पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१४१

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ॐ ६५५ ऊपरो- वि० [हिं० ६५+ई (प्रत्य॰)] १ ऊपर का । २. ऊवना- क्रि० अ० [सं० २३ जन, पा० उविजन, हि० उवियाना वाहर ६ । वाहुरी। ३. जो नियत न हो । बंधे हुए के उकताना | घराना। अकुलाना। कुछ काल तक एक ही सिवा । गैर मामूली । ४ दिौ । नुमाइशी । अवस्था में निरतर रहने से चित्त की व्याकुलता । च०-ऊवत ऊपरोफसाद--सम्रा धुं० [हिं० उपरी+अ० फसाद] मूतबाधा ।।। हौं डूबत डगत, हौ होलत ही बोलत न काहे प्रीति रीति न प्रेतादि । रिते चले। कहूँ, पदमा कर. त्य] उस सि उसासन सो असुर्वे ऊपरोफेर--सच्चा पुं० [हिं० ऊपरी+फेर] दे॰ 'ऊपरी फसाद' । अपार अाइ अखिन इतै चुले- पद्माकर (शब्द॰) । ऊपल-सच्चा पु० [हिं० उपल] दे उपल'। ऊबर –वि० [हिं० उबरना अतिरिक्त । अधिक। ऊपली-वि० [हिं०] दे॰ 'ऊपरी' । उd---दादू यह परिख ऊबरना--क्रि० अ० [हिं० उबरना] दे॰ 'उबरना । चराफी ऊगली, भीतर की यहू नहि । अतरि की जाने नहीं, ऊव - संज्ञा पुं॰ [देश॰] ऊसर । उ०—ऊव जलवन कायर, तायै खोटा खोहि !-दादू०, १० २८८ । । विद। कुल विवहार - वाँकी० ग्र॰, भा॰ २, पृ० ३५ । ऊपलो - वि० [हिं० ऊपर+ो(प्राय)]ऊपर का । ऊपरी । उ०- ऊवेड़ना-क्रि० स० [हिं० वेरना] दे॰ उवेरना' । उ०--जेडो थारो नाक सरीखा ऊपलो होठ ।-व० । सो, पृ० ७२। सीहा जाड, ऊबेई ऊवह !--वाकी० ग्र०, मा० ३, ऊपाड़ना-क्रि० स० [हिं० उपाडना] दे० 'उप्रारना' । ३०--- ऊपाडे । पृ १७ । । | अब जिली, पर निदारी पोट |--वाँकी० ग्र०, मा० २, वट---सल्ला- पु० [हिं० ऊवट] ० ‘उवट' । उ०—चढ उद्बठ पृ० ५८ । वाट थट्ट सुचल्ले |-- रासो, पृ॰ ६६ । । ऊबंब' —सच्चा पुं० [सं० उद्वघ] छ । उ०—मुरझ बाँन मेवाड, ऊभ७)'--वि० [हिं० ऊभना= खड़ा होना ] ॐवा । उभरा हुआ। राण राजाँन सरीखा। मण देख वध, करे कुण बध परीखा। 'उठा हुा । उ०--ॉर पीपर सिर ऊभ जो कीन्हा । पाकर तिन सूखे फर दीन्हा । यसी (शब्द॰) । --० रू० पृ.० २३ । ऊभq--सज्ञा स्त्री० [हिं० व ऊवंध--वि० वधरहित । मर्यादा रहित । उ०—चिवर खाँन सकवंधे, १ व्याकुलता । ऊ । उ०— राजं लीन्ह कम भर सखा । ऐस वोन जनु वो न निरासा । कटक अनमव हिलकर। असपत हुदै सामंद, फीध ऊवध जायसी ग्र ० (गुप्त), पृ० ६८ । २ उमस । गरमी । ३. प्रमेसर }-रा० ढ०, पृ.० १५३ । ।।' हौसला । उमगे । ढुव्व । ऊबंधना--क्रि० स० [हिं० वाँघना] वाँधना । उ०—सुजै घर वाघौ ऊचुर्भ--संज्ञा स्त्री० [हिं० ऊभ + चुभ १ डूबना उतरना । २ सकवधी वाँधे पाप किया ऊवधी –रा० रू०, पृ० १४ । | अशा निराशा के मध्य की स्थिति । ऊब- संज्ञा स्त्री० [हिं० बना] कुछ काल तक निरतर एक ही । क्रि० प्र० होना=३०-व्यम्त महा कच्छप सी घरणी, ऊभअवस्या में रहने से चित्त का ब्याकुलता । उद्गे । धवडाहट | चुम थी विकलित सी --कामायनी, प० १५।। उ०--चहत न काहू सो न के हृत काहू की सुबकी सहत, उर ऊभचुभ--क्रि० वि० पूर्ण रूप से या सरावोर (जल)। अंतर न ऊव है -तुलसी (शब्द॰) । ऊभट --सच्ची पु० [हिं० वट] दे॰ 'वट' । उ०----पूरे को पूरा यौ०-ऊबकर साँस लेना=बैंडी साँस लेना । दीर्घ निश्वास मिले, पडे सो पूरा दाद 1 निगुरो तो ऊभेट चले, जव तब करे खीचना । उ०—हाय बॉय जव वैठो लीन्ह ऊवि के साँसे । कुदाव ।-कवीर सा० स०, भा०-१, पृ० १७ । —जायसी (शब्द॰) । ऊभना --क्रि० अ० [सं० उद्भवन = ऊपर होना, मुज० ऊम् = ऊब-सज्ञा ली० [हिं० ऊम= हौसला, उमंग उत्साह । उमग'! ' खड़ा होना] १ देठमा । खडा होना। उ०—(क) विरहिन उ०—नदनैदन ले गए हमारी अब व्रज कुल की ऊब । सुरश्याम ऊमी पय सिर पयी पूछे घायएक शब्द कहो पीव का कवरे तजि और सूझे ज्यो खेरें की दू३ ।—सूर (शब्द०)। . मिलेंगे ग्राय |--कवीर (शब्द॰) । (ख) एक खडा होना लहै। ऊवटसा पुं० [सं० उद्- बुरा+देमं, वट्ट- मार्ग] कठिन इक ऊमा ही बिललाय समरथ मेरा सइया सूता देइ जगाय। मागं । अटपट रास्ता । उ०--जवे वर्षा में होते है मारग जल --कवीर (शब्द॰) । (ग) ऊभा मारू बैठा मारू' मारू जागत सयोंग । वाट छाँडि ऊबट चलत सुकन्न सयाने लोग ---- सुता । तीन भवन मे जाल पसारू कहाँ जायगा पूता --दादू गुमान (शब्द॰) । ' (शब्द॰) । (घ)'करुणा करति मदोदरि रानी । चौदह सहस झवट--वि० ऊबड़ खावेड़ । ऊँची नीचा । उ०—ऊवट न गैल सदा सुदरी ऊभी उठें न कंत महा अभिमानी --सुर (शब्द॰) । सिंहून की शैल बनजोर के ले वैल मानों वाले इकरात से । २. उत्पन्न होना । 'आना या लगना (लाज)। उ० –ढोल —हनुमान (शब्द॰) । | मन चनपय ययउ ऊभउ साहइ लाज, साम्हउ वीना प्राविय, ऊवडे खावड-वि० [अनु॰] ऊँचा नीचा !-जो समथल न हो। अटपट। ' प्राइ कियउ सुमराज ढोला० दू० १०५ ।। ऊबटना -क्रि० अ० [उद्वृत] उत्पन्न होना । पैदा होना।' उदित ऊभना-क्रि० [हिं० ऊवना] घबडाना । व्याकुल होना । होना । उ॰---काट जिका कुल ऊबट आठ वाट इतफाक ।- ऊभरना--क्रि० अ० [हिं० उभरनादे० 'उभरना' । ३०- उरम बाँकी ५०, भा० १, ९० ६४। झलंझण कमरिय !--[० ख०, १० ३४। ।