पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१५१

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ऋद्विकाम ६६५ ऋषितर्पण ऋद्धिकाम--वि० [सं०] समृद्धि । चाहनेवाला [को॰] । ऋद्धिमान--- वि० [ला० ऋद्धिमान्] सपन्न । प्रतिष्ठित । ऋद्धिसिद्धि----सुज्ञा स्त्री० [सं०] समृद्धि और सफलता । बिशेप---यें गणेश जी की दासिय मानी जाती हैं। ऋघिसिधि --संज्ञा स्त्री० [सं० ऋद्धिमिद्धि] ३० ‘ऋद्धि सिद्धि' । उ०—ऋधि निधि विधि चारि सुगति जा बिनु गति अगति। –तुलसी ग्रं० पृ० ३६० ।। ऋन-सज्ञा पुं० [सं० ऋण] दे॰ 'ऋण'। उ०—पाही खेती, ल' नवट, ऋ कुव्याज, मग खेत । वैर बड़े सौं अापने किए च दु ख हैत-तुलसी ग्र०, पृ० १४३ ।। ऋनियाँG—वि० [हिं० ऋन +इया (प्रत्य)] ऋणी । कर्जदार । देनदार। उ०—-साँची सेवकाई हनुमान की सुजानगये ऋनिय कहाए ही विकानो ताके हाथ जू —तुलसी ग्रे २, पृ० २०२। ऋनी –वि० [सं० ऋणी] दे॰ 'ऋणी'। उ०—पूर तप व । कियो कष्ट कर इनको वहुत ऋनी हौं ।—सूर (शब्द०)। ऋभु- संज्ञा पुं० [सं०] १ एक गण देवता । २ देवता । ३ देवो का अनुचर वर्ग (को०)। ४ शिल्पी। रथकरि(को०)। ५ अधं देवता के रूप में कथित सुधन्वा के तीन पुत्र ऋभु, बाज और विश्व जिनका वोघ ज्येष्ठ ऋभु के नाम से होता है ।। ऋभुक्ष- सज्ञा पु० [सः ऋभुक्षन्] १ इद्र । २ स्वर्ग । ३ वज्र । ऋश्य--सज्ञा पुं० [सं०] १ सफेद पैरोवाला मृग । २ हनन । बघ । ३ दृ व देना । कष्ट पहचाना । पीडन । ऋश्यकेतन, ऋश्यकेतु -- सज्ञा पु० [सं०]१ कामदेव । प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध [को॰] । ऋश्यद--सज्ञा पुं० [सं०] हरिन को पकड़ने के लिये खुदा हुआ। गतं (को०] । ऋश्यमूक-सज्ञा [सं०] पर्वतविशेष (को॰] । ऋपभ--संज्ञा पुं० [सं०] १ वैन । वृषभ । विशेप-पुरुष या नर आदि शब्दों के आगे उपमान रूप मे ममस्त होने से सिह, भ्यान्न अादि शब्दो के समान यह शब्द भी श्रेष्ठ का अर्थ देता है । जैसे, पुरुपर्पभ= पुरुपयेष्ठ। २ नक या नाक नामक जलजतु की पूछ । ३ राम की सेना का एक वदर ।४ वैल के प्रकार का दक्षिण का एक पर्वत जिस पर हरिश्याम नामक चदन होता है (वाल्मीकीय) । ५ संगीत के सात स्वरों में से दूसरा ।। विशेप--इसकी तीन श्रुतियाँ हैं--देयावती, रजनी और रतिका। इसकी जाति क्षत्रिय, वर्ण पीला, देवता ब्रह्मा, ऋतु शिशिर, बार सोम, छद गायत्री तथा पुत्र मालकोश है । यह स्वर वैन के समान कहा जाता है पर कोई कोई इसे चातक के स्वर के समान मानते हैं । नाभि से उठकर कठ और शीयं को जाती हुई वायु से इसकी उत्पत्ति होती है। ऋषभ (कोमल) के स्वरग्राम बनाने से विकृत स्वर इस प्रकार होते हैं-- ऋषम म्वर । गाधार--ऋषभ । तीव्र मध्यम–गाघार । पंचम-मध्य में। धैवत-पचम । निषाद--धवत । कोमल ऋषभ---निपाद ! ५. लहसुन की तरह की एक अोपधि या जडी जो हिमालय पर होती है । इसका कद मधुर, वलकारक और कामोद्दीपक होता है । ७ नर जानबर । जैसे, अजर्ष भ=ब करा (को०)। ६ वाराह की पूछ (को०)। ६ विष्णु का एक अवतार (को०)। ऋषभक-संज्ञा पुं० [सं०] ग्रप्टवर्ग की प्रोषधियो में से एक फिौ] ! ऋभिकूट- संज्ञा पुं० [म०] एक पर्वत का नाम (को०] । ऋषभतर--संज्ञा पुं० [सं०] छोटा या जवाने वैन [को॰] । ऋपभदेव-संज्ञा पुं० [सं०] १ भागवत के अनुसार राजा नाभि के पुत्र जो विष्ण के २४ अवतारों में गिने जाते हैं। २ जैन घर्म के यदि तीर्थक । ऋपभध्वज--संज्ञा पुं० [स०] शिव । महादेव।। ऋपभी-संज्ञा स्त्री० [सं०] १ वह स्त्री जिसकी रग रूप पुरुष को । तरह हो । २ गाय (को०) । ३ दिधवा (को०)।४ कपिकच्छ। केवच (को०)।५ दे० 'शिराला’ ‘शिरालक' (को०)। ऋपि सज्ञा पुं० [सं०] १ वेदमत्रो का प्रकाश करनेवाला । मत्र द्रष्टा । अध्यात्मिक और भौतिक तत्वों का साक्षात्कार करनेवाना। विशेप ऋयि सात प्रकार के माने गए हैं—(क) महपि, जैसे व्यास । (ख) परमपि जैसे भेल । (ग) दे जैसे नारद । (घ) ब्रह्मपि, जैसे वसिष्ठ । (च) श्रुतपि, जैसे सुश्रुत । (छ) राजपि, जैसे ऋतुपर्ण और (ज) व डिप, जैसे जैमिनि । एक पद ऐम सान ऋपियों का माना गया है जो कल्पात प्रलयो में वेदों को रक्षित रखते हैं । भिन्न भिन्न मन्वंतरो मे सप्प के अंतर्गत भिन्न भिन्न ऋषि माने गये हैं। जैसे, इस वैवस्वत मन्बतर के सप्तपि ये हैं--कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम जमदग्नि और भरद्वाज। स्वायंभुव मन्वतर के मरीचि, अत्रि, अगिरा, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु और वशिष्ठ । यौ०-ऋषिऋण ! ऋविकल्प = ऋषितुल्य । ऋषिकुमार= ऋपि का पुत्र | ऋषिगिरि= मगध का एक पर्वत । ऋषिपचनी । ऋषिमित्र। ऋषिराज । ऋविवर्य । ऋषिसाह्वय = शृपिपत्तन । ऋपिस्वाध्याय ।। ऋषिऋण-संज्ञा पुं० [सं० ऋषि+ऋण] ऋपियो के प्रति कर्तव्य । विशेष-वेद के पठनपाठन से इसे ऋण से उद्धार होता है। ऋपिक-संज्ञा पू० [सं०] १ निम्न श्रेणी या स्तर का ऋषि । २ प्राचीन कान का एक जनपद अौर उसके निवामी (ये। ऋपिकूल--संज्ञा १० [सं०] १ ऋषि का वेश । २ ऋषि का झाश्रम । ३ गुरुकुल (०] । ऋषिकुल्या- सज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी का नाम जिसका उल्लेख महाभारत के तीर्थयात्रा पर्व में है। ऋपिचाद्राय:--संज्ञा पुं० [सं० पचान्द्रायण]एक विशिष्ट प्रकार की व्रत [को० । । ऋपिजागल-संज्ञा पुं० [३० ऋपिनाङ्गत] [ी० ऋपिजालिका] काशगंधा नमक पौधा [को०)। ऋषितर्पण - सना १० [२] पियों की तृप्ति के निमित किया जानेवाला दर्पण या जलदान (को०)।