पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१३८

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६५२ ऊढे ऊदो ऊढ--वि० [सं० ॐढ] [स्त्री० ऊर] १ व्याहा हुआ। २ घारण ऊतिम -वि० [सं० उत्तम] ६० 'उत्तम' । | किया हुआ । ऊती–समा नी० [सं० ऊति] रक्षा करना। उ०—-अवतारी अवतार ऊढकटक–वि० [सं० ऊढकष्टक]जिसने कवच धारण किया हो [को०)। धरन अ६ जितफ वि भूती । इह सब शाप के अघार जग जिह ऊढ़ना -क्रि० अ० [स० ऊह= सदेह पर विचार] १ तर्क करना । की ऊती --दि० प्र०, पृ० ४४। सोच विचार करना। अनुमान चौधना । उ०—मृगमद ऊयल पथल---सज्ञा पुं० [हिं०] ३० 'उयलपुयल' । उ०—भूचाल नाहिन मृगन मैं ऊढत दिन राति । तिल तरूनि के चिबुक। भूमि ऊथलपथल इस से छत्रि पहु पंग दल }-- में सोई मृगमद भाति ।—मुवारक (शब्द०)। रा०, ६० । २०३८ ।। अढा- सज्ञा स्त्री० [सं० ऊठा] १. विवाहिता स्त्री । २. परकीया ऊद'- सा पुं० [अ०] १ अगर का पेड़। २ ग्रगर की लकडी। ३ एक प्रकार का बाजा । बरतन । नायिका का एक भेद । वह व्याही स्त्री जो अपने पति को ऊद-सद्मा पुं० [सं० उद्] ऊदविलाव । छोड़ दूसरे से प्रेम करे। ऊदवत्ती-सच्चो वी० [अ० अद+हि० वती] एक प्रकार की दक्षिण ऊढि- संज्ञा स्त्री० [म० अढ़ि] १ विवाह । व्याह । २ ढोना । वहुन । करना (को०] । फी बनी हुई अगरबत्ती 1 इसे सुगध के लिये लोग जलाते हैं । ऊणहार -वि० [सं० अनुहार] ३० 'उनहार' । उ०-घट घट के ऊदविलाव--सज्ञा पुं० [सं० द्विडल] नेवले के प्रकार का पर | ऊणहार सय, प्राण परस ह्व जाइ ।—दादू०, पृ० ४२३।। | उससे बड़ा एक जतु जो जल और स्थल दोनों में रहता है । ऊत--वि० [स० अपुत्र, प्रा० अउत्त] १ विना पुत्र का 1 निसान ।। विशेप-यह प्राय नटी के किनारे पर गाया जाता है और निपूता। मछलियो पकड़कर खाता है । इसके कान छोटे, पजे जालीदार, यौ०-ऊत निपूता= नि सतान । वे औलाद । नामून टेढ़ और पूछ कुछ चिपटी होनी है। रग इसका भूरा विशेप-एक प्रकार की गाली है जिसे स्त्रियां बहुत देती हैं। होता है । यह पानी में जिस स्थान पर इता है वहाँ से बड़ी दूर २ उजड्ड । बेवकूफ । उ०—-टोटे मे भक्ती करे, ताका नाम पर और बड़ी देर के बाद उतराता है। लोग इसे मछली सपूत । माया धारी मखरे, केते ही गये ऊत ।---कवीर० स० पकड़वाने के लिये पालते भी हैं । स०, भा० १, पृ॰ ३६ । यौ०.--ऊदबिलाव फी देरी = वह झगड़ा जो कभी न निपट । ऊत- सज्ञा पुं० वह जो नि सताने मरने के कारण पिड आदि न सब दिन लगा रहनेवाला झगडा । पाकर भुरी होता है। उ०-ऊर्च के ऊत, उजाड के भूत । विशेप-कहते हैं, जर कई ऊदबिलाव मिलकर मछलियो सीता के सराये, जनम के शराबी (शब्द॰) । मारते हैं तब वे एक जगह उनकी ढेरी लगा देते हैं और ऊतभूत--सज्ञा पु० [हिं० ऊन+संभूत] भूत, प्रेत, पिशाच आदि । फिर बाँटने बैठते हैं। जब सबके हिस्से अलग अलग लग उ०—ऊत भूत को ध्यावना पाखड और परपच ।—कबीर जाते हैं तब कोई न कोई ऊदबिलाव अपना हिस्सा कम म०, पृ० ५२७ ।। समझकर फिर सबको मिला देता है और फिर बंटाई ऊतम --वि० [सं० उत्तम] दे० 'उत्तम'। उ०—नहिं को ऊतम नाही शुरू होती है। | को हीना। सभ मैं एक जोति प्रभु कीना।—प्राण०, (शब्द०), ऊदरे---सा पु० [सं० उदर] दे॰ 'उदर' । उ०--सवा लक्ष जीव भर ऊतर' --सज्ञा पुं० [सं० उत्तर दे० 'उत्तर' । उ०—वहू दूवरी होत अहारा, तऊ न ऊदर भरे तुम्हारा ।—कबीर० स०, पृ० ६।। क्यो यौं जब बूझो सास । ऊतर कढ़यो न बालमुख ऊँचे लेत - के ऊदलसमा पुं० [३०] एक पेड । गुनबादला । बूटी । उसास --नद० ग्र०, पृ० २९६ । विशेष—यह हिमालय की तराई के जंगलों में बहुत हो ॥ है। ऊतर -- संज्ञा पुं० [सं० उत्तर] वहाना । मिस । उ०—ऊतर ।। वरमा और दक्षिण में भी होता है। इसकी छाल से वडा | कौन हू कै पदमाकर दे फिरे जगलीन में फेरी ।- पद्माकर मजबूत रेशा निकलता है जिसे बटकर रस्सा बनाते हैं। (शब्द॰) । दक्षिण मे हाथी वाँधने का रस्सा प्राय इसी का बनाते हैं । ऊतरु--संज्ञा पुं० [सं० उत्तर] दे॰ 'उत्तर' । उ०—-अाने की ढिग ऊदल सझा पुं० [हिं० उदयसिंह का सक्षिप्त रूप हिं०]महोवे के राजा उसास नहि लेई । मूदै मुख तिहि ऊतरु देई ।-नद० परमाल के मुख्य सामतो में से एक, जो अपने समय के बड़े ग्र०, १० १५० ।। भारी वीरो मे था । यह आल्हा का छोटा भाई और पृथ्वीराज ऊतला –वि० [हिं० उतावला] चचल । वैगवान । तेज । उ०— का समकालीन था । पानी ते अति पातला, धूअ ते अति झीन 1 पवनहू ते अति ऊदसोज-- सज्ञा पुं० [अ० ऊद+फा० सोज] धूपदानी । अगदान । ऊतला, दोस्त कधीरा कीन ।—कवीर (शब्द०)। ऊदा--वि० [अ० ऊद अयषा फी० कबुद] ललाई लिए हुए काने ऊति--संज्ञा स्त्री० [सं०] १ रक्षा । २ उन्नति । ३. मानद ।४ रग का । वैगनी रग का ।। बुनना। ५ सीना । ६ सिलाई की मजदूरी । ७ सहायता। ऊदा-संज्ञा पुं॰ ऊदे रग का घोडी ।। ८ अभिलापा या इच्छा । ६ खेल या क्रीडा । १० कृपा या ऊदी--वि० [हिं० अद+ई प्रत्य०] १ ऊद का या अद सवधी । अनुग्रह कि०] । २ ऊदी का रग । बैंगनी रंग का ।