पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१८१

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खा' अछिी पहना । कष्ट सहने पर उतारू होना । जैसे—अब तो हम यौ० अघौघ - पापो का समूह । अखिली में सिर दे ही चुके हैं, जो चाहे सो हो । २ किसी वस्तु का घनत्व । ३. देहाव । धार । ६०-~अख्रिा'G---सज्ञा पु०स०yोर् = वारण करना, बचान] मिस । (क) सुनु मुनि उहाँ मुवाहू लखि निज दल खंडित गीत । महा व्याज । वहाना। हीला । उ०—(क) देखिव को दनदन को, विकपुनि झुधिर के ग्रोव विपुल तन जात ।-रामाश्वमेध ननदी दगांव चलौं केहि अोखे ।- वैनी प्रवीन (शब्द॰) । (शब्द०) । (व) साहस उमडना या वेगपूर्ण अघि सा । (ख) नेक ग्रनखाति न अनख मरी अखिन, अनोखी अनखीली -लहर, पृ० ६६ ।४ साक्ष्य के अनुसार एक प्रकार की तुष्टि। रोख अोखे ते करति है।--देव (शब्द॰) । कालतुष्टि । अोखा–वि० [च ० स्रोत् = 'सूखना', प० श्रौखा = देतृा, कठिन] विशेप-काल पा के मद काम अाप ही हो जावेगा', इस प्रकार वि० ख० रोजी १. रूखा सूखा । २ कठिन । विकट । सतप कर लेने को कालतुष्टि या 'ग्रोध' कहते हैं। टेढ़ा। उ०—सुनु, नको न नेह लगवाना है, फिर जो पै लगे तो ५ सातत्य । नैरतयं । अविच्छिन्नता (को०)। ६. परपरा या परपरागत निर्देश (को०)। ७ समग्र । सपूर्ण (को०)। ६ नृत्य निवाहनो है । अति शोखी है प्रीति की राति, असे नहि जोस का एक भेद (को०)। ६. द्रुत लय (को०)। १०. गीत के साथ को रोस सुहावना है |--सुदरी सर्वस्व (शब्द) । ३ खोटा । बजाई जानेवाली तीन वाद्य विधियों में से एक। शेष दो के जिस में मिलावट हो । चोखा का उलटा । ४ झीना। जिसकी नाम तत्व र अनुगत है (को॰) । विनावट दूर दूर हो। विरल । ५ छा! हलका । साधारण ' ओघात--वि०स० अवघटदे० 'अवघट' । उ०--इसे घाट घाट श्रोणि पु----संज्ञा पु०fहि० उपाख्यान, प्रा० उबक्खाण]उपाख्याने। किन्ने मोर ---हम्मीर रा०, पृ० १५२।। कथा । कहानी । उ०-उलटा समझे राम ओख यो साचो छ'–वि० [उन्छ] दे॰ 'छा' । उ०-~ग्रोछ जानि के कृयो । शरण गित देखताम यह कारण अबही भयो । काहहि जिनि कोइ गरब करे । यो पर जो देर ३ जीटि राम० धर्म, पृ० २६६।। | पत्र तेइ देइ ।—जायनी ॥ ०, पृ० ११४।। मोखापन- संज्ञा पुं० [हिं० खा+पन (प्रत्य॰)] दे॰ ओछापन' । श्रोछना- क्रि० स० [हिं० शोछ+ना (प्रत्य॰)] दे॰ 'ॐछना' । श्रोग -सज्ञा पुं० [सं० उद्+/ग्रह हिं० उगहना]उगहनी । कर । उ०:-मैया कवहिं बढ़ेगी चोटी काढत गुहूत नहावत ओछत चदा । महसुल । उ०—-फाहे को होमसो हरि लगते । पैड देह नागिन सी व लोटी |-- कविता को॰, भा॰ १, पृ० ६६ । वहुत अव कीनो सुनते हँसेंगे लोग । सुर में मारग जनि रोकहु अोछना --क्रि० स० [स० अङ्गोञ्छन] दे० 'अंगोछना' । घर ते लीजै ऋोग ---सूर (शब्द॰) । प्रोछना -क्रि० स० [सं० अवाञ्चन] दे० 'ओइछना' । ग्रगण–वि० [सं०] सामर्थ्ययुक्त । सघटित [को॰] । छव@f----सज्ञा पुं॰ [स० उत्सव, प्रा० उच्छव] ६० 'उत्सव' । ओमण'५-सुज्ञा पु० [स० अवगुण] १० 'अवगुण' ।-(डि०) । उ०---जोधा जैत कमाने जादव, इल मछरीक करे धब शोछ । गरना--क्रि० अ० [स० अवगरण] पानी या और किसी तरल | --राज० ९०, पृ० ३२३ । | वस्तु का धीरे धीरे टपकना या निकलना। निचना । रसना । अोछा- विः [स० तुच्छ, प्रा० उच्छ] [क्षी० ग्रोच्छी] १. जो गभीर श्रोगरना--क्रि० स० निकालना । बाहर करना। प्रकट करना । न हो। जो उच्चाशय न हो । तुच्छ । क्षुद्र । छिछोरा । उ०— सब्द के न जा वाँध्यो ओरत नाम अगारी हो। वुर। खोटा । उ०—(क) ये उपजे अछे नक्षत्र के लपट भए -गुलाल०, पृ० २६ ।। बजाइ । सूर कहा तिनकी गति में रहे पराएँ जाइ |–सुर०, ओराल’---सुज्ञा पु० [देश॰] परती भूमि । १०।२३६६ । (ख) अोछ वडे न & सके लगौ सतर ह्व गैन । प्रोगल?--संज्ञा पुं० [हिं० श्रोगरना, या प्रा० अग्निाल = छोटा दीरघ होहिं न नैकडू फारि निहारे नैन -विहारी र०,दो०६०। | प्रवहि] एक प्रकार का कुमाँ। यौ०--ौछी कोस = ऐसी कोख या पैट जिससे जनम लडके न प्रोगला--संज्ञा पुं॰ [देश॰] कूटू । फाफर । उ०—फाफड़ या फाफड़ा जिए। शोछी नजर = अदूरदर्शिता 1 की निगाह । निम्न यहाँ आगला कहा जाता है---किन्नर ७, १० ७० ।। विचार । उ०—-दिल साजना दुमेल, नीचे सग ओछी नजर ।--- गरि----सज्ञा पुं० [हिं० उगल] पान की पीक । उ०—लाल यह वाँकी० ग्र०, ना० १, पृ० ६१ । । सदर वीरी लीजै । हँसि सि के नदलाल अरोगी मुर्ख ओगार २. जो गहरी न हो। छिछला। उ०-देवलि जांचें तो देवी देख मोहिं दीजै ।मारतेंदु ग्र०, मा० २, पृ० १२७ । तीरथ जाउँ त पणि । अची बुद्वि अगोचर वाँणी नहीं परम भोगारना-क्रि० स० [म० अपारण कुए का पानी निकाल गति जाणी।--कबीर ग्र०, पृ० १५४ । ३ हुनका। जोर ३लना । कुअर साफ करना । छानना। का नहीं। जिसमें पूरा जोर न लगा हो । जैसे,—-मोठा हाथ गुण?--सज्ञा पुं० [सं० सदगुण] दे॰ 'अवगुण' । उ०—अग पड। नहीं तो वचकर न निकल जाता 1 उ०-सहसा किसी ने | अपार हुवे जो अवगुण, तोपिण नाह न माह तजे ।-- उसके कधे पर छुरी मारी, पर वह ओछी लगी ।-कंकाल, रघु० ७०, पृ० १०२ ।। १० १७८ । ४ छोटा । कम । जैसे,—ोठा अँगरखा, अो ओघ--सज्ञा पुं० [सं०] १. नमूह । ढेर। उ०—-सिल निदक अघ घ पूजी । उ०—या बाई ने बस्तू वडी पाई है और पात्र तो नसाए । लोक विलोक बनाई बसाए ।—मानस, ११६ । छो है ।दो सौ बावन, मा० १, पृ॰ ३१७ ।। उ =