पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१७८

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ऐरापत यौ--ऐसे गैरा नत्यं वैरा =ऐरा गैरा । ऐरे गैरे पंचकल्यान । ऐलक- ज्ञा स्त्री० [२] ३० ‘एलक' । ऐरे गैरे पेंचकल्यानी = इधर उधर के बिना ज्ञानं बूझे अादमी । ऐलवालुक-~-चैज्ञा पुं॰ [सं०] १ एक गधद्भब्य । २ ।। इ०-~-ऐरे गैरे पॅचल्यान बहुत देव हैं नुम कौन हो - 'एन्नवालुक' चे०] । झिमाना०, १० ३, पृ० ३०३ । ऐलविल-सा पुं० [३०] कुधेर ! एतविल डैि । ऐरापति -सुज्ञा पुः [सं० ऐरावत] ऐरावत हाथी । ३०-सुरण ऐलान--- पु० [अ॰] दे॰ 'एलान (०) । इहित १३ वैव अविन। प्रवल वन पति देक्ष्यो उतरि ऐश'—सञ्च टुं० [अ० अरनि । चैन । भोग विलाच । ६०---- गगन । धणि अनाव !-—सूर (शब्द॰) । “अनौरों को ऐय के मिजाये और क्या काम है।'--श्रीनिदान ऐराव-संज्ञा पुं० [अ०] नुरज में वादशा की किश्व बचाने के ग्रं॰, पृ० १०२ } | लिये किसी में हरे को बीच में डाल देना । अरव । क्रि० प्र०—करना । ऐरोल-मुज्ञा पु० [अ० इरा = जल + तु] एक प्रकार की पहाडी यी०--ऐस व शाराम,ऐशो झाराम, ऐदा ३ इरित, ऐशो इदारतकी जो नरज की तू है होती है। यह कुमाऊँॐ ने निकम सुख चैन । नोन विनास ।। तुक होती है । ऐश-वि० [सं०] [वि॰ म्झौ० ऐश १ ईञ्च । (शिव) सुवघो । १ ऐरावण-सज्ञा पुं॰ [नु०] ऐरावन ।। दैदिक । ईश्वरी । ३ ईश (राजा) अवधी राजकीय चैि । ऐरावत-सज्ञा पु० [३०] १ इरावात् नैघ विजली प्रदीप्तं ऐशगाह-संज्ञा पुं० [अ०] ॐलिभवन । विलासगृह वै । वादन । २ इंद्रधनुय । ३ बिजली । ४ इश् का हायीं जो Tया ना ऐशान-वि० [३०] १. शिव सुवधी । ३ ईशान ए ववधा०] । है पूर्व दिशा र दिग्गज्ञ हैं । ५ एक नाT का नाम। ६ नारी ।। ऐशानी --वि० [३०] १. दा (को०)। २ ईशान कर सुववीं । १७ लकुचे। बहर । पूर्ण जाति का एक रT जिसमे । ऐशिक-वि० [२]१. ई वी । दैविक । ३ शिव बुदधी३] । ब गुद्ध म्वर लाते हैं । ६ वद्रमा का उत्तरी माई (को॰) । | ऐशू - संवा पुं० [देश०] चौपयों का एक रोग जिसमें उनका मुंह ऐरावती-- सुज्ञा स्त्री० [स०] १ ऐरावत हाथी की स्त्री। बिजन ।। | वैध जाता है, वे पागुर नहीं कर सकते है। ३ वी नदी । ४ ब्रह्म (ब्रह्मा देश) की एक प्रधान नदी ।। | ऐश्य--सा पु० [२०] १ ईत्व । अनुत्त्र । २ २क्ति ३० । ५ बटपुत्री का पौधा । ६ चंद्रमा की एक वीथी जिसमें ।

  • ऐश्वर–वि० [३०] १ शिव सुवधी । २ ईश्वरीय । दैविक । ३ अश्लेपी, पुप्य और पुनर्वसु नक्षत्र पहने हैं।

शशिनी । ४ राजकीय (०३ । ऐरिण--ज्ञा नृ० पुं०[३०] १ बँधा नमक । ३ रेह ने भरी जमींन । असुर [चें०] । " ऐश्वर्य-या पुं० [३०] १ विभूति । इन पति । २ अणिमादिक ऐरिस्टोक्र ची–मुज्ञा स्त्री० [अ०] १ एक प्रकार की रविना विद्भिय । ३ प्रभुत्व । प्राधिपत्य । ४. ईश्वरता (को०) । ५ या शाननमूत्र जो बड़े बड़े भून्यधिकरियों (उरदारों) शक्ति । ताकत (को०} { ३ राज्य (०) । या ऐश्वर्यनंपन्न नागरिकों के हाथों में रही है। सरदार तय । क्रि० प्र०-भोगना ।। यौ०-ऐश्वर्यशाली, ऐश्वर्ययुक्त =नापन्न । वैनवशाली । कुनीन तंत्र । अभिजात तु । २ ऐ३ लोगों की नदि यो ।

  • ऐश्वर्यवान--वि० [सं०] [ वि० सौ. ऐश्श्यंती | वैभवशाली । पतिभनाज । अभिजात समाज । मुनीन नुमाई । ऐरे---सुज्ञा पुं० [३०] अन्न की बनी हुई एक प्रकार की शराव (०] ।।

वान् । वपन्न । " ऐपीक'---सच्चा पुं० [सं०] एक छन्त्र व स्वप्टा देता का भूत्र पड़कर ऐल-सज्ञा पु० [स०] इना का पुत्र पुरुरवा । | चलाया जाता है। ऐल -- वैज्ञा पुं॰ [हिं० प्रहिला] १ बाइ । बुडी ।२. अधिकती । ते ऐपीक--वि० [३०] सुरकंडा या वैत का (गर)। वरऊंड या बँत वाढ ! ३०---भुवन भनत हि वेर्ने चरजा के पास प्राइवे सृवधी (को०)। को चढ़ी दर हानि की ऐन है ?--भूपण (शब्द॰) । यौ०-- ऐपीक पर्च= महाभारत के शौप्तिक पर्व का एक अंश । काम है। इड। दन । उ०—-तीव तेगवाही चिपाही चढे यौन पे म्वाही च अमित अरिंदन की ऐन पं —पदार | ऐष्टक'चा पुं० ]०] यज्ञ ईटों को चुनना या उन ईंटों को ०, पृ. ३१० । । शोरगुत्र ! हाच । वलवनी । ३०--- क्रमवद्ध करना [को॰] । जलनि के बैन नै, मनन, मन ए, मैनज के सैन गैल गैन ऐप्टक-वि० ईटोंवाना ! ई का बना हुआ (मकान) (०)। प्रति रोक हैं:- केशव ३०, ० १, पृ० १६५। ऐप्कि -वि० [सं०][वि॰ बी० ऐप्टिको] इष्टि अवांत यज्ञ से सवंत्र ऐल- ज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार की कैंटीनी लता जिसकी पत्तियां | रखनेवाला। यज्ञ या उत्सव चवधी (०] । प्राव एक दुद नदी होती है। अलई । अः । | ऐस' -वि० [हिं०] ३० 'ऐना'। इ०----माई , त्रास न, भानुय विपद् देहूनि न्हेलजड, अवध धीर रितुपुर के नाम श्रद्धा । भए चौबँड नौ ऐच पखंडा वायनी 7 ० ० ३०५। जमीन में पाई जाती है। प्राय संवाँ ग्रादि के चारों और ऐस--सा दे० [अ० ऐश] १० 'ए' । ३०---जन लगी है। कछु इनकी वाटू लगाई जाती है । कहीं कहीं इनकी पत्तियाँ चमडा । कवडू सिगारन को, तन लगी है के ऐड वेस वारी की -- चिकने ॐ ॐन में नी भाती है। पद्माकर ग्रे०, १० २०११