पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१४४

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ऊवंताल ६५८ ऊर्न नाभि बल बड़े होकर तप करते हैं। २ शुरभ नामक सिह जिसके ऊद्ध्व रेता--सा पुं० १ महादेव । २ भीष्म पितामह । ३. आठ पैरो मे से चार पैर ऊपर को होते थे । हनुमान । ४ सनकादि । ५ सन्यासी । ऊदृवंताल-सुज्ञा पुं॰ [स०[ सगीत में एक ताल विशेष । ऊदृध्वंलगी–सच्चा पुं० [सं० उद्ध्वं लिङ्गिन्] १ शिव । महादेव । ऊदुवै तिक्त-संज्ञा पुं॰ [सं०] चिरायता ।। । २. ऊर्ध्वरेता । ब्रह्मचारी ।। ऊर्ध्वदृष्टि-वि० [स०] जिसकी दृष्टि ऊपर की ओर हो । ऊध्र्वलोक-सच्चा पुं० [सं०] १ प्रकाश । २ वैकुठ । स्वर्ग । | महत्वाकाक्षी । ऊद्ध्वंवात--सज्ञा पुं॰ [सं०] १ अधिक डकार आने का रोग । २ ऊध्र्वदष्टि-सज्ञा स्त्री० योग की एक क्रियाविशेष जिसमे दृष्टि ऊपर | शरीर के ऊपरी भाग में रहनेवाला वायु (को॰) । की अौर ले जाकर त्रिकुटी पर जमाते हैं[को॰] । ऊदुवैवायु-सज्ञा स्त्री० [सं०] १ इकार । २ शरीर के ऊपरी भाग ऊवदेव--सज्ञा पुं० [३०] विष्णु । नारायण । मे रहनेवाली वायु (को॰) । ऊध्र्वदेह-सुज्ञा स्त्री॰ [स०] मृत्यु के पश्चात् मिलनेवाला सूक्ष्म या ऊध्र्वशायी--वि० [स० क्व शायिन्] ऊपर की ओर मुंह करके लिगशरीर को। सोनेवाला ।। ऊध्र्वद्वार--संज्ञा पुं० [स०] ब्रह्मरध्र । दसर्वी द्वार। ब्रह्मांड ऊध्र्वशायी-सज्ञा पुं० शिव । महादेव । का छिद्र ।। ऊर्ध्वंशोधन---संज्ञा पुं० [सं०] वमन 1 के [को०] । विशेप कहते हैं, इसमें प्राण निकलने पर मुक्ति होती है। ऊद्ध्वं श्वास--संज्ञा पुं॰ [सं०] १ ऊपर को चढ़ती हुई साँस । उल्टी ऊद्ध्वं नयन–सझा पु० स०] शरभ नामक जतु । साँस । २ श्वास की कमी या तगी । ऊवं नयन- वि० १ जिसके नेत्र ऊपर की ग्रोर हो । २. महत्वा क्रि० प्र०-चलनी --लगना । काक्षी (को॰] । कवनेश-वि० [स०] १ जो ऊपर देख रहा हो । २ महत्वाकाक्षा ऊद्ध्वंसान--वि० [सं०] १ अधिकाधिक ऊपर जानेवाला 1 २ अागे | वाला [को०] । | निकल जानेवाला ।। ऊर्ध्वपाद–सच्चा पुं० [स०] शरम नामक पौराणिक जतु । ऊर्बसीन—सज्ञा पुं० पर्वत की चोटी । पर्वतशिखर । विशेप---इसके आठ पैर माने गए हैं जिनमें से चार ऊपर को ऊध्र्वस्थ-वि० [सं०] जो ऊपर हो । उच्च [को०] । | होते हैं । ऊद्वस्थिति--सज्ञा स्त्री० [सं०] १ अश्व का शिक्षण । धौड़ा ऊर्ध्वपू डू–सुं० पुं० [सं० च्वपुण्ड्रोखडा तिलक । वैष्णवी तिलक । निकालना या फेरना । २ अश्व की पीठ । ३ उच्चता । ऊध्र्ववाह--सच्ची पु० [स०] एक प्रकार के तपस्वी जो अपने एक उदात्तता [४ उत्थान । समुत्थान । ५ सीधा खडा होना । खड़े होने की स्थिति को०] । बाई को ऊपर की ग्रोर उठाए रहते हैं। वह बाहु सुखकर वेकाम हो जाता है। ऊर्ध्वस्रोता--वि० [स०] स्त्री प्रसग से बचनेवाला । ऊ द्ध्वं रेता। ऊर्ध्ववृहती--सज्ञा स्त्री॰ [सं०] एक वैदिक छद -प्रा० भा० प०, ब्रह्मचारी (को०)। १० १७२ ।। ऊध्र्वाग--संज्ञा पुं० [सं० उर्वाङ्ग] शरीर का ऊपरी माग । सिर । ऊदच्वंमडल-सधा पुं० [स० उमडल] वायुमंडल का । ऊपरी म ह । मस्तक । माग, जो पीतल से २० मील की ऊँचाई तक माना जाता ऊद्ध्वकर्पण-संज्ञा पुं० [स०] ऊपर की ओर का खिचाव । हैं [को०] ।। ऊध्र्वायन--सज्ञा पुं० [स०] १ ऊपर की ओर गमन । २ ऊपर ऊदध्वमथो–वि० [स० ३ दुर्वमन्यिन्] १ जो अपने वीर्य को की अोर उडने का कार्य । ३ स्वर्ग जाने का मार्ग [को०] । | गिरने न दे। स्त्रीप्रसग से वचनेवाला । ऊद्ध्वरेता । ऊवरोह-सज्ञा पुं॰ [सं०] दे० 'उर्वारोहण' । ऊर्ध्वमय-सच्चा पु० ग्रह्मचारी । ऊध्र्वारोहण-सज्ञा पुं० [सं०] ऊपर की ओर चढना । २ स्वर्गाऊर्ध्वमुख–सचा पुं० [सं०] अग्नि । अाग । | रोहण ) स्वर्गगमन । ३ मरना । देहात । इतकाल । ऊध्र्वमुख–वि० जिसका मुहै ऊपर की ओर हो । ऊर्ध –क्रि० वि० [स० उदध्वं] दे॰ 'ऊवं' । ऊद्र्व मूल-सच्चा पुं० [स०] संसार । दुनिया । जगत् । ऊर्ध्व--क्रि० वि० [स०] दे॰ 'अद्वं' । ऊर्वमूल--वि० जिसकी जड़ ऊपर की ओर हो। ऊध्र्वं- वि० दे० 'ऊर्ध्व' ।। ऊद्ध्वरेखा सच्चा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार रामकृष्ण अादि विष्णु ऊध्र्वदृग-क्रि० वि० [सं० अर्घवृक्, ऊच्चंदू] अखि ऊपर किए हुए के अवतारो के ४८ चरणचिह्नों में से एक चिह्न । या उठाए हुए। उ०-ऊर्ध्वदृग गगन में देखते मुक्ति मणि । विशेप- अँगूठे और अँगूठे के निकटवाली अंगुली के बीच से निकल -गीतिका पु० २० ।। | कर यह रेखा सीधे लंबे अकार में ऐडी के मध्य भाग तक ऊध्र्वा--सज्ञा झी० [सं०] एक विशेष प्रकार की प्राचीन नौका जो गई हुई मानी जाती है। ३२ हाथ लत्री, १६ हाय चौडी मोर १६ हाय कैंची ऊर्ध्वरेता-वि० [सं० उद्ध्वरेत्तस] जो अपने वीर्य को गिरने न होती थी। दे । ब्रह्मचारी । स्त्रीप्रसंग से परहेज करनेवाला । | - ऊर्ननाभि---संज्ञा पुं॰ [सं॰ 'ऊर्जनाभि दे० 'ऊर्णनाभ' । उ०