पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१४०

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कैदरता ते ऊनोदरता तप -सुज्ञा पुं० [सं०] जैन लोगो का एक व्रत जिसमे प्रति दिन एक एक ग्रास भोजन घटाते जाते हैं । ऊनौ –वि० दे० 'ऊन' । उ००-रसहू लगि कले कत सौं कलह न | कर्ज काउ। कानहि जो ऊनौ करे, सो सोनो जरि जाउ । -नद० ग्र॰, पृ० १५२ ।। ऊन् ।ल--संज्ञा पुं० [स० ऊष्णकाल, प्रा० उण्ह + अल = ऊहाल] उष्णकाल । ग्रीष्म ऋतु । उ०--कहिए मालवणी तणइ रहियइ साल्ह विमास । न्हाल3 dोरियउ, प्रगट्यउ पावस मास । -ढोल० ६०, २४२ । ऊप ---संज्ञा पुं० [सं० व अन्न का एक तरह का व्याज । विशेप-सका व्यवहार यो है कि वीज धोने के लिये जो अन्न किसान लेते हैं उसके बदले में फसल के अत में प्रति मन दो तीन सैर अधिक देते हैं। कहीं कहीं ड्योढा सवाई भी चलता है ।। ऊप -सज्ञा स्त्री॰ [हिं॰] दे॰ 'झोप'। उ०—-(क) ती निरमल मुख देख जोग होइ तेहि ऊप ।—जायसी (शब्द॰) । (ख) अजव अनूप रूप चमक दमके ऊप, सदर सोभित अति सुहावनी ।—सुदर ग्र॰, भा॰ २, पृ० १४६ । ऊपजना--- क्रि० अ० [हिं० उपजना] दे० 'उपजना' । उ०---शब्द गहा सुख ऊपजा, गया अंदेशा मोर }--दरिया० वानी. ऊपट - सृज्ञा पुं० [सं० अप + पट] उपवस्त्र । उत्तरीय । वह चादर | जो दीक्षा में गुरु देता है । उ०--ऐसो ऊपट पाय प्रव, जग मग चले वलाय मलूक०, पृ० ३२ । ऊपड़ना-- क्रि० अ० [हिं० उपउना] दे॰ 'उपणना' । उ०— उत्तर दी 'भुई जू ऊपड इ, पालउ पवन घणाह ।-ढोला० दू०, २६६।। ऊप6ि --सज्ञा, सी० [सं० उत्पत्ति] दे॰ 'उत्पत्ति' । उ० –सव बस भाव जरतित मान, सँभरी हुत ऊपत्ति थान -पृ० रा०, ५७५२६३ । ऊपना--क्रि० अ० [हिं० उपना दे० 'उपना' । उ॰—दन के डिंग मानौ ऊपनी है चदनी ।—सुदर० प्र० (जी०), पृ० १६८ । ऊपर-क्रि० वि० [स० उपरि][वि० ऊपरी] १ ऊँचे स्थान में। ऊँचाई पर प्रकाश की ओर । जैसे,—तसर वहुत ऊपर है, नही पहु चौगे । माधार पर। सहारे पर। जैसे,—(क) पुस्तक । मेज के ऊपर है । (ख) मेरे ऊपर कृपा कीजिए। ३ ऊँची श्रेणी में । उच्च कोटि मे । जैसे,—इनके ऊपर कई कर्मचारी हैं। ४ (लेख मे) पहले । जैसे,— ऊपर लिखा जा चुका है। कि । ५ अधिक। ज्यादा । जैसे,—हमें यहाँ अाए दो धटे से ऊपर हुए । ६ प्रकट में । देखने में । जाहिरी तौर पर । प्रत्यक्ष में । वाहर मै । उ०-ऊपर हित अंतर कुदिलाई। --विश्राम (शब्द॰) । ७ तृट पर । किनारे पर। जैसे,—ताल के ऊपर, गाँव से योड़ा हटकर, एक वडा भारी वड का पेड़ है । ६ अतिरिक्त । परे । प्रतिकूल । उ०--वणश्रम कर मान यदि, तव लगि श्रुति कर दास । बणश्रिम ते त्यक्त जे 'श्रुति ऊपर तेहि वास (शब्द॰) । मुहा०--पर ऊपरवाला बत्तिा । अलग अलग । निराले | निराले । विना और किसी को जताए । चपके से। जैसे, | तुम ऊपर ऊर रुपया फटकार लेते हो, हमें कुछ नहीं देते । ऊपर ऊपर जाना= लक्ष्य से बाहर जाना । निष्फल होना 1 व्ययं जाना । कुछ प्रभाव में उत्पन्न करना । जैसे,---मैं लाख कडू, मेरा बहुना तो सव ऊपर ऊपर जाता है। ऊपर का दम भरना= ऊँची साँस चलना । उखुद मम चलना। ऊपर की आमदनी =(१) वह प्राप्ति जो निथत थे। निश्चित से अधिक हो । बंधी तन वाह वा ग्रामदनी के सिवाय मिली हुई रकम । (२) इधर उधर से फटकारी हुई रकम । ऊपर फी दोनो जाना = दोनों आये फूटना। उ०--ऊपर की दोनों गईं हिय की गई हे यि 1 कह कवीर चारि गई तारा कहा वसावे [-कबीर (शब्द०)। ऊपर छार पड़ना - मर जाना। उ०—जो लह ऊपर छार न परे, तो लहि यह तृणा नहीं मरे जायली (शब्द॰) । ऊपर टूट पड़ना = धावा करना । अाक्रमण करना। ऊपर तले = (१) ऊपर नीचे (२) एक के पीछे एक । आगे पीछे । लगातार । क्रमश । ऊपर तले के = मागे पीछे के भाई वा वने । वे दो भाई वा बहनें जिनके बीच में और कोई भाई या बहन न हुई हो। १० तर उपरिया (त्रियों का विश्वास है कि ऐसे लडकों में वरवर खटपट रहा करती है।) ऊपर लेना = जिम्मे लेना। हाथ में लेना । (किसी कार्य का) 'भार लेना। जसे,--तुम यह काम अपने ऊपर लोगे। परवाला =(१) ईश्वर । (२) अफसर । ऊँचे दरजे का । (३) मृत्य। सेवक । नौकर । चाकर । काम करनेवाला । (४) अपरिचित । विना जाना बुझा अादमी । बाहरी अदमी। ऊपर से -(१) वलदी से । (२) इसके अतिरिक्त । सिवा इसके । (३) वेतन से अधिक । धूस । रिश्वत । ॐगर की अाय । भेंट । नञ्च । असाधारण अयि । (४) प्रत्यक्ष में दिखाने के लिये । जाहिरी तौर पर । जैसे,—वह मन में कुछ सौर रखता - गौर ऊपर से मीठी मीठी बातें करता है। ऊपर से चला जाता कचर के चले जाना । रौंदते हुए जाना। ऊपर ही से उसासे लेना = दिखावटी रज या दु ख करना। उ०- -जो न जाने ऊपरे ही से उसके लिये उससे लिया करते हैं। —प्रेमघन॰, 'मा० २, पृ० ५५। ऊपर होना = (१) बङ जाना । अागे निकल जाना । (२) वेढ़ कर होना । श्रेष्ठ होना । (३) प्रधान होना । जैसे,--(क) उन्ही की बात सबके ऊपर है । (ख) भाग्य ही सबके ऊपर है। ऊपरचू --संज्ञा स्त्री० [हिं० ऊपर+च टना= खोटना] वाल को ऊपर से काट लेना और इठल को खड़ा रहने देना । छका। ऊरट । ऊपरहार-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० ऊपर+देश हार गाँव से दूर स्थित कम उपजाऊ भूमि। उ०— गौहान की भूमि और ऊरिहार की भूमि में भी अतर माना जाता है ।-पि०, पृ० ५० | ऊपरि५)---क्रि० वि० [हिं० ऊपर] दे० 'पर'। उ०——वैष्णव का जीवमात्र ऊपर दया रम्बी चाहिए ।-दो सौ बावन०, भा॰ १. पु० १४१ ।