पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१७७

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ऐरागैरा ४.-वि० १ ठीक । उपयुक्त । सटोक। जैसे,—(क) तुम ऐन वक्त पर ऐवजोई-सज्ञा स्त्री॰ [फा०] दोप हुदैन । छिद्रान्वेपण। अाए। (ख) मार्गशीर्ष की ऐन पूणिमा को जीवन में आया । ऐवदार- वि० [फा०] दोषयुक्त। दोपी । पापी। उ०—कहि कवि -अपलक, पृ० १६ । २. बिल्कुल । पूरापूर । जैसे--अापकी गम तुम करुनानिधान कान्ह, कोटि जो है ऐवदार और द्वार ऐन मेहरवानी है। भयो है-गंग०, पृ० ५।। 1-सृज्ञा स्त्री॰ [अ० ऐन = अख] अाँख में लगाने का चश्मा । ऐवपोशी–संज्ञा स्त्री० [अ०] ऐव पर पर्दा डालना । दोष उ०—अज़न अॅपियो में मत अाँजो, ग्राला ऐनक लेहु लगाय। छिपाना को०] । --कविता को॰, भा॰ २, पृ० ६५ 1 ऐवारा-सज्ञा यु० [हिं० चार<स० द्वार= दरवाजा]१ बाडा जिसमे एनस-सज्ञा पु० [सं०] पाप । एनस (को०] । भेड बकरियां रखी जाती हैं । २ वह घेरा जिसके भीतर ऐत-सुज्ञा पुं॰ [फा० आईनह> अईना> हि०अइना] दे॰ 'आईना' । जगल में चौपाए रखे जाते हैं। गोवाड । ठाढा । ऐनिपु–सज्ञा पुं० [सं०] सूर्य का पुत्र । ऐवी-वि० [१०]१ दूषणयुक्त ! खोटा । वुरा । २ नटखट । दुष्ट। यौ०–एन्विस [स ० ऐनिवेश] = सूर्यवश । उ०—मन सकल्पत शरीर। ३ विकलाग, विशेषतः कानी । अप कल्पतरु सम सोहर बर। जन मन बाछित देत तुरंत द्विज ऐभ-वि० [सं०] इभ अर्थात् हाथी सबधी [को॰] । ऐनिवंस बर |--नुलसी (शब्द०)। | ऐमेचर--सज्ञा पुं० [अ०] वह जो कला विशेष पर विशेप रुचि और ऐनीता--संज्ञा पुं० [फा० आईन] वदर को शीशी या दर्पण दिखाना अनुराग के कारण शौकिया तौर से उसका अभ्यास करता (कलदो की वोली) । है और अपनी कलाभिज्ञता दिखाकर धन उपार्जन नही ऐन्य-वि० [सं०] १ सूर्य सवधी । २ स्वामी या मानक सवधी [को॰] । करती । शौकीन । जैसे--(क) ऐमेचर डामटिक क्लव । (ख) ऐपन--सज्ञा पुं० [स० लेपन अथवा देशी अइिप्पण= चावल का दूध। ‘वह ऐ मेचर होने पर भी दडे व ऐक्टरों के कान काटती है । गृह का भुषण] एक भागनिक द्रव्य। यह चावल और हल्दी ऐया---संज्ञा स्त्री० [सं० आर्या, प्रा० अज्जा] १ बडी बुढी स्त्री । r+ को एक सय गीला पीसने से बनता है। देवताओं की पूजा में । दादी । २. साथ ।। इससे छाप लगाते हैं और घों पर चिह्न करते हैं। उ०- याम--संज्ञा पुं० [अ० योम (दिन) का बहु वे०] दिन । समय । (क) अपनो ऐपन निज हथा तिय पूजहि नित भीति । फले मौसिम । बक्त । उ०—यादे ऐयाम वेकारारिए दिल, वह भी सकल मनकामना तुलसी प्रीति प्रतीति ।-नुलसी ग्र०, पृ० या रखें अजव जमाना था ।---शर० पृ० १९७ । १४१ । (घ) के तिक सोने की डि केसर सो मारी मीडि | ऐयार-संज्ञा पुं० [अ०] [स्त्री॰ ऐयारा] १ चालाक । धुतं । ऐपन की पीडि जति चपाऊ लजायो है ।- गग०, पृ० २३ ।। उस्ताद । घोखेबाज । छली । उ०----(क) ऐयार नजर मक्कार ऐपरिf-अच्य० [स० एतदुपरि दे० 'ऍपरि' । उ०.-ऐपरि कवि अदा त्योरी की चढ़ावत वैसी ही कविता कौ०, भा० ४, इक ठौर वतावें । जव वलि मे कछु गाथा गाव नद० प्र ०, १० ३२७ । (ख) उसे ऐयार पाया यार समझे जौक हम पृ० १३७ ।। ऐपै----क्रि० वि० [हिं० ऐ+१] इतने पर भी । एते १ । उ० - (क) जिसकी ।—शेर० पु० ४१३ । २ वह व्यक्ति जो चालाकी से ऐप कहू” बाको मुख देखन न पाइये ।--घनानद०, पृ० ४६८1 अनोखे काम करता हो । वहुगुण युक्त गुप्तचर या कार्यकर। (ख) उपजे वनिक कुल सेवे कुन अच्युत को, ऐपे नहि वने एक । ऐयारी--संज्ञा स्त्री० [अ०] चालाकी। धूर्तता ! छल । ऐयार का कार्य। तिया रहै पास है ।--(भक्तमाल) श्रीभक्ति०, पृ० ५५६। ऐयाश----वि० [अ०] [सज्ञा ऐयाशी] १. वहुत ऐश या आराम करने ऐव----संज्ञा पुं० [अ०] १ दोष 1 दूपण । नुक्स । उ०—ऐब अपने | वाला । २. विपयी । लपट । इद्रियलोलुप ।। घटा १ खवरदार रहो। घटने से न उनकै बढ़ जाए गरूर । ऐयाशी--सज्ञा स्त्री० [अ०] विपयासक्ति । 'भोग विलास । -कविता कौ०, भा० ४ पृ० ६०१ । ऐरण - सज्ञा पुं० [स० आहनन, आ+घनवा +धेरण]६०'अहरन। मुहा०—ऐब निकालना = दोप दिखीना(किसी वस्तु में) । ३०-. निहाई । उ०—लोहा होय तो ऐरण मगाऊँ धण की चोट अगर चाहा निकालो ऐ तुम अच्छे से अच्छे मे । जो ठूढोगे दिराऊ ।--राम० धर्म०, पृ० ४४। तो अकबर में भी पायोगे हुनर कोई।-शेर । ऐरन-संज्ञा पुं० [अ० इयरिरग] कान का एक अभूपण । २ अवगुण । कलकै । वुराई । उ०—यहां के दुकानदारों में ऐराक---संज्ञा पुं० [अ० एराक] दे॰ 'एक'। यह बडा ऐव है कि जलन के भारे दूसरे के माल को वारिह ऐराकी -दे० [अ० ऐराकी] दे॰ 'एराकी' । आने की जाँच देते हैं ।—श्रीनिवास ग्र०, पृ० १७४।। ऐराखी -- वि० [हिं० ऐराखी दे० 'एराकी' । उ॰---ऐराखी महा०-ऐव लगाना = फलक लगाना । दोषारोपण करना | घर घोरिया जाए । पच बछेरा लगै सुहाए ।-प० रा०, " (किसी व्यक्ति पर)। पृ० ११७ ।। य०--- ऐवजोई। ऐवदार । ऐवपोशी । ऐबहुनर = गुण दोष । ऐरागेरा--वि० [अ० + गैर] १ वेगाना । अजनबी (व्यक्ति) जिससे ऐवजो-वि० [फा०] दोष देनेवाला । छिद्रान्वेषी। कुछ वास्ता न हो। २. इधर उधर का! तुच्छ । २-२१