पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

•तो ६५.१ ऊडोर ऊजती -वि० [हिं॰] दे॰ 'उजला' । उ०—-नीरद मरद के दरद नुकरणात्मकपूर्व द्विरुक्ति+सं० नोटक] इधर उवर का काम । | दनि देस करें उपदेस ये नती वेस साजिकै [---डीन० वह काम जिसका कुछ निश्चय न हो। जैसे,—(क) वैठने से | 7०, पृ० ४१ ।। तो काम चलेगा नहीं, कुछ ऊटक नाटक करना ही होगा । न' –वि० [स० विजन]। विज़न । निर्जन । मानवरहित ।। (क) बहू कटक नाटक करके किसी प्रकार गुजर करता है। उ०--जहें देवी अविदा। नगर बाहर मठ जन -नंद ऊटना--क्रि० अ० [हिं० प्रौटना = खेलवलाना] १ उत्साहित 7 ० १ ० २०६! होना। हौसला करनी ! में सूवा ववना । उमर्ग में अाना । —संज्ञा पुं० [हिं०] ६० ‘ऊज'। उ०—-नित कोलाहल नित उ०-(क) काज मही सिवराज वली हिंदुवान वढाइवे को व्रज जन -- घनानद, पृ० २८० ।। उर ऊट 1- भूपण (शब्द०)। (ख) काढे तीर वीर जर्व ५ --क्रि० अ० [हि० ३+जन> उ + अजन> ऊजन] ऊटयो । सर समूह सथून पर छुट्यो –नान (शब्द॰) । श्रादोf त होना । उमं गित होना। ३०-ग्रावे क्हू मनमोहन (ज) मारत गाल कहा इतनो मनमोहन जू अपने मन ऊटे । मो गली पूरब नगिन को व्रज ॐनै ।—वनानंद, पृ० २०३ । रघुनाथ (शब्द॰) । (ग) जूटे लगे जान गन, ऊटै लगे जवान ऊजम (g)--सज्ञा पु० [H० उद्यम, प्रा० उज्झन] दे० उद्यम' । उ० -- जन, छूट लगे वान घन, लूटे लगे प्रान तन 1-गिरिधरदास ऊपड़ी धुड़ी रवि लागी अंतरि, खेतिए ऊजम 'भरिया वाद। (शब्द०)। २ तर्क वितर्क करना । नोच विचार करना । वैनि०, दृ० १६३ ।। ऊटपटाँग-वि० [हिं० अटपट + अग अथवा हि० ऊँट +पट (<म० ऊजर'G-वि० [सं० उज्ज्वल, प्रा० उज्ज्ञल] दे॰ 'उजला' । उ०--- पृष्ठ) +अग] १. अटपट । टेढा मेढा । वेढुंगा । वेमें न । के विर। पाँच वनधिया ऊजर जाहि । वलिहारी वा दास की, असंबद्ध। वजोड । वे सिर पर का। क्रेमविहीन । अड्ड । पक्ररि जो राई वाहिं !--कवीर सा० ऋ०, भा० १, पृ० २२ । ऊजलून । उ०—तुम्हारे सत्र काम ऊटपटांग होते हैं । २. निरर्थक । व्यर्थ । वाहियात । फजूल । ऊजर---वि० [हिं० उजड़ना उजाड । उजडा हुआ । विना वस्ती । विशेप---दिल्ली में 'ऊतपटॉग' वोलते हैं। का । ३०--(क) ऊधौ से जीव कमलनयन विनु । वैव तौ । पलक लगत दुख पावत अव जो निरपि भरि जात अग छिन् । ॐ5 -सज्ञा स्त्री॰ [हिं० उठान] १ उभार । उठाव । उ०—-चातुरी जो ऊबर बरे के देवन को पूरै को माने । तो हम विनु चोख मनोज के चौजनि घूघरिवारि मैं ऊ3 अगैठी ।—पनानद, गे पल भए ऊच्चो क िन प्रीति को ज नै ।---पूर (शब्द०)। पृ० ३७] २ उमग । उ०—-रिस सर्ने रूखि मै ऊठ ऊजq-वि० [हिं० उजला] दे० 'कबर' और 'उजला' । अनूठ में लागति जागति जोति महा !-—पनानद, पृ० २२ ।। ज़री--वि० स्त्री॰ [हिं० उजला दे० 'उनुला' । ३०-सेज ऊज, - ऊठत--क्रि० वि० [हिं० उठना] उठते हुए । उ०—बैठत राम ऊठत चंद ते निरमल, ताप कमल छए ।-नद ग्र०, पृ० ३४२ । हि ऊठत रामहि, वोलत रामहि राम रह्यो हैं ।—सुदर ऊजलq---वि० [हिं० उनला] दे॰ 'ऊजर' । उ०—-मैं अति ऊजल, नं १, पृ० ५०२। ऊठनी –क्रि० अ० [हिं०] दे॰ 'उठना' तव श्री गुसाँई जी हौं प्रभु को प्रिय पाप न रंच गहौ गुनगाही ।—दन० ग्र०, गोविंददास कोटोरि के कहे, जो गोविंददास, ऊठो तुमको पृ० १७२ ! ऊजला----वि० [हिं० उजला] ३० ‘उजना' । उ०--कोइला होय न नवनीतप्रिय जी के सदैव ऐसे ही दरसन होंगे ।--दो सौ ऊजला, नौ मन सावुन लाय t--कवीर सा० सं०, पृ० ५७ । वावन॰, भा॰ १, पृ० २८६ ।। ऊजा सड़--सुज्ञा पुं० [हिं० उजाड+(स्वा० मध्यागम) स] ६० ऊना-क्रि० स० [सं० ऊड] विवाह करना। शादी करना । उ०-... विधि खाइ नवजौवन सौ तिरिया सो ऊड —जायसी ‘इजाड'। उ० -- थल मथई ऊज्ञासक थे इण केहइ रंग । घण (शब्द॰) । | लीजई, प्री मारिज, 'ठाँहि विहाउ सम 1-ढोला दु० ६३२। ऊडा---सधा धु० [स० ऊन, प्रा० उण*> ऊड़] १ कमी । टोटा । ज-सुज्ञा पुं० [अ० वज़] नमाज पढ़ने से पहले मुह हाथ धोना ।। घाटा । गिरानी । अकाल । २ नाश । लोप । उ०- न्हाइ धोइ नहि प्रचारा। ऊजू ते पुनि हूवा न्यारा ।--- क्रि० प्र०---पडेना। सुदर० ग्रं॰, मा० १, पृ० ३०४।। कडी-संवा स्त्री० [हिं० उड़ना] १ जुलाहो के डोडे वा सेठे में लगी झड(७---वि० [हिं०] दे॰ 'जङ' ।' ऊझड़ जात वाट बनावे ।। हुआ टेकुमा जिसपर लपेटे हुऐ सूत को जुलाहे पट्टी पर घूम -कवीर ग्र०, पृ० १३४ । घुम कर चढते जाते हैं। दुतकला ! २. रेशम खोलनेवालो ऊझल"--- वि० [सं० उज्ज्वल] ६० उज्ज्वल' । उ०---द्रुम नव की चरखी जिसपर वे लोग संगल वा रेशम के बड़े बड़े पल्लव लागि, फूल खिले बहु भांत के । रस ऊझर तन जागि, लछो को डालकर एक प्रकार की परेती पर उतारते हैं। अागि मदन के गातु के अनु० ग्र०, पृ० २२ ।। ऊडी-सज्ञा स्त्री० [सं० डे (वर्ण विपर्यय)= डूबना, हि० बुड़ना झल -संज्ञा पुं० [हिं० ओझल] दे॰ 'झल'। उ०——इरपट । १. वुड्डी । गोता। ऊझन मित्र तुम्हारा। पट उठाइ कुछ है उँजियारा ।-ईद्वा०, क्रि० प्र०—-मारना । पृ० १६१ । ।। २. पनडुब्बी चिडिया । उ०—मई धनुक पल काजल दूडी। वह ऊटक नाटक- सुज्ञा पुं० [सं० नाटक अथवा हि० अटक (असशी, भइ धानुक हौं भयो ऊडी !-—जायसी (शब्द॰) ।