पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१४७

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इहिन ऋची चुपचाप बैठ रहता है । उ०—-क्या बाहर की ठेलापेली ही ऊही-वि० [सं० उहिन्] ऊहा करनेवाला । तर्क वितर्क करनेवाला । कुछ कम थी, जो भीतर भी भाप का ऊहापोह मचा । ऊही --सर्व० दे० 'वहीं । उद--जिणि देसे सज्ज वसई, तिणि -मिलन- पृ० १६० ।। दिसि बजउ वाउ। उहाँ लगे मो लुग्गी, ऊहीं लाख पसाउ । विशेप- यह बुद्धि का गुण कहा गया है जिसमें किसी विचार को ढोला०, दू०७४। | ग्रहण किया जाता है। ऊह्य--वि० [सं०] जो ऊहा करने योग्य हो। तेक्यं । तर्कनीय ऊहिनी--सज्ञा स्त्री० [सं०] झाडे । बुहारी [को॰] । [को०] । --एक स्वर जो वर्णमाला का सातवाँ वर्ण है। इसकी गणना जो किनारों पर लाल, बीच में पीलापन लिए काला, छूने में स्वरो में है और इसका उच्चारण स्थान सस्कृत व्याकरणानुसार कहा और रीछ की जीभ के आकार का हो । मद्ध है। इसके तीन भेद हैं--हस्व, दीर्घ और प्लुत । इनमें ऋक्षनाथ--संज्ञा पुं० [सं०] १ नक्षत्रो के राजा चद्रमा । २ भालुओं के से भी एक एक कै उदात्त, अनुदात्त अरि त्वरित तीन तीन सरदार जाववान् । भेद हैं। इन नौ भेदो में भी प्रत्येक के अनुनासिक और हृक्षनेमि- संज्ञा पु० [सं०] विष्णु (को०] । निरनुनासिक दो दो भेद हैं। इस प्रकार ऋ के कुल अठारह ऋक्षपति—सज्ञा पुं॰ [सं०] दे० 'ऋक्ष नाथ' (को॰] । भेद हुए । ऋक्षप्रिय---संज्ञा पुं० [सं०] वृषभ । वैल [को०] । ऋजासन-व्रज्ञा पु० [सं० ऋज्ञान] मेघ । वादल [को०] । हृक्षर--सज्ञा पु० [सं०] १ पुरोहित । २ काँटा । ३. वप । ४. ऋ–सज्ञा स्त्री० [सं०] १ देवमाता । अदिति । २ निदो । बुराई । वाष्प । भाप [को०]। ऋ-संज्ञा पुं० [स०] स्वर्ग को ।। ऋक्षराज-सज्ञा पु० [सं०] दे॰ 'ऋक्षनाय' [को०]। ऋकार-सज्ञा पु० [स०] 'ऋ' स्वर अौर उसकी ध्वनि (को०] । ऋक्षवान-संज्ञा पु० स०] ऋक्ष पर्वत जो नर्मदा के किनारे से ऋक्सं ज्ञा स्त्री॰ [स०] १. ऋचा । वेदमश्र । २ स्तुति । स्तोत्र। ३ । गुजरात तक है । यह रैवतक पर्वत की चोटी से उत्पन्न अर्थात् | पूजा(को०)। ४ काति । प्रमा । रोचिस् (को॰) । उसी का एक भाग माना गया है । ऋक्सं ज्ञा पुं० ऋग्वेद । ऋक्षविडेवी-संज्ञा पुं॰ [स० ऋक्षविडम्वन्] ठग ज्योतिषी [को०] । ऋक्ण-वि० [सं०] आहूत । चोट खाया हुआ । क्षत किो०] । ऋक्षविभावन---सज्ञा पुं० [सं०] ग्रहो एव नक्षत्रो की गति का निरीऋकतंत्र संज्ञा पुं॰ [स० ऋक्तन्त्र]सामवेद का परिशिष्ट भाग (को०]। क्षण [को॰] । ऋक्यु- संज्ञा पुं॰ [सं०] १ धन । मुवणं । सोना। ३ दाय घन । ऋक्षहरीश्वर--सुज्ञा पुं० [स०] रीछ और बंदरों का राजा ।। विरासत । वस । किती सुवधी की सपत्ति का वह भाग जो सुग्रीव को । धर्मशास्त्र के अनुसार मिले । ४ हिम्से की जायदाद । हिस्सा। छ । ऋक्षा-सज्ञा स्त्री॰ [सं०] उत्तर दिशा कौ)। ऋक्थग्राह-सुज्ञा पुं० [सं०] किसी के द्वारा छोडी हुई सपत्ति को प्राप्त , ऋक्षी--संज्ञा स्त्री० [सं०] रीछ की मादा । मादा भालू [को०] । करनेवाला व्यक्ति । उत्तराधिकारी । वारिस [को॰] । ऋक्षक--वि० [सं०] रीछ के समान मासे खानेवाला (को०] । ऋवथ भाग-सज्ञा पुं० [सं०] १. हिस्सा । दायि । २. सपत्ति वा । ऋक्षोका-संज्ञा स्त्री॰ [सं०] एक अपदेवी (को॰] । जायदाद का भाग को०] । शृक्षेश-सज्ञा पुं० [सं०] हिमाशु । चंद्रमा [को०) । ऋक्यभागी--सज्ञा पुं॰ [स० ऋक्थभागिन] दे० 'ऋक्थग्राह' । ऋखि ----सज्ञ1पुं० [सं० ऋषिदे० 'ऋषि' । उ०—गघि के नद विहारे गुरू जिनते ऋखि पेष किए उदरे हैं।--राम० च०, पृ० ४२ । ऋक्थहारी-सुज्ञा पुं० [ऋक्यहारिन्] उत्तराधिकारी । वारिस [को०]।। ऋकसहिता--संज्ञा स्त्री॰ [सं०] ऋग्वेद के मत्रों का संग्रह (को०] । ऋग -सज्ञा,पु० [सं० ऋग्] दे॰ 'ऋग्वेद'। उ०—(क) पढिवी ऋक्ष-सज्ञा पु० [सं०] [स्त्री० ऋक्षी] १ भलि । २. तारा । नक्षत्र । परयों न छठी छमत, ऋगु, जुजुर, अथर्वन, साम को ।-- २०---जनु ऋक्ष सवै यहि-त्रास भगे । जिय जानि चकोर तुलसी ग्र०, पृ० ५३७ । (ख) न हो सतोप इमपर भी तो फैदान ठगे ।-राम च०, पृ० १८ । ६. मेप-वप अादि राशि । उपमा तीसरी लैलो । युगल पदघारिणी त्रिगुणात्मिका ऋग ४. भिलावाँ । ५ शोनाक वक्ष । ६, रैवतक पर्वत का की ऋचा समझे ।--कविता कौ, भा॰ २, पृ॰ २३८ । 1 के भाग । ऋग्वेद--सज्ञा पुं० [सं०] चार वेदों में से एक। प्रथम वेद । वि० , गधा-सज्ञा स्त्री॰ [न० ऋक्षवा] महाश्वेता । जागली । क्षीर दे० 'वेद' । विदारी ोि०] । ऋग्वेदी---वि० [स० ऋग्वेदिन] ऋग्वेद का जानने या पढनेवाला । क्षहि -सज्ञा पुं॰ [सं०] कूळ का । के भेद । वह पीडायुक्त कोढ़ ऋचास जा पी० [सं०] १. वेदमत्र जो पद्य में हो । २ वेदमझ ।