पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१४२

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ऊभा-वि० [हिं० ॐभना= खड़ा होना] खेड़ा । स्थिते । उ०—परी ऊर --वि० हिं० और] ३० 'मीर' 1 ३० -रिव करि ऊ ! कर अ ऊमा धावे, बाहर तिर दौठा अवै ।-कबीर० सा०, सामग्यो राव, मो सवा नही ऊर भुवाल |-वी० रसो, पृ० १४२ ।। | पृ० ३२ । कभासांसी-संज्ञा स्त्री० [हिं० ॐवना + सॉस अथवी ऊभ + सास] ऊर--संज्ञा पुं० [हिं० छोर] शोर । अत । । दम घुटना । साँस फूलना । ऊबना ।। ऊरजु' –सम्रा पुं० [सं० उरोज दे० 'उरोज 1 ३०-तरुनी, रमन कभि -वि० [हिं० क्रम] दे॰ 'म' । उ०—निसेसि ऊf म मरि सुदरी, तनु ऊरज पुनि साइ । तिम तास तिहु लोक में रची। लीन्हेसि स्वाँसा । भई अधार जियन कै असा -जायसी विरचि न कोइ--नद० ग्र०, १० ८६ । ग्र ० (गुप्त), पृ० २८८ ।। ऊरज -सद्मा पुं० [सं० नं] दे॰ 'कर्ज' । ऊमती - वि० [सं० उन्मत्त] १ उन्मत्त । पागल । विक्षिप्त । ऊरण'- सम्रा पुं० [सं० प्रावरण] अावरण वस्थे । कपडा । 30--- २ विचारहीन । उ०--चिल्हानी वलि पति सो, ऊमती वर सुभ ऊरण जघ सुनोमय । पदकन्न अभूपण सरन लय ।- प० जत । वह गुरजन वत्ती सुनो सो दिट्ठी दिपि कत ।--पृ० रासो, पृ० १६४ । रा०, ६१५१८५१ ।। ऊरण --वि० [हिं० करूण १० 'उऋण'। उ०•-करने जग ऊमक -सज्ञा स्त्री॰ [सं० उमग] झोक ! उठान । वेग। उ०-- ऊरण करण पर दुख हरण पार --fi० ग्रे २, इक ऊमक अरु दमक सहारे । लेहि सौंस जैव वीसक मारे -- पृ० ७७ ।। लाल (शब्द॰) । ऊरधG-वि० [सं० उध्वं] दे० 'ऊर्ध्व' ।। ऊमट -सज्ञा पु० [देश॰] क्षत्रियों का एक भेद । उ०—ऊमट अनेक ऊरवरेता--वि० [सं० ऊर्ध्वरेतस] दे॰ 'ऊर्ध्वरेता' । उ०—प्रर अवनी निधान । अरवीन चढे अाए ग्रभान [---सूदन(शब्द०)। समुझाये योग ही वहु मोठि बहु अग । ऊरधरेता ही कही ऊमटना —क्रि० स० [हिं० उमडना] दे॰ 'उभइना' । ० जीतन विद अनग ।--भक्ति०, पृ० ५७ । विरह महाघण ऊमटय, थाह निहालइ मुघ्घ ।---ढोला० ऊरम--सा स्त्री॰ [देश॰] अात्म कलाओं में से एक । उ०--ऊरमें ६० १५ । वोलिये मन धूरम वोलिय पवन !-गोरख०, पृ० २०८।। ऊमना)---क्रि० स० [देश॰] उमडना । उमगना। उ०—वरसत ऊरमचूरम- वि० [हिं० करम+धूम अचवद्ध। मसगत । उ०— झूम झूमि उनए बदर महि कहें चूमि चूमि। निसरि परी । ऊरम-धूरम जोती झाला --गोरख०, पृ० २०१। साँपनि सी नदिया वेगि चली ऊमि ऊमि ।-देवस्वामी ऊरमी---सल्ला स्त्री० [सं० कमि] लहर । उ०——-सरित सग करि (शब्द॰) । छुभित सु सिधु । उमगि ऊरमी ६ गयौ अधु नद० ग्रे , ऊमर--मंज्ञा पुं॰ [स० उदुम्वर] १ गूलर । उद्धर । २ वनियो की १० २२६ ।। | एक जाति । ऊरव्य--सधा पुं० [सं०] करूज । वैश्य ।। ऊमर --सूज्ञा स्त्री० [अ० उम्र] दे॰ 'उम्र' । उ०-दोडे ऊमर । ऊरससच्चा जी० [स० विरस विरस । स्वादहीन । उ०---नीरस पटका देती, छित जिमि बादल छाया ।—रघु० रू०, निगोड़ो दिन भरे भीरू ऊरसर ।--घनानंद, पृ० १३८ । पृ० १६ । ऊमरा--संज्ञा पुं० [हिं० ऊमर] दे० 'अमर' । ऊरा- वि० [हिं० पुरी का अनु०] न्यून । कम । उa--पूरन सारु ऊमरि —सज्ञा पुं० [हिं० ऊमर] दे॰ 'ऊमर' । उ०—तरू ऊमरि । न केवहू ऊर। |-- प्राण०, पृ० ३६। को अासन अनूप । यद् रचित हैय मय विश्वरूप ।—राम० करी सो जी० [देश॰] जुलाही का एक औजार । दुतकला। घमं०, पृ० १५५ । सलाक। ऊमुस-सज्ञा स्त्री० [हिं० ऊमस] ६० ‘उमस' ।। ऊरु--सा पुं० [सं०] जानु । जघा । रान। उ०—रोक सकता हूं। ऊमहना--क्रि ० अं• [हिं० उमहना] दे॰ 'महना' । उ०--महिव ऊरु कै बल से ही उसे, टूटे भी लगाम यदि मेरी कभी भूले | भारू ऊमह्मा, खोडइ होइ रहह ।-टोला० ६०, ३१७ । से ।-साकेत, पृ० ७३ ।। ऊमा-सज्ञा [हिं॰] दे० 'उदी। ऊरुग्लानि-सा जी० [सं०] जाँघो को कमजोरी (को॰] । ऊमिरि-सज्ञा स्त्री० [अ० उम्र दे० 'उग्र' । उ०—वीती ऊमरि मोर ऊरुज-सच्चा गुं० [सं० रु+ज] १ जघा से उत्पन्न वस्तु । २ । वीवो निसि न वियोग --नट०, पृ० १०४ । | वैश्य जाति जो कि ब्रह्मा के जघों से उत्पन्न कही जाती है । कमी--सृज्ञा स्त्री० [सं० उम्बी] जौ या गेहूं की हरी वाल । ऊरुज–वि० जो जाँघ से उत्पन्न हों (को०] । ३० ‘उव' ।। ऊरुजुत्मा--सच्चा पुं० [स० ऊरुजन्मन्] वैश्य । कर'-- सज्ञा पुं॰ [देश०] पजाव में, धान बोने की एक रीति । ऊरुफलक--सज्ञा स्त्री० [सं०] जांघ की हड्डी । कूल्हे की हड्डी (को०] । जड़हन रोपना । ऊरुसवि--संज्ञा स्त्री० [सं० ऊरुसन्धि] पट्टा । जप को जोड (फौ] । विशेप-वेहन के पौधे जब एक महीने के हो जाते हैं तब उन्हें ऊरुसभव--वि० [अरुसम्भव जाँध से उत्पन्न (को०] । पानी से भरे हुए खेत में दूर दूर पर बैठाते हैं। ऊरुस्कभ-सज्ञा पुं० [स० ऊस्कम्भ] दे॰ 'ऊरुस्तम' (को०] }