पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१३६

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६५० ऊपर गरिन । ३०-ऊणु काउ अरु देह विन मगची तुन ऊब चातक अनम्यउ, महुल ऊपर मेह। वाहर शाजइ ऊगरइ भीगा भाँझ वतियों ना रुच, अन जल नीचे ब्व -तुलसी (शब्द॰) । घरे ।-ढोल, दू० २७२ । 575--वा पुं० १ धूप । घाम । २ ग्रीष्म ऋतु । गर्मी ऊगरा-वि० [हिं० मोगरना] खाली उवाला हुमा । ऊगर--सी पुं० खाली उडाला हुआ भोजन । न*-स/ श्री[म० उपा, प्रा० ॐ हिः उख]ऊया। सूर्योदय ऊगालना+--क्रि० अ० [सं० उदगार, प्रा० उग्गाल, उग्गार | पूर की वेना । जुगाली करना । पगुराना । उ०+-तृत वणक्वइ, पी पिपई, ऊसदमा पु० [3० ऊपर पहाड़ के नीचे की सुखी जमीन । करहुउ उगालेह --ढोला०, ६० ६३१ । भाभर (कुमाऊँ) । ऊघट- सज्ञा स० [हिं०] दे॰ 'अवघद' । उ०—-हम न जाएब तुम उधो-संशा ० [सु० ग्रोवधि] वनपति, वनोपधि । ३० पासे, जाएब ऊघट घाटे कन्हैया -विद्यापति, पृ० ३४६ । पोलाणी धरा कधी पाका, सरदि फालि एहवी सिरी। ऊचल--वि० दे० 'उच्च । उ०—-तइ जो काम हृदय अनुपाम। रोएल बेति०, ८० २०७। घट ऊचल कए ठाम ।-विद्यापति, पृ० ४०६ ! ऊपल'—सा पुं० [सं० उलूपल] काठ या पत्थर का बना हुअा एक ऊचाला- सी पुं० [सं० उच्चलन, प्रा० उच्चालो] १ स्थानातर गहरा रतन जिसमे रखकर धान और किसी अन्न की भूसी गमन । २ अकाले पड़ने पर मरुस्थल की जातियों द्वारा पशुओं अलग करने के f-ये मूमल से कूटते है। अखिली । की। के साथ किसी साधनसपन्न स्थान में जाकर बसना । उ०— हाउन । उ०—ऊल तनिक तिरछा कर के, रि दिए तम्। पिंगल उचालऊ कियउ नल नखर चईदेस । ढोला०, ६० २ । तिन म उर के ।- द ग्र०, पृ० २५१ । ऊचित--वि० [हिं०] दे० 'उचित' । उ०--ताते अापको मोहोर धरना मुहा०—ऊसल में सिर देना= *भट में जान बूझकर पड़ना । ऊचित नाही तो ।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ७३ । ऊत में सिर देकर मूल ते इर] पपा = झंझट में जान- ऊचेड ती(पु)---वि० [स० उच्चैश्चलन्ती] निकलनेवाली । वाहर झकर पढने पर मुसीबतों की क्या चिता। करनेवाली । उ०--सिंधु पर इ स जोमणे, नीची खिबई ऊल-राज्ञा पुं० [२० ऊर्वल एक प्रकार का तृण या घास । निहल्ल । उर मेहदी सज्जयाँ, ऊचेडती सल्ल । ढोला०, ऊल---- दो० [न० ऊपर] उपा। वाणासुर की कन्या का ६० १९१।। नाम जो अनिरुद्ध की परनी वी । उ०-- जम का कहँ अनिरुध ऊ ना --क्रि० स० [हिं० उ+छजना] ऊपर की ओर करना । मिला । नेटि न जाइ लिया पुरुविना ।—जायसी यू ० (गुप्त), उठाना । उ०-छोह घणे ऊछज छरा, केहर फाड़े डाच -- पृ० २५५ । । वाक० ग्र०, भा॰ १, पृ० ११ । । ऊयाणा)---- पुं० ३० 'उपजान' । उ०—-(क) साधी सो ही ऊछव(५--सी पुं० [सं० उत्सव, प्रा० उच्छव] दे॰ 'उत्सव' । उ मीठ है, प्रग्न जनम किंण दीठ। ऊयाण मदता पढ़े, पूरब पहिरावणी राजा करी । उछव गुडी भोज दुवारि । पद ३ पोठ --यांफी प्र ०, भा० २, पृ० २७१ (ख) वीसल० ०, पृ० ११२ । गि नगद भरे, गो गोला घर नुन ।-वकि० ग्र १, ऊल्लाह -सज्ञा पुं॰ [सं० उत्साह, प्रा० उच्छाह! दे० 'उत्साह । उ0 भा॰ २, १० । सजि सिंगार अनद मढी बढी सरस ऊछाह । रगमहल फूली ऊन्वि - मृदा जी० ६० 'ऊख' । उ०--कीन्हेसि ऊयि मीठि रस फिरति चितवन मग चित चाह ।--स० सप्तक, पृ० ३८६ ।। भरी। कीन्हनि ३ वेनि उहू फरी।--नापमी ग्र ० (गुप्त), ऊछेद -संज्ञा पुं० [सं० उच्छेद] उच्छेद । खछन । उ०—-गुरु के पृ० १२३ ।। ऊपिल -वि० [देश॰] पराया । अपरिचित । उ०—-रूपनिधान शब्द ऊछेद को कहत सकल हम जान ।–वीर सा०, ८७४। , ऊछेर–क्रि० अ० [स० उत्त+श्रि० प्रा० उच्छेर] ऊँचा होना। मुजान ले, विन ग्रीबिन दीठि हि पीठ दई है ऊधिल ज्यौं । * गुतरीन मैं, कुल उठना । वधित होना । उ०---कुल उछेर फुयाट, पेला घर की मूल सनक भई है - घनान, पृ० ५। वार्छ पिसण बाकी० ग्र०, भा० १, प० ६१। । ऊगट- पु० [३० उद्वतं, प्रा० उचट्ठ] ६० 'उबटन।'। उ०- ऊज -संज्ञा पुं॰ [देश॰] उपद्रव । ऊमि । अँधेरे । उ०० -हमारो चिए अगट माजिद, यिज़मति कर अनत, मासू तन दान मारयो इनि रातिनी वैचि बेचि जात । घेरौ सखा जान २३१ २प, मिण मुद्धावा कत। - ड न०, ६० ५३५ । ज्यों न पादै छियो जिनि । देखो हरि के ऊज उठाइवे की बात ॐगना-- क्रि० स० [न उद्+/गम्, हि० उगन] दे॰ 'उगन'। रातिबिंबराति वडू बेटी कोऊ निकसति है पुनि । बाहरिदास ३०---(क) नरम २ सय नपा, ऊग न सके फेर । के स्वामी की प्रकृति ना फिरि छिपा दो किंनि ।--स्वामी -:दरिया० नो०, १० ३। (च) ना जान क्या होगा हरिदास (शब्द०)। 5ो पर 1--कीर० मा० न०, १० ३ । क्रि० प्र०---उठना ।—भचारा । ॐगर:--क्रि॰ प्र॰ [१० उद्+11 प्रा० उगल, न० उगरण ऊर्जा--वि० [सं० उत् + या लि] उजडा हुमा । पस्त ।। उधरो] ब। रहना । निकृतना । उ॰---प्राव घर दस वीरान । विना रस्ती का ।