पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१८०

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हा प्रोखल ओठ हिलना= मुंह से शब्द निकलना । अोठ हिलाना = में है। अरे । अटपटि प्यास भरो ब्रजमोहन पलकनि योक करे । से शुद्ध निकालना ।। -घनानंद, १० ४६७ ।। ओडा' –वि० [स० कुछ, प्रा० उड] गहरा । । क्रि० प्र०----लगाना । जैसे,—'ग्रीक लगार पानी पो ) । ओक-सज्ञा स्त्री॰[ो ओडा—संज्ञा पुं॰ [स्त्री० ओंडी] १. गहढा । गढ़ा। गतं । उ०-- प्रो' से अनु० +1 2 फ] वमन करने की औगुन की ओडो, महाभोडो मोह की कनोडी, माया की मसूरती | इच्छा । मतली । है मूरती है मैल की ---राम० धर्म०, पृ० ६७ । २ चोरों ओकणे, अोकणिराज्ञा पुं० [सं०] १ ग्युटमले । २ फैशकीट। की खोदी हुई सँघ । ढील । जू (को०) ।। ध-सज्ञा [सं० वन्ध] वह रस्सी जिससे छाजन पूरी होने के पहले ओकणी-सज्ञा स्त्री० [सं०] द ‘ो कम्श', 'अोकणि' (०) । लकडियाँ अपनी अपनी जगहो पर कसी रहती हैं। ओकना-क्रि० अ० [अनु० + हि० करना या हि० घोक+ना] श्रो–सज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा ।। १ ओ औ करना । के वरना । २ भैरा की तरह चिल्लाना। –मय ० १ एक सवोधनसूचक शब्द । जैसे,—ो लडके । ब्रोकपति-सज्ञा पुं० [सं० घोक पति] मूर्य या चंद्रमा । पू०--नागरी इधर अग्निो। २ सयोजक शब्द । र । ३ विस्मय या स्याम सौ कइति वानी । रुद्रपति, छुपनि, लोकपति, मोकपति, अश्चर्यसूचक शब्द । ओह । ४ एक स्मरसूचक शब्द । । घर निपति, गगभपति अगम वा ।---सूर०, १०॥१९४७ । जैसे,—ो । हाँ ठीक है, आप एक बार हमारे यहाँ अाए थे । कस्---सज्ञा [सं०] घर । गृह । ६० अक' । श्रो –सर्व० [हिं०] दे॰ 'वह'। उ०—उसके कर कर सनाथ यौ०-वनौकस दिवौकस् । नामदेव दीनानाथ ो गाई लियी सात उस वक्त चल दिये । शोकाई-संज्ञा स्त्री० [हिं० ओफ + भाई (प्रत्य॰)] १ चमन । के। –दक्खिनी॰, पृ॰ ५० । २ यह् । उ०—राणी राजाने कहइ २ वर्मन करने को इच्छा । मतले।। प्रो म्हाँ नातरउ कोध 1–ढोला०, दु० 81 प्रोकार--सज्ञा पुं॰ [सं०] अक्षर । औश्र --सज्ञा पुं० [सं० प्रोम्] ६० 'ओम्' । उ०—पहिले प्रारति प्रकारात--वि० [सं० प्रोफारात] जिसके अंत में प्रो' अदार है।। विराजे, श्रोअ सोह ध्यान लगावै ।--घरनी०, पृ० १८ । जैसे,—फोटो, ठोगो । श्रो ओ --अव्य० [हिं०] दे॰ 'ओह' । उ०—वह इतना डर जाता ओको सज्ञा जी० [हिं०] दे॰ 'सोकाई' । कि उसके मुंह से ओ ओ छोडकर सीधी वात न निकलती । -रस० के० (भू०), पृ० ३० । । कुल-सज्ञा स्त्री० [सं०] अघभुना या तप्न किया है। गेह [को॰] । श्रोग्रा- सज्ञा पुं० [देश॰] हाथी फँसाने का गड्ढा । ओए । अोकुलो-सज्ञा स्त्री० [सं०] ग्रांटे की रोटी (को०] । ई-सज्ञा पुं० [देश॰] एक पेड का नाम । ओकुब--वि० [अ० उफूफ वाकिफ । जानकार । बुद्धिमान । उ०श्रोई..-सवं० [हिं० वह, प्रोहि] दे० 'वह' । उ०—अधम के उधारन चार भेद तिण चवे कवियण वर्ड स्नोकूद [-रघु तुम चारो जुग श्रोई । मोते अव अधम अहि कवन घों | रू०, पृ॰ ६७ ।। वडोई । —सतवाणी०, 'भा॰ २, पृ० १२६ ।। ग्रोकोदनी–ज्ञा स्त्री॰ [स०] दे॰ 'मोकण' (को०) । शोक-ज्ञा पुं० [सं० औकस्]१ घर । स्थान । निवासस्थान। उ०—- ओक्कणी -सद्धा मी० [सं०] १० 'ओकण' (को॰) । (क) सूर स्याम काली पर निरतत अवित हैं ब्रज ओक । ओक्य–वि० [सं०]१ गृह के अनुकूल । २ गृह सब घी (को०)। -सूर०, १०॥५६५ । (ख) ओक की नीव परी हरि लोक ओक्य--सा पुं० १ आनद । प्रसन्नता । २ विश्राम स्थान । अधय । दिलोकत गुग तरंग तिहारे ।—तुलसी ॥ ०, पृ० २३४ । ३ गृहै। मकान (को॰] । २ आश्रिय । ठिकाना । उ०---(क) मोक दें बिसोक किए | ओखद'Gf-सच्ची पुं० [स० अपघदे० 'पध' । उ०—-(क) विरह ) लोकपति लोकनाथ रामराज भयो घरम चारिहू चरन । महाविस तन व सइ अोखद दियई न अाइ ।--ढोला, —तुलसी ग्र०, पृ० ५८० । (ख) सेनानी के सूटपट, चद् चित । दू० १२७ । (ख) जनहू व इद ओखद लेइ वा । रोगिया रोग चटपट, अति अति अटपट अतक के ओक है ।—केशव ग्र ०, भा० १, पृ० १४५ मरत जिउ पावा --पदुमा०, पृ० ११० । यौ०- जलौक= जल में अथिय या घरवाली । जोवः ।। धोखरी--संज्ञा स्त्री॰ [हिं॰] दे॰ 'ओखली' । ३ नक्षत्रो यी ग्रहों का समूह । ४. समूह । ढेर । उ०—घर घर ओखल -सज्ञा पुं० [स० ऊपर] परती भूमि । ऊसर । नर नारी लसे दिव्य रूप के श्रोक --मतिराम (शब्द०)। ग्रोखल-सी पुं० [स० उलूखल] ऊखल । योखली । ५ पक्षी (को०)। ६ वपल' । शुद्र (को०) । ७ आनद (को०)। अोखली--सज्ञा श्री० [स० उलूखलिका, प्रा० औक्खली] काठ ओक–संज्ञा पुं० [हिं० चूक = अजली1 अँजुरी । अजलि । उ०— या पत्थर का बना हुया गहूरा वरतन जिसमें धान या शीर (क) वैरी की नारि बिलखति गग यो सूखि गयो मुख जीभ । किसी अन्न को डालकर भूसी अलग करने के लिये मूसल से लुठानी । काढि ये म्यान ते मोक करौं प्रिय ते जु कह्यो तुरवारि कूटते हैं । काँडो । हावन । के पानी ---गुग०, ११२ । (ख) अ पनघदव अनि महा-मोखली में सिर देना =अपनी इच्छा से किसी झट में झा