पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१३१

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सनी उसस उसनना-क्रि० स० [सं० उष्ण] १ उबालना । पानी के साथ आगे उससति जाति ।--रसकुसुमाकर (शब्द॰) । २ साँस लेना। | पर चढ़ाकर गरम करना । २ पकाना। दम लेना । उ०—-एक उसास ही के उससे सिगरेई मुगंध बिदा उसनान-क्रि० स० [हिं० उसनना का प्रेरणा०] उवलवाना । कर दीन्हे |--केशव (शब्द॰) । तैयारी करना । बनाना । पक्रवाना ।। उ०-कूप उसास्यो कुभ मैं पानी भरयौ अटूट । सुदर तृपा सवै उसनीस--सुज्ञा पुं० [स० उष्णीष] ३० उष्णीप’। गई घाए चारयो पूट ।—सुदर० ग्र०, 'भा २, पृ० ७६० ! उसनोदक -सज्ञा पुं० [सं० उष्णोदक] दे० 'उष्णोदक' । उ०— उसाँस--संज्ञा पु० [सं० उछ्वास, उसांस] दे० 'उसास' । अष्टगघ उसनोदक सो असनान कराए !--नदे० । उसाना--क्रि० स० [हिं॰] दे॰ 'ओसाना' । । ग्र २, पृ० २०४। उसेमा--संज्ञा पुं० [अ० वसमह] उबटन । बटना । उसारना--क्रि० स० [सं० उद्+सरण (जाना)] १ उखाडना । उसमान–सुज्ञा पुं० [अ०] मुहम्मद के चार सखाओं में से एक ! हटाना । टालना। उ०—(क) विहँसि रूप वसुदेव निहार । उसरना-क्रि० अ० [सं० उत्+सरण (जाना), प्री० उस्सर] १. कोटि जामिनी तिमिर उसारे ।—जाल (शब्द॰) । (ख) हटना । टलना । दूर होना । स्यानांतरित होना । उ०-- (क) रछी कपि फुडन के मुंडन, उतारो कहो कोटले उसारो पै न कर उठाय घूघुट करत उसरत पट गुझगौट । सुख मोटे लूटी हा रही टेक हीं ।—हनुमान (शब्द०)। २ मकान अथवा ललन लखि ललना की लोट 1--विहारी (शब्द॰) । (ख) दीवार आदि खडी करना । उसरि बैठि कुकि कागरे जो वलवीर मिलाय । तौ कचन के कागरे | उसारा--संज्ञा पु० [सं० उपशीलाअव] ३० ओसारा ।। उसरि--सज्ञा स्त्री॰ [सं० उपशालाअव, प्रा० श्रीसार] दे० 'ओसारा' । पालू छीर पिलाय ।-स० सप्तक०, पृ० २५४१ (ग) उनका । उ०—कहा चुनावै मड़ियाँ, लवा 'मीति उसारि । धर तो साढे गुण और फल नित्य के कामों में ऐसे अधिक विस्तार से पाय तीन हाथ, घना तो पौने चार । कबीर सा०, पृ० १५ । जाता है कि जिसका ध्यान से उतरना असंभव सा है । उसालना —क्रि० स० [सं० उत् + सारण] १. उखाडना। २. गोल विनोद (शब्द॰) । २ वीतना । गुजरना । उ०—सघन हटाना 1 टलनी । ३ भगाना। उ०--अपने बरणवमं प्रति कुज ते उठे भोर ही श्यामा श्याम खरे ! जलद नवीन मिली पालो। साहुन के दल दौरि उसालो |-लाल (शब्द०)। मनो दामिनि वरपि निशा उसरे ।—सूर (शब्द॰) । उसास--संज्ञा स्त्री० [हिं० उ +सास (स० श्वांस)] १ लबी साँस । ऊपर उसरना--क्रि० स० [स० विस्मरण] विस्मृत होना । भूलना। याद, को चढ़ती हुई साँस । उ०—(क) विद्युयो जावक सौति पग, न रहना । उसर्व घ0-सज्ञा पुं० [सं० उषत्रु घ]दे० 'उपबंध' । उ०—ावक, वहिन । निरखि हँसी गहि गाँस । सलज हँसही लखि लियो, आधी हँसी दहन, ज्वलन, शिखी, धनजय, होइ। सक, उसबुध, वायुसख उसास -विहारी (शब्द॰) । (ख) अजव जोगिनी सी वीर्वोत्र पुनि भोई ।नेद० प्र०, पृ० ६४ । सबै, झुकी परत चहु’ पास । करिहैं काय प्रवेश जनु, सव मिलि उसडी—संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] १ एक चिड़िया । २ ऊसर से उगने । ऐचि उसासे ।-(शब्द॰) । २ सांस । प्रवास । उ०--पल न वाली एक प्रकार की घास जो सूख जाने पर कड़ी हो जाती । चले जकि सी रही, थकि सी रही उसास । अवे ही तन रियो है और पैरो में चुभती है। कहा, मन पठयो केहि पास [--विहारी (शब्द॰) । उसलना---क्रि० अ० [सं० उत् +सरण, प्रा० उस्सर] १ दे० ' क्रि० प्र०-छोड़ना ।—भरना ।—लेना । ‘उसरना"। उ०—ऐले फैल मैल खलक में गैल गैल गजन ३. दु खसूचक या शोकसूचक श्वास । ठढी सांस। की ठेल पेल सेल उसलत हैं। तारा सो तरनि धूरि धारा में लगत उसासी-सज्ञा स्त्री॰ [हिं० उसास] दम लेने की फुरसत । अवकाश । जिमि थारा पर पारा पेरावार यों हलत है ।—भूषण ग्र० छुट्टी । उ०—केहु नहि गिरिराजहि घारा । हुमरे सुत भारू पृ० ८८ ! २ तरना ! उतराना । पानी के भीतर से ऊपर कह ठहरा । लेहु लेहु अव ते कोइ लेहू । लालहि नेकु उसासी माना। उ०—टिग बूडा उसला नहीं, यही अंदेशा मोहि । सलिल देहू --विश्राम (शब्द०)। मोह की धार में, क्या निंद आई तोहि ।—कवीर (शब्द०) ।' उसिनना-क्रि० स० [सं० उष्ण] दे॰ 'उसनना' । उसवास--सज्ञा पुं० [सं० उच्छ्वासे, प्रा० उस्सास = ऊँची सांस] १. उंसिर –संज्ञा पुं० [स उशीर] दे॰ 'उशीर' ।—उसिर, गलाव उद्वेग । अावेश । चित्त की चचलता। उ० -जन जीवन उसेवास नीर, करपुर परसत, विरह अनल ज्वाल जानन जगतु है।मिटिगा, दरस सतगुरु पायो ।—जग० वानी, पृ० ४५। २. मति० ग्र०, पृ० २९५५ ६ ख । उ०—कर उसेवास मने में देखे यह सुगध धौं कहा उसीर--संज्ञा पुं० [सं० उशीर] दे० 'उशीर' । उ०—(क) → वसाना ।--कवीर (शब्द॰) । प्रियवदा तू किसके लिये उसीर का लेप और नालसहित उससना -क्रि० स० [सं० उत् + सरण] १, खिसकना 1 टलना । कमल पत्त लिए जाती है ।---शकुंतला, पृ० ४३ । (ख) स्यानांतरित होना । उ०—(क) गोरे गात उससत जो असित | चंदन लेप, उसीर रस उलटो जारत गीत --मारतेंदु ग्र०, पट और प्रगट पहिचान । नैन निकट ताटक की शोभा मडल भा० १, पृ० ३८७ । कविन वखाने ।--सुर० (शब्द॰) । (ख) वैसिये सु उसीला--संज्ञा पुं० [अ० वसीलह 1 दे० 'वसील'। हिलि मिलि, वैसी पिय संग, अग मिलत ने कैटू मिस, पीछे उसीस --सजा पु० [सं० उत्पशोपेक] तकिया। उपधान (को०] ।