है। ये दो प्रकार के होते हैं एक धातुमय उल्काघारी–सल्ला पु० [सं० उल्कापारिन] मशालची। मशाल दिखाने उनकाधारी_हा un और दूसरे पापाणमय । घातुमय पिंखो की परीक्षा करने से । | वाला व्यक्ति (को । उनमें विशेष अश लोहे का मिलता है, जिसमे निकल भी मिला। उल्कापात—सा पुं० [सं०] तारा टूटना । लू के गिरना। २. उत्पात । रहता है । कभी कमी थोडा ताँदी और रगा भा मिलता है। विघ्न वाधा ।। इनके अतिरिक्त सोना, चांदी भादि वहुमूल्य घर्तुिएँ कभी नही । पाई जाती । पापाणमय पिड यद्यपि चट्टान के समान होते है, उल्कापाती—वि० [सं० उल्कापातन्] [वि० ख० उल्कापातनी] तथापि उनमें भी प्राय लोहे के बहुत महान कण मिले रहते हैं । दंगा मचानेवाला । हुलचल करनेवाला । उत्पाती । यद्यपि किसी किसी में उज्जन या उद्जन (हाइड्रोजन) और विघ्नकारी । शन के मध मिलr rur कारवन भी पाया जाता है जो उल्कापाषाण---सच्चा पुं० [सं०] पत्थर या घात का वह ठोस पिड सावयव द्रव्य (जैसे, जोव और वनस्पति) के नाम से उत्पन्न जो उल्का के रूप में प्रकाशमार्ग से होता हुआ धरती पर आ कारवन से कुछ मिलता है 1 पर ऐसे पिद केवल पांच या छह गिरता है [को०] । पाए गए हैं, जिनमे किसी प्रकार की वनस्पति को नसों का उल्कामालोसच्चा पुं० [सं० उल्कामालिन्] भगवान शंकर के एक गण पती नहीं मिला है। धातुवाले उल्का कम गिरते देखे गए हैं। का नाम [को॰] । पत्थरवाले ही अधिक मिलते हैं । उल्कापिंड मे कोई ऐसा उल्कामुख-सा पु० [स] [स्त्री० उल्कामु सी] १ गीदडे । २. एक सुरव नहीं है जो इस पृथ्वी पर न पाया जाता हो । उनकी प्रकार का प्रेत जिसके मुह से प्रकाश या अाग निकलती है । परीक्षा से यह वान जान पड़ती है कि वे जिस वडे पिड से अगिया वैताले । टेटकर अलग ६ए होगे, उनपर न जीवों की अस्तित्व रहा होगा, उल्कृषी-~-घल्ला बी० [सं०] १. उल्का । लुक । २. मशाल [को०] । न जल का नामनिशान रहा होगा । वे वास्तव में 'ते नसे भव' उल्था—सुद्धा पुं० [हिं० उलथनामापातर । अनुवाद । तरजुमर । हैं । ये कुछ कुछ उन चट्टान या धातु के टुकडों से मिलते जुलते उ०--इसमे यह शक न करना कि मैंने किसी मत की निंदा हैं जो ज्वालामुखी पर्वतों के मुंह से निकलते हैं । भेद इतना के हेतु यह उल्या किया है।--भारतेंदु ग्रे •, भा॰ १५ ही होता है कि ज्वालामुखी पर्वत से निकलते टुकड़ों में लोहे के पु० ५० |