पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१६३

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ऐकांतस्वरू१ एकाग्राम निर्जन स्यान में रहनेवाला । अकेले में रहूनेदाला। सबवे एकाकार-वि० एक प्रकार की । समान हप का। मिल जुलन्यारा रहनेवाला । उ०-‘फिर एकातवासी लोग भी परम धर्म कर एक है । से क्योंकर न्यारे होगे ।'--प्रताप० ग्र ९, पृ० १०३ । एकाका--वि० [सं० एकाकिन] [स्त्री० एकाकिनी! अकेला । ननही । एकातस्वरूप -वि० [सं० एकान्तस्वरूप] असंग । निन् । ३०---देवविग्रह एकाका धमॉन्मत काला पहाड के अपवारोहियो ऐकातिक–वि० [सं० एकान्तिक] एकदेशीय । जो एक ही स्यन के से घिर गया । इद्र०, पृ० ११७ ।। लिये हो । जिसका व्यवहार एक से अधिक स्यानो या अवसरो एकाक्ष–वि०स०][स्त्री० एकाक्षी ]जिसे एक ही अब हो । कान) । पर न हो सके। जो सर्वत्र न घटे । एकदेशीय । जैसे २ एक ही अक्ष या धुरीवाला (को॰) । एकातिक नियम । यौ०-एकाक्ष रुद्राक्ष = वह रुद्राक्ष जिसमें एक ही अखि या विदी एकाती-संज्ञा पुं० [सं० एकान्तिन] एक प्रकार का भक्त जो भगवत्प्रेम हो । एक मुख रुद्राक्ष। एकाक्षपिंगल । को अपने अनुकरण में रखता है, प्रकट नहीं करता फिरता ।। एकाक्ष-सज्ञा पुं० १. कौआ । २ शुक्राचार्य । ३ शिव (को०)। एका'- सुज्ञा स्त्री० [सं०1 दुर्गा । एकाक्षपिगल-सज्ञा पुं० [स० एकाक्षपिङ्गल कुवेर । एका--सुज्ञा पुं० [स० एकता,>प्रा० *एकr,> हिं०] ऐक्य । एकाक्षर'.-वि० [सं०] एक अक्षरवाला को०] } एकता । मेल । अभिसधि । जसै *) इन लोगों में वडा एकाक्षर-सज्ञा पु० १ एक अक्षरवाला मत्र 'ॐ' । २ एक उपनिषद एका है। (ख) उन्होने एका करके माल का लेना ही वद | [को॰] । कर दिया । उ०--ऐसे केक जुद्ध जीते सिघ सुजान नै । तव एकाक्षरी--वि० [सु० एकाक्षरिन्] एक अक्षर का। जिसमें एक ही मलार ह्व' सुद्ध कूर्म सौ एको कियो ।—सुजान०, पृ० ३५ ! | अक्षर हो । एक अक्षरवाला । जैसे—'एकाक्षरी मंत्र' । एकाई-सज्ञी भी० [हिं० एक+अाई (प्रत्य॰)] १. एक का भाव । यौ०.--एकाक्षरी कोश = वह कोश जिसमें अक्षरो के अलग अलग एक का मान । इके आई। लघुतम घटक अग। २. वह मात्रा | अयं दिए हो जैसे 'ए' ले वासुदेव, 'इ' से कामदेव इत्यादि । जिसके गुणन या विभाग से और दूसरी मायाग्रो का मान एकागर--वि० [म० एकांग्र] एक अोर स्थिर । चंचलता रहित । ठहराया जाता है। जैसे- किसी लथी दीवार को मापने एकाग्र। उ०---चाँद सुरज एकागर कारकै उ नहिं उरध के लिये कोई लवाई ले ली और उसका नाम गज फुट इत्यादि। अनुसेरे भीखा ०, पृ० ८ । रख लिया। फिर उस लबाई को एक मानकर जितनी गुनी एकाग्र'--वि० [सं०] १ एक ग्रोर स्थिर । चचना मे रहित । ३. दीदार होगी उतने ही गज या फुट लंबी वह कही जायगी । अनन्यचित्त । जिसका ध्यान एक और लगा हो । ३ अकों की गिनती में पहले अंक का स्थान । ४ उस स्थान यौएकाग्रचित्त । एकाग्रदृष्टि । एकाग्रभूमि । एकाग्रमन । पर लिखा हुम अक । एकाग्र-सज्ञा पु० योग में चित्त की पाँच वृत्तिायो या अवस्याग्रो में से विगेप--अंको के स्थान की गिनती दाहिनी ओर से चलती है, | एक जिसमे चित्त निरर किसी एक ही विषय की ओर लगा जैसे-हजार, सैकड़ा, दाई, एकाई । एक स्थान पर केवल रहता है। ऐसी अवस्था योगसाधना के लिये अनुकूल और 6 तक की संख्या लिखी जा सकती है। सख्या के अभाव में उपयुक्त कही गई है। वि० 'चित्तभूमि' । शून्य रखा जाता है, जैसे ‘१०' । इसका अभिप्राय यह है। कि इस सन्या में केवल एक दहाई (अर्थात् दस) है और एकाग्रचित्त---वि० [सं०] स्थिरचित्त । जिसका ध्यान बंधा हो । एकाई कै स्यान पर कुछ नहीं हैं। इसी प्रकार १०५ लिबने से जिसका मन इधर उधर न जाता हो, एक ही ओर लगा हो । यह अभिप्राय है कि इस संब्या में एक सैकड़ा, शून्य दहाई उ०- 'मैंने भी अाज इस मामले को बड़े एकाग्रचित्त से विचारा और पाँच एकाई है। था --श्रीनिवास 7०, पृ० ६९। एकाएक-- क्रि० वि० [हिं० एक, मि० फt० यकायक] अकस्मात् । एकाग्रचित्तती- संज्ञा स्त्री॰ [सं०]स्थिरचित्त होने की स्थिति या भाव । अचानक । सहसा । उ०—एकाएक मिलै गुरु पूरा मूल मंत्र उ०-- पर यह उन्हीं का नायू है जिन्हे एकाग्रचिता का तय पावै ।-धरम०, पृ० १७६ । अभ्यास हो ।'---प्रताप 7 ०, पृ.० ५२३ ।। एकाएकी--क्रि० वि० [हिं० एकाएक] अकस्मात् । मेहसी ! एकाग्रता--संज्ञा स्त्री॰ [सं०] १ चित्त का स्थिर होना। अचचलता। अचानक । एकाएक । ३०--‘सहृदयों को इन पत्र का उ०-उसे कल्पना की एकाग्रता ने पानी के पैरो की चॉप एकाएको अत हो जाना अत्यत कष्टदायक होगा।'--प्रताप तक सुनवा दी' ।--तित नी, पृ० ६८। २ योगदर्शन के अ ०, पृ० ७२३ ।। एकाएको?--वि० अकेला । तनहा । उ०--एकाएकी र अवनि पर अनुसार वित्त की एक भूमि जिम में कि प्रकार के चच पता दिल का दुविधा खोइवे । कहै कबीर अलमत्त फकी। अपि या अस्थिरता नहीं रह जाती और योगी का मन बिलकुल निरतर सोई ।—कबीर (शब्द॰) । ज्ञात रहता है ।। एकाकार-संज्ञा पुं॰ [स०एक+आकार मिल मिलाकर एक होने की एकाग्रदृष्टि-वि० [स०एफ विदु पर दृटि केद्रित रखनेवाला।। किया। एक मय होना | भेद का अभाव । जैसे वहाँ सर्वत्र एकाग्रभूमि-संक्षा " [सं०] चित्त की अवस्था जिनन कि वन एकाकार है, जाति पांति कुछ नहीं है। पर चित्त एकाग्र हो जाता है को०] ।