पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१४६

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ऊपण ऊपण----सज्ञा पुं० [स०] १ चीता या चित्रक) २ काली मिर्च । ३. सोठ । शुठी । ४ पिप्पनी। ५ पिप्पलीमल । ६ । | चव्य [वै] । कपद -सज्ञा स्त्री० [स० ओषधि] दे॰ 'पधि', 'प्रोपधी' । उ०--- काहरक पीवी न ऊपद खाई, दाँत कष्ट बध्यो गोरही।-वी० सो ०, पृ० ६४ ।। ऊपधी –सज्ञा स्त्री० [स० ओषधि] दे० 'औषधि', 'ओपधी' । उ०-ऊपधी सव्व मनि सब्ब घात । वर वृष्य लता फल पुद्दप पात ।—पृ० रा०, १२३३ । ऊपर-सज्ञा पुं० [सं०] वह भूमि जहाँ रेह अधिक हो और कुछ उत्पन्न न होता हो । ऊसर । ऊपर-वि० खारा । क्षार [को॰] । ऊपरज-सज्ञा पुं० [सं०] नोनी मिट्टी से तैयार किया हुआ नमक। २ एक प्रकार का चुवक (को॰] । ऊपरना —क्रि० प्र० [हिं० उसरना] हटना। उतरना । अलग होना । उ०—तो पाई जरिया सिर पर घरिया विस ऊपरिया तन तिरिया 1-सुदर ग्रं॰, भा॰ १, पृ० २३० । ऊपा-- संज्ञा पु० [सं०] १ प्रमात । सबेरा । २ अरुणोदय । पौ फटने की लाली । ३ वाणासुर की कन्या जो अनिरुद्ध को व्याही गई थी। ऊपाकाल—संज्ञा पुं० [सं०] प्रात काल । सबेरा । तडका ।। ऊपापति- सज्ञा पुं० [सं०] श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध । ऊपी संज्ञा स्त्री० [सं०]नोना लगी हुई मिट्टी। रेहवाली जमीन [को॰] । ऊष्म–सज्ञा पुं० [स०] १ गर्मी । २ माप । ३ गरमी का मौसम। ऊष्म–वि० गर्म । ऊष्मज-सज्ञा पुं॰ [सं०] दे० 'उष्मज' । उ०-ऊष्मज खान विष्णु | ने उत्पन्न किए !—कबीर म०, पृ॰ ४० । कमज–वि० [सं०] १. गर्मी में उत्पन्न । २ गर्मी से उत्पन्न होनेवाला ।। ऊष्मप-संज्ञा पुं० [स०] १. अग्नि । २ एक पितृवर्ग [को०)। ऊष्मवर्ण-सज्ञा पुं० [सं०] ‘श, प, स, ह' ये अक्षर ऊष्म कहलाते हैं। विशेप–शायद इस कारण कि इनमें उच्चारण के समय मुहै। से गरम हवा निकलती है । ऊष्मा--सज्ञ, स्त्री० [स० ऊष्मन्] १ ग्रीष्म काल। ३ तपन । गर्मी। ३ भ प । ४ ग्राबेश । क्रोध [ये ।। ऊष्मायण-सज्ञा पुं० [स०] गरमी का मौसम [को०] । ऊसन'—सज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का पौधा । जिससे तेल निकलता है। विशेष—यह सरसों की तरह जौ शोर गेहू के साथ बोया जाता है और इनमें से तेल निकलता है जो जलाने के काम में अाता है। इसकी खली चौपायों को दी जाती है। इसे जेवा और तरमिरा भी कहते हैं। ऊसन' –वि० दे० 'उष्ण' । उ०—सीत वायु ऊसन नहि सरवत काम कुटिल नहि होई -रै० बानी, पृ० ११ । ऊहापोह। ऊसन-वि० [सं० अवसन्त] अलसी । निश्चेष्ट । उ०—करहा वामन रूप करि, चिहू चलणे पग पूरि । तु थाकर, हू असून, भैइ भारी घर इरि ।—होना०, दू० ४६७ । ऊसर'—-सज्ञा पुं० [सं० ऊषर वह भूमि जिसमे रेह अधिक हो और कुछ उत्पन्न न हो । उ०-~-ऊसर बरसे तृण नहिं जामा - तुलसी (शब्द॰) । महा०—ऊसर में कमल खिलोना = असभव कार्य को समवे कर दिखाना । उ०—खोज को धूल में मिलाकर भी, जो नहीं धूल मे मिना देते । ऊसरो मे कमल खिला देना, वे हँसी खेल हैं समझ लेते --चुमते०, पृ० ८ । । कसर-वि० (भूमि) जिसमे तृण या पौधा न उत्पन्न हो । ऊससना--क्रि० अ० [सं० उच्छ्वास> हि० 'उसस' से] उच्छ्वसित होना। अनदित होना । उ०—ऊससे घण उछाह, चाँप वाण घरे चाह । रघु० रू०, पृ० ७६ ।। ऊसार -सज्ञा पुं० [सं० उपशील] दे० 'ग्रोसार'। उ०-पाड्यो ऊसारे तेड्यौ छइ राई, छीनी उलगी माँई सू' कही ।--बी० रासो, पृ० ८३ ।। ऊसास-सज्ञा पुं० [हिं० उसास] दे॰ 'उसास' । उ०—चे ऊसास अगिनि की उषी । कुवरि के देवी ज्वालामुखी ।-दए ग्र०, पृ०, १३४ । ऊसे —क्रि० वि० [हिं०] वैसे । उस तरह के । उ०—साहिब सेती रहो सुरखरू अतिम वखसे ऊसे से ।—सुदर ग्र ०, भा० १, पृ० २३ । ऊह-अव्य० [हिं०] १ वलेश या दु खसूचक शब्द [ ओह । २ विस्मयसूचक शब्द । ऊह-सुज्ञा सं० पुं० १ अनुमान । विचार । उ०—सँग सवा लाख सवार । गज त्योही अमित तयार । बह सुतर प्यादे जूह । कवि को कहै करि ऊह ।-रघुराज (शब्द॰) । २ तर्क । दलील । ३ परिवर्तन । फेरफार (को०)।४ परीक्षा (को०)। ५ अध्याहार द्वारा अनुक्त पद की पूर्ति करना (को०)। ६ तर्क की युक्ति । तकंयुक्ति (को॰) । ऊह-संज्ञा स्त्री० [सं०] किंवदनी । अफवाह । ऊहन-सज्ञा पुं० [सं०] [वि० हनीय] १ तर्क। दलील । २ परिवर्तन । वदलाव (को०) । ३ सुधार (को॰) । ऊहनी- सज्ञी जी० [को०] [सं०] झाड़ । वढनी [को०] । ऊहनीय-वि० [स०] १ तर्क करने योग्य । तकनीय । विचार योग्य २ परिवर्तन या सुधार योग्य (को॰) । ऊहाँq--क्रि० वि० [हिं० ‘तहाँ' के बजन पर] दे॰ 'उह' । उ०—तब हरिवंश जी ऊहाँ दडवत करि परदेश के सर्व समाचार कहें दो सौ वावन०, भाग १, पृ० ७६ । ऊहा--सज्ञा स्त्री० [सं०] ३० ‘ऊद' ।। ऊहापोह- सज्ञा पुं॰ [सं० ऊह+अपोह] तर्क वितर्क । सोचविचार। जैसे,--इस कार्य की साधन सामग्री मेरे पास है या नही, अशक्त पुरुष इसी ऊहापोह में कार्य का समय व्यतीत करके